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पथ को न मलिन करता आना, पद-चिह्न न दें जाता जाना,सुधि मेरे आगम की जग में सुख की सिहरन हो अंत खिली

 

4. पथ को न मलिन करता आना,

   पद-चिह्न न दें जाता जाना,

   सुधि मेरे आगम की जग में

   सुख की सिहरन हो अंत खिली

   विस्तृत नभ का कोई कोना,

   मेरा न कभी अपना होना

   परिचय इतना इतिहास यही

   उमड़ी कल थी मिट आज चली!

उत्तर – सन्दर्भ और प्रसंग

महादेवी वर्मा की यह एक प्रसिद्ध कविता है। यह 'सांध्य-गीत' (1936) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। महादेवी वर्मा ने इस कविता में स्त्री के जीवन की तुलना बदली (बादल) से की है। यह कविता बदली के रूपक में स्त्री-जीवन की परेशानियों और विशिष्टताओं को व्यक्त करती है। इस कविता में केवल दुःख ही नहीं है बल्कि स्त्री-जीवन की कुछ विशिष्टताओं को भी व्यक्त किया गया है।

व्याख्या

महादेवी कहती हैं कि मैं आँसुओं से भरी हुई दुःख की बदली के समान हूँ। यहाँ मैं का अर्थ केवल कवयित्री से नहीं है, बल्कि स्त्री-समाज और उसके जीवन से है। महादेवी बदली के रूपक के माध्यम से बताना चाहती हैं कि स्त्री के जीवन में कितना दुःख है और स्त्री का जीवन किस तरह कुछ विशेषताओं से बना हुआ है। इस कविता में समानांतर रूप से बदली का अर्थ और स्त्री का अर्थ मौजूद है।

      बदली स्पन्दित होती है। उसके स्पंदन में न जाने कितने समय का निस्पंदन मौजूद होता है। बदली जब क्रंदन (गड़गडाहट और बारिश के द्वारा) करती है तो पानी की प्रतीक्षा में दुखी संसार खुशी से हँस पड़ता है। बदली की आँखों में बिजली चमकती है, मानो दीपक जल उठते हैं। उसकी पलकों में निर्ईरिणी मचल उठती है और बारिश होने लगती है। इस रूपक को स्त्री-जीवन के सन्दर्भ में समझें तो कह सकते हैं कि स्त्री की सिहरन तक में न जाने कितनी खामोशियों की अभिव्यक्ति होती है। उसके दुःख का उपहास इस स्तर तक किया गया है कि जब वह रोती है तब शाश्वत रूप से दुखी इस संसार को भी खुशी मिलती है। स्त्री की आँखों में उम्मीद की चमक हमेशा बनी रही और उन्हीं आँखों से वह रोती भी रही।

     बदली का पग-पग संगीत से भरा है। जब वह चलती है तब अपने राग में संगीतमय ध्वनि करती हुई चलती है। बदली के छा जाने पर साँसों की तरह जो हवा चलती है उसके प्रभाव से न जाने कितने सुगन्धित सपनों का जन्म होता है। बदली कहती है कि आकाश अपने नए-नए रंगों से मेरे लिए दुपट्टे का निर्माण करता है। मेरी छाया में चलनेवाली हवा मलय-बयार की तरह सुहानी होती है। रूपक का अर्थ इस तरह खुलता है कि स्त्री को प्रकृति ने अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता बनाया है। उसके चलने तक में प्रकृति ने एक तरह की लयात्मकता दी है। चाहे जितना भी दुःख रहा हो, स्त्री की साँसों में सपने जरूर पलते रहे | रंगों की शोभा उस पर ही खिल पाई और उसकी छाया में न जाने कितने सपनों को पलने का मौका मिला। स्त्री की इस भूमिका को ठीक से समझने के लिए पुरुष से उसके रिश्ते को ध्यान में रखना प्रासंगिक होगा | पुरुषों ने कला के विभिन्‍न माध्यमों में स्त्री का जो व्यक्तित्व गढ़ा है, उनसे भी इन बातों की पुष्टि होती है। कलात्मक रचनाओं में बताया गया कि स्त्री सपनों को जन्म देती है, उसका साहचर्य सुगंध से भरा होता है, उसकी सुंदरता पर पुरुष न्योछावर हो जाता है आदि।

    धुएँ की तरह बदली जब क्षितिज पर छा जाती है, तब मौसम के बिगड़ने की चिंता प्रकट की जाने लगती है। मैं धूलकणों पर जल बनकर बरसती हूँ। मेरे बरस जाने से नए जीवन को अंकुरित होने का अवसर प्राप्त होता है। स्त्री के होने की सम्भावना से ही चिंता प्रकट की जाने लगती है। मगर मनुष्य की सृष्टि को नवजीवन प्रदान करने में उसकी भूमिका सबसे बड़ी है।

    बदली छाती है, आकाश में चलती है और बरस जाती है। मगर वह अपने रास्ते को कभी भी मलिन नहीं करती है। उसके चले जाने के बाद आकाश-मार्ग एकदम साफ-सुथरा नजर आता है। अपने पद-चिह्मों को छोड़ते जाने का अहंकार भी उसमें नहीं है। लेकिन यह सच है कि मेरे आने की स्मृति संसार को सुख की सिहरन से भर देती है। स्त्री संसार में आती है, मगर उसकी भूमिका कहीं दर्ज नहीं की जाती है। पुरुषों के नाम और काम याद रखे जाते हैं। लेकिन स्त्री के आगमन को जब-जब याद किया गया, एक सुखद रोमांच की अनुभूति हुई।

     इस विस्तृत आकाश का कोई कोना बदली के नाम दर्ज नहीं हो सका। उसका परिचय और इतिहास बस इतना ही रहा कि कल वह उमड़ी थी और आज मिट गयी। स्त्री अधिकार-विहीन रही। इस विस्तृत संसार में वह अनेक अधिकारों से वंचित रही। जिन अधिकारों को प्राप्त कर पुरुष अपने को इतिहास में बनाए रख सका, उन अधिकारों से वंचित रहने के कारण स्त्री के हिस्से अमरता नहीं आयी। वह मौजूद तो रही, मगर दर्ज न हो सकी | उसका परिचय इतना ही रहा कि वह किसी पुरुष के नाम से पहचानी गयी। उसके बारे में बस इतना ही सच रहा कि उसका जन्म हुआ था और फिर उसकी मृत्यु हो गयी। उसके जीवन की भूमिका अलिखित रह गयी।

    इस तरह महादेवी वर्मा ने इस कविता में बदली के रूपक से स्त्री-जीवन के दुःख को व्यक्त किया है। समाज के द्वारा जो उपेक्षा मिली है उसका भाव-प्रवण चित्रण इस कविता की विशेषता है। महादेवी इसमें केवल दुःख का बयान करके रुक नहीं जाती हैं, बल्कि वे स्त्री की सकारात्मक भूमिका को भी बताती चलती हैं।

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