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मैथिलीशरण गुप्त की कविता में नारी सम्मान की भावना पर विचार कीजिये।

 राष्ट्रीय नवजागरण के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक प्रश्न समाज में नारी की स्थिति पर पुनर्विधार का भी सामने आया था। समाज सुधार के लिए 19वीं शती में जो आंदोलन चलाए गए कनमें ब्रह्म समाज, आर्य समाज प्रमुख थे। इन आंदोलनों और राजा राममोहन राय, विवेकानंद, दयानंद आदि समाज सुधारकों ने स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति का डटकर विरोध किया। साहित्येतिहास में मध्यकाल के बाद रीतिकाल में तो नारी की स्थिति भोग्या मात्र ही बन कर रह गोई थी, जिसका तीव्र विरोध राष्ट्रीय नवजागरण के दौरान दिखाई पड़ता है।

व्यक्ति स्वतंत्रता की भावना ने नारी स्वतंत्रता की भावना को भी बल दिया। राष्ट्रीय आंदोलन में नारी भी पुरुष के समकक्ष बढद-चढ़कर हिस्सा ले सकती है, इस भावना को बल मिला। नारी के बारे में बदले हुए इस विचार का मैथिलीशरण गुप्त पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। “साकेत'', ''यशोधरा'', ''जैयिनी'' “'हिडिम्बा" जैसे उनके काव्यग्रंथ उनकी नारी भावना को विस्तार से व्याख्यायित करते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त नारी जीवन के प्रति अपार सहानुभूति रखने वाले कवि हैं। लेकिन उनके सभी नारी पात्र समाज के एक विशेष दर्ग (सवर्ण) से आए हैं। उनकी लगभग नारी पात्र ऐसी हैं, जिनके पति किसी कार्य के उद्देश्य से उन्हें छोड़कर चले गए हैं। इसलिए वे सभी “उपेक्षिता" हैं। नारी चित्रण के माध्यम से, इनके दुख-दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के माध्यम से गुप्त जी समाज में नारी की स्थिति बदलना चाहते हैं।

गुप्त जी के स्मरणीय नारी पात्र ' 'साकेत”, “यशोधरा” आदि प्रबंध काव्यों में हैं। 'साकेत' की रचना की प्रेरणा गुप्त जी को कवीन्द्र रवीन्द्र के निबंध ' 'काय्येर उपेक्षिता'' तथा आचार्य द्विवेदी जी के लेख कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता” से मिली थी। प्रारेम में "साकेत” का नामकरण “उर्मिला-उत्ताप” था बाद में बदल कर इसका नाम गुप्त जी ने ' 'साकेत"' किया। “साकेत” पूरा करने में कवि को सोलह वर्ष लगे। रामकथा पर आधारित “साकेत” को गुप्तजी ने यथासंभव राष्ट्रीय आंदोलन के परि्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। “साकेत” का केंद्रबिंदु "उर्मिला'' है जो मूल राम कथाओं में एक उपेक्षित पात्र की तरह ही चित्रित हुई हैं। गुप्त जी को “'उर्मिला" की व्यथा, विरह, वेदना, त्याग और व्यक्तित्द की दृढ़ता ने प्रभावित किया है। “'उर्मिला” के इन अपूते व्यक्तित्व के पक्षों को उन्होंने आधुनिक संदर्मों में उद्घाटित किया है। गांधी युग में जब गुप्त जी रचनारत थे तब समाज में व्यक्ति का महत्व उतना स्थापित नहीं हो पाया था और परिवार समाज की एक प्रमुख इकाई था। इसलिए भी नारी के व्यक्तित्व के जिन पक्षों पर उनका अधिक ध्यान गया वे थे उसका मातृत्व, पत्नीत्व और इसी संदर्भ में उसकी स्वतंत्र सत्ता और महत्ता।

साकेत में “उर्मिला' के चरित्र को गुप्त जी ने स्वाभिमानी, जागृता, शक्तिरूपा, वीरांगना के रूप में चित्रित करने का प्रयत्न किया है जो सैनिकों में मातृभूमि के प्रति मर मिटने का हौसला पैदा करने की प्रेरणा शक्ति देती है। सीताहरण और शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण की मूर्छ के प्रसंग को जब हनुमान सुनाते हैं तब साकेत के सभी निवासी रावण से युद्ध करने के लिए निकल पड़ते हैं और सीता को कारागार से मुक्त करके शत्रुघ्न प्रजा को रादण की लंका लूटने का आदेश देते हैं. तब उर्मिला माथे पर सिंदूर लगा, हाथ में माला लेकर दुर्गा का वेश धारण करके गरज़ती हुई उनके सामने आ खड़ी होती है और तेजस्वी वाणी में घोषणा करती है :

नहीं, नहीं पापी का सोना

यहाँ न लाना, भले सिंधु में वहीं डुबोना

जाते हो तो मान हेतु तुम सब पे

विघ्य-हिमाचल-भाल भला। झुक जावे, धीरो,

चंद्र-सूर्य-कुल-कीर्ति-कला रुक जाय न दीरों

इसी प्रकार सीता के इन उद्गारों में नारी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता प्रकट होती है :

औरों के यहाँ नहीं पलती हूँ

अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ.

श्रमवारि बिंदु फल स्वास्थ्य शक्ति फलती हूँ

अपने अंचल से प्यंजन आप झलती हूँ

तनु-लता-सफलता-स्वाद आज ही आया

मेरी कुटिया में राज भवन मन भाया।

उर्घिला के अतिरिक्त साकेत में सुमित्रा, मंधरा, कैकेयी, सीता, कौशल्या आदि जितने भी नारी चरित्र हैँ के लिए ! तुलझी मैं गुप्त जी ने युगानुकूल नई उद्मावनाएँ की हैं। मतलन शमचरित्मानत्त की ऐौद्षोधी विरोध को भनोवैशाति गिरा मति फेरि” वाक्य का प्रयोग किया हैं जबकि गुण जी ने कैकेयी के किया गत, ये कारणों को एस्िक्य में ठाला है। कैकेदी के साथ उसके पुत्र पर भी संदेह " करती है। मानस की मंथरा का लगा था |

को नृप होहु हमहिं का हानी

चेरि छोंड अब होब कि रानी

जबकि साकेद की मंथरा कहती है :

दण्ड दें कुछ भी आप समर्थ

कहा क्या मैंने अपने अर्थ?

समझ में आया जो कुछ मर्म

उसे कहना था मेरा धर्म

गुप्त जी ने कैकेयी द्वारा पश्चाताप के बोल भी बुलवाकर मानो उसके पापों को धो डाला है:

थूके मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके

जो कोई कह सके, कहे, क्‍यों चूके

बुग-युग तक चलती रही कठोर कहानी

रघुकूल में भी थी एक अभागिन रानी।

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