धर्म और धार्मिक वर्गों की विजयनगर साम्राज्य के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका थी।
1 प्रतीकात्मक राजत्व
सामान्य तौर पर यह कहा जाता है कि धर्म की कठोर पालना का सिद्धांत विजयनगर साम्राज्य का एक प्रमुख अवयव एवं विशिष्ट लक्षण था। लेकिन, अधिकतर विजयनगर के शासकों को हिन्द शासकों से भी युद्ध करना पड़ता था, जैसे उड़ीसा के गजपति। विजयनगर की सेना में रणनीति के दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण दस्ते मुस्लिम सेनानायकों के अधीन होते थे। देवराया 11 द्वारा मस्लिम तीरंदाजों को भर्ती किया गया। इन मुस्लिम ट्कड़ियों ने विजयनगर के हिन्दू प्रतिहंद्ियों के विरुद्ध विजयनगर की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विजयनगर शासकों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों
के फलस्वरूप दिग्विजयन की पदवी धारण की। विजयनगर का राजत्व एक प्रकार से
प्रतीकात्मक था, क्योंकि विजयनगर के शासक अपनी
सत्ता के प्रमुख केंद्र से परे भू-भागों पर अपने अधिपतियों द्वारा नियंत्रण करते
थे। इस प्रतीकात्मकता का निरूपण धर्म के साधन द्वारा होता था, जो लोगों द्वारा स्वामिभकति निश्चित करता था। उदाहरण के तौर पर
प्रतीकात्मक राजत्व का महानवमी के उत्सव में सबसे अच्छा दृष्टान्त मिलता है। यह एक
वार्षिक राजकीय समारोह था, जो 15
सितम्बर और 15 अक्तबर के मध्य नौ दिन तक चलता था। इसकी
समाप्ति दसवें दिन दशहरा के उत्सव में होती थी। प्रादेशिक क्षेत्रों के महत्वपूर्ण
ब्य र्ण व्यक्ति (जैसे सेनानायक) इस उत्सव में भाग लेते थे। इस उत्सव द्वारा
साम्राज्य के प्रादीशक भागों पर विजयनगर के शासकों की सम्प्रभुता की मान्यता को
-बल मिलता था। यद्यपि ब्राह्मण इस उत्सव में भाग लेते थे, उनकी
भूमिका प्रमुख नहीं होती थी। उत्सव के आनुष्ठानिक कृत्यों का निष्पादन स्वयं राजा द्वारा
किया जाता था।
2 ब्राहटमणों की राजनीतिक भूमिका
विजयनगर
साम्राज्य का एक विशिष्ट लक्षण ब्राह्मणों का राजनैतिक एवं धर्म-निरपेक्ष कार्यकर्ताओं
न कि धार्मिक मखियाओं के रूप में महत्व था। अधिकतर दुर्ग दाननायक (दर्ग-प्रभारी) ब्राह्मण होते थे। साहित्यिक स्रोत इस बात की पृष्टि करते
हैं कि उस युग में दुर्गों का बहुत महत्व था और उनका नियंत्रण ब्राह्म्मणों.
विशेषत: तेलुगु मूल के, द्वारा किया जाता था।
इस
काल में अधिकतर शिक्षित ब्राह्मण प्रशासक व लेखाकार के रूप में राजकीय कर्मचारी बनना
चाहते थे, जहाँ उनके लिए उज्ज्वल
जीविकोपाजन के साधनों की संभावनाएं थीं। शाही सचिवालय पूर्ण रूप से ब्राह्मणों
द्वारा संचालित.थे। ये ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से भिन्न थे : ये तेलुगु नियोगी
नामक उपजाति से संबंधित थे। वे धार्मिक कृत्यों को लेकर बहुत पुरातनपंथी नहीं थे।
ब्राहमण प्रभावशाली ढंग से राजा के लिए प्रजा की दृष्टि में वैधता स्थापित करने का
कार्य करते थे। विद्वारन्या नाम के ब्राह्मण और उसके परिजन संगमा-बंधुओं के मंत्री
थे : उन्होंने उनको पुनः हिन्दू धर्म में स्वीकार कर उनके शासन को बैधता प्रदान
की।
ब्राह्मणों ने सेनापतियों के रूप में
विजयनगर की सेना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के तौर पर कृष्णदेव राय
के काल में ब्राह्मण सलव टिम्मा को आर्थिक सहायता प्रदान की गई क्योंकि वह
राजनीतिक व्यवस्था का एक अंगीभत अंग था। इन ब्राह्मणों का कार्य साम्राज्य के
विभिन्न भागों में दुर्गों का निर्माण और देख-रेख करना होता था,
जिसके लिए उन्हें कछ शाही गांवों (भंडाराबाडा) का राजस्व प्राप्त
होता था। शाही गांवों और अमरम गांवों (जिनकी आय स्थांनीय सैनिक मुखियाओं के अधीन
थी) में विभेदन किया गया।
3 राजाओं, सम्प्रदायों और मंबिरों के मध्य संबंध
दूरस्थ
तमिल भू-भाग पर प्रभावी नियंत्रण हेतु विजयनगर के शासकों ने तमिल क्षेत्र के बैष्णव
संप्रदायी मृखियाओं का सहयोग लिया। तमिल प्रदेश में अजनबी होने से विजयनगर के शासकों
के लिए अपनी शक्ति को बैघता प्रदान करने हेत् मूलभूत तमिल छार्मिक संगठनों जैसे
मंदिरों के साथ संबंध स्थापित करना आवश्यक हो गया।
राजाओं,
संप्रदायों और मंदिरों के मध्य संबंधों की निम्नलिखित चार बिंदुओं
के आधार पर व्याख्या की जासकती है:
1) राजत्व को बनाए रखने के लिए मंदिर
आधारभूत थे।
2) संप्रदायी मखिया राजाओं और मंदिरों के
मध्य एक कड़ी का कार्य करते थे।
3) यद्यपि मंदिरों की सामान्य देख-रेख
स्थानीय संप्रदायी वर्गों ढ़्रा की जाती थी, मंदिरों संबंधी
विवादों को सुलझाने का कार्य राजा के हाथों में था।
4) ऐसे विवादों में राजा का हस्तक्षेप
वैधानिक न होकर, प्रशासनिक होता था।
1350-1650 के मध्य दक्षिण भारत में कई मंदिरों का निर्माण हुआ। भौतिक संपत्ति (निश्चित गांवों के कृषि उत्पादन का एक हिस्सा) के रूप में मंदिरों को
प्राप्त होने वाले अनुदानों और गें के फलस्वरूप विजयनगर राज्य के अधीन एक विशेष कृषि-अर्थव्यवम्था
ने जन्म लिया। (इसका अध्ययन अर्थव्यवस्था के भाग में किया जाएगा।)
संगमावंश के आरंभिक शासक शैव थे,
जिन्होंने विजयनगर के विरूपकक्षा (म्पापति के मंदिर का पुन:निर्माण
किया। सलूब मुख्यतया वैष्णव थे, जिन्होंने शैव और ही मंदिरों
को संरक्षण दिया। कृष्णदेव राय (लव शासक) ने कृष्णास्वामी मंदिर (वैष्णव मंदिर) का
निर्माण किया और शिव मंदिरों को भी अनुदान दिया। अराविड राजाओं ने भी वैष्णव मंदिरों
को उपहार प्रदान किए।
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