कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के
बाद
धुआओँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों
के बाद
चमक उठीं घर भर की आँखें कई
दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों
के बाद।
उत्तर – सन्दर्भ और प्रसंग
'अकाल और उसके बाद' शीर्षक कविता 'सतरंगे पंखोंवाली (1959) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। इस कविता का प्रसंग
अकाल की घटना से जुड़ा है। अकाल से बेबस ग्रामीण जीवन के सांकेतिक दृश्य इस कविता
में व्यक्त हुए हैं। यहाँ मनुष्य को सामने रखे बगैर अकाल की भयानकता को प्रस्तुत
किया गया है।
व्याख्या
नागार्जुन ने आठ पंक्तियों की इस कविता को दो हिस्से में संरचित
किया है। चार-चार पंक्तियों के इन दो टुकड़ों में व्यवस्थित तरीके से बातें रखी
गयी हैं। पहले टुकड़े में 'अकाल' है और
दूसरे टुकड़े में उसके बाद' का चित्रण है। वैसे तो अकाल के
अनेक आयाम हैं। इस कविता में 'दाने' अर्थात्
अनाज के माध्यम से, अकाल और अकाल के बाद की स्थिति की,
कुछ झाँकियाँ हमारे सामने रखी गयी हैं। इस कविता के प्रतीक और संकेत
महत्त्वपूर्ण हैं।
पहली चारों पंक्तियों की शुरुआत
इस टुकड़े से होती है - 'कई दिनों तक'।
इसी तरह अंतिम चारों पंक्तियों की समाप्ति इस टुकड़े से होती है - 'कई दिनों के बाद'। इस कपिता की प्रत्येक पंक्ति में 27 मात्राएँ हैं और प्रत्येक पंक्ति में ऊपर के दो ढुकड़ों (क्रमशः 8 और 11 मात्राएँ) को आवृत्ति को देखकर कहा जा सकता
है कि कवि के पास कुल मिलाकर बहुत कम जगह बची है अपनी बात कहने के लिए! कविता
सशक्त हो पायी है अपनी प्रतीकात्मकता और संकेतात्मकता के कारण।
पहली चार पंक्तियों में
नागार्जुन बताते हैं कि अकाल का हाल यह है कि कई दिनों तक उस घर में चूल्या जलने
की नौबत नहीं आयी। घर में पकाकर खाने लायक कुछ था ही नहीं। चक्की भी कई दिनों तक
उदास रही क्योंकि घर में पीसने के लिए अनाज था ही नहीं! चूल्हा और चक्की को लक्ष्मी
मानते हैं। उन्हें पवित्र मानते हैं। मगर अकाल ने ऐसी बेबसी दे दी है कि
चूल्हे-चक्की के पास कानी कूृतिया रोज सोती रही, मगर उसे हटाने
का ख्याल किसी के मन में नहीं आया। ऐसा पहले तो नहीं होता था! जब घर में अनाज ही
नहीं था, तब रात में दीया-बत्ती जलाने की नौबत भला कहाँ से
आती! इसके लिए तेल की जरूरत थी। तेल की बारी तो अनाज के बाद आती है! दीया-बत्ती
नहीं जली तो रात में कीडे-फतिंगे भी नहीं आए। छिपकलियाँ दीवारों पर कई दिनों तक
घूमती रहीं कि खाने के लिए कोई कीड़ा-फतिंगा मिल जाए! ऐसी ही स्थिति घर के चूहों
की भी रही। वे बार-बार तलाशते रहे कि कहीं कुछ मिल जाए, मगर
उन्हें हार के सिवा कुछ न मिला।
अगली चार पंक्तियों में घर के
अंदर अनाज आने के बाद के दृश्य हैं। कई दिनों के बाद घर में कुछ अनाज आया। चूल्हा
जल उठा और आँगन से धुआँ उठा। नागार्जुन लिखते हैं कि 'घर-भर
की आँखें चमक उठीं। ये आँखें किनकी हैं? ये आँखें कुतिया,
छिपकलियों और चूहों की तो हैं ही इन आँखों में वे आँखें भी शामिल
हैं जो घर के मनुष्यों की हैं। पूरी कविता में मनुष्यों का जिक्र इन आँखों के
माध्यम से ही आया है। सांकेतिकता की ऐसी क्षमता इस कविता को महत्त्वपूर्ण बनाती
है। और अंत में नागार्जुन लिखते हैं कि कौए ने कई दिनों के बाद, कुछ जूठन खाकर अपनी चोंच को पोंछने के लिए, अपने
पंखों को खुणलाया है!
काव्य सौष्ठव
·
अकाल पर इतनी सटीक कविता हिन्दी में
कम ही लिखी गयी है।
·
अकाल की भयावहता को भाषा की भयावहता
के बिना प्रस्तुत कर देना इस कविता की सफलता है।
·
शोक का सहारा लिए बगैर यह कविता
करुणा का आख्यान रचती है।
·
यह कविता कुछ घरेलू विवरणों के
माध्यम से मनुष्य की त्रासदी को व्यक्त कर रही है।
·
27 मात्राओं की पंक्तियों से इस कविता
का निर्माण हुआ है। 16 और 11 मात्रा पर
यति है। अंत में लघु है। यह सरसी छंद है। चौपाई का एक चरण (16 मात्रा) और दोहा का सम चरण (11 मात्रा) मिलाने से
सरसी छंद बनता है|
विशेष
अकाल मनुष्य के जीवन को खतरे में डाल देता है। मनुष्य के आस-पास
रहनेवाले जीव-जंतु भी इस भयावह समस्या से ग्रस्त होते हैं।
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