पैगंबर हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद खिलाफत नामक संस्था अस्तित्व में आई | हज़रत अबू बकर मुस्लिम समुदाय (उम्मा या उम्मत) के पहले प्रमुख (खलीफा) बने | प्रारंभ में सत्ता के उत्तराधिकारी के विषय में चुनाव के कुछ तत्व मौजूद थे | यह प्रथा अपने पूर्व की कबीलाई परंपरा से अधिक भिन्न नहीं थी।
इस्लामी व्यवस्था में खलीफा
को धर्म का संरक्षण और राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखने वाला समझा जाता था | वह पूरे (मुस्लिम) समुदाय का प्रमुख था। पहले चार 'पवित्र खलीफाओं' (हज़रत अबू बकर, हजरत उमर, हजरत उस्मान और हज़रत अली) के काल के बाद बादशाही शासन की प्रथा प्रारंभ हुई जब 661 में उमयूयद वंश का
शासन स्थापित हुआ जिसका केंद्र सीरिया में डमेर्कस में था| उमयूयद वंश के बाद 9वीं सदी के मध्य में अब्बासी वंश सत्ता में आया। इस वंश का केंद्र स्थल बगदाद में था। समय के साथ
केंद्रीय सत्ता क्षीण हो गई और खलीफा की केंद्री.त संस्था तीन प्रमुख सत्ता केंद्रों में बंट गई | स्पेन (उमयूयद वंश की एक शाखा के अधीन), मिस्र (फातिमा वंश के अधीन) और प्रचीनतम बगदाद में
| इनमें से प्रत्येक
मुसलमानों की निष्ठा प्राप्त करने का दावा करता था। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा के पास कुछ छोटे
वंशों ने अपनी रचतंत्र सत्ता
स्थापित कर ली थी | इनमें से एक का केंद्र गजना
था। यहाँ यह महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि सिद्धांततः कोई मुसलमान बड़ा या छोटा 'स्वतंत्र' राज्य स्थापित नहीं कर सकता था | ऐसे किसी भी राज्य के लिए
खलीफा की अनुमति लेना आवश्यक था, अन्यथा
मुसलमानों की नज़र में ऐसे राज्य की
वैधता संदेहास्पद हो जाती। परंतु खलीफा की यह अनुमति औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं थी और इस औपचारिकता का पालन करना
सुरक्षित था|
दिल्ली के सुल्तानों द्वारा खलीफा को मान्यता देना, खिललत की प्राप्ति, प्रतिष्ठापन पत्र की प्राप्ति, सम्मानसूचक उपाधियों की प्राप्ति, खलीफा का नाम सिक्कों
पर खुदवाना तथा शुक्रवार की नमाज़ के समय खलीफा के नाम से धर्मोपदेश (खुतबा) जारी करने के प्रतीकों के रूप में होता था। यह एक
ऐसा कार्य था जो इस्लामी विश्व या व्यवस्था को स्वीकार करना या उससे संबंध बनाए रखने का प्रतीक था। परंतु
वास्तविकता में यह केवल ऐसी स्थिति को स्वीकार करना था, जिसमें कोई शासक अपने आपको स्वयं सत्ता में स्थापित कर चुका था| दिल्ली के सुल्तानों ने खलीफा के पद की महत्ता के भ्रम को बनाए रखा | सैयूयद वंश (1414- 1451) तथा लोदी वंश (1451-1526) के दौरान सिक्कों
पर लेखन (खुतबा से संबंधित) एक परम्परा के रूप में जारी रहा| परंतु यह निष्ठा केवल नाममात्र की थी।
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