क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर-व्याप्न सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?े
क्षमाशील हो सम
तुम हुये विनत ह्ठी
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या, जो दंतहीन,
विषरहित, विनीत,
सरल हो?
उत्तर – सन्दर्भ और प्रसंग
'शक्ति और क्षमा' शीर्षक कविता 'क्रुक्षेत्र (1946) के 'तृतीय सर्ग' से ली गयी है। 'कुरुक्षेत्र एक खंडकाव्य है। 'शक्ति और क्षमा' शीर्षक सम्पादकों के द्वारा दिया
गया है। युद्ध पर विचार करने वाली यह पुस्तक महाभारत से प्रसंग लेकर अपनी बात कहती
है। प्रस्तुत कांवेता में भीष्म और युद्धिष्ठिर के बीच बातचीत है। महाभारत का
युद्ध समाप्त हो चुका है, भीष्म पितामह शर-शय्या पर लेट कर
सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। युद्धिष्ठिर उनका हाल-चाल पूछने
उनके पास प्रतिदिन जाते हैं। पुरानी बातों पर दोनों अपने-अपने विचार रखते हैं। इस
कविता में केवल भीष्म के कथन हैं।
व्याख्या
भीष्म पितामह युद्धिष्ठिर को समझाते हुए कह रहे हैं कि तुम अपने
को युद्ध के लिए दोषी मत मानो! तुमने तो हर तरह से कोशिश की थी कि युद्ध न होने
पाए। इसके लिए तुम दुर्योधन के आगे झुके भी थे। तुम समझौते को भी तैयार थे, मगर कौरव-पक्ष तुम्हारी बातों को सुनना कहाँ चाहता था! तुम्हारी विनम्रता
को उन्होंने दुर्बलता समझा था! इसलिए तुम्हें ग्लानि करने की कोई जरूरत नहीं है।
भीष्म कहते हैं कि हे
युद्धिष्ठिर! क्षमा, दया, तप, त्याग और मनोबल - जैसे सात्विक साधनों का तुमने उपयोग किया! इन सबके सहारे
तुमने दुर्योधन के मन को बदलने का प्रयास किया, किन्तु यह
बताओ कि दुर्योधन तुमसे कहीं भी और कभी भी मेल-जोल को तैयार हुआ? वह तो मनुष्य होते हुए भी बाघ की तरह हिंसक है।
क्षमाशील बनकर शत्रु के सामने
तुम जितने ही विनम्न होते गए उन दुष्ट कौरवों ने तुम्हें उतना ही कायर समझा। वे
तुम्हारी क्षमाशीलता का सम्मान न कर सके! देखो युद्धिष्ठिर, अत्याचार
को लगातार सहते जाने का दुष्परिणाम यही निकलता है कि तुम बलवान होते हुए भी बलहीन
समझ लिए जाते हो! तुम्हारी कोमलता को तुम्हारी कमजोरी मान लिया जाता है।
भीष्म अगली पंक्तियों में साँप
का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि जिस साँप के पास जहर हो वह कहे कि मैंने क्षमा
कर दिया, तो यह बात शोभती है। जिस साँप के पास न तो नुकीले
दाँत हैं, न जहर है, जो विनम्र और सरल
है - वह भला किसी को क्या माफी देगा? इसलिए माफी भी उसी की
महत्त्वपूर्ण होती है, जिसके पास ताकत हो!
भीष्म फिर उदाहरण देते है कि
राम तीन दिनों तक समुद्र से रास्ता माँगते रहे। वे समुद्र से प्रार्थना करते रहे
कि लंका तक जाने का रास्ता मुझे दीजिए। वे निवेदन की सुंदर-सुंदर पंक्तियों के
सहारे अपनी बात कहते रहे, मगर समुद्र पर कोई असर नहीं पड़ा।
उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया। अंततः राम का धैर्य जवाब दे गया और वे क्रोधित हो
गए। मानो उनके पौरुष की आग उनके तीर के माध्यम से प्रकट हुई। विध्वंस की आशंका
प्रकट होते ही समुद्र देह धारण करके राम के चरणों में आ गिरा। उसने अपनी रक्षा की
भीख माँगी। उसने राम के चरणों की वंदना की और उनकी अधीनता स्वीकार करने की घोषणा
की। वह जड़-बुद्धि समुद्र बल के आगे भयभीत हुआ और दास्ता के बंधन में बँध गया।
हे युद्धिष्ठिर! सच तो यही है
कि ताकत होने पर ही विनम्रता शोभा देती है। तीर की ताकत में ही विनय की चमक बसती
है। समझौते का प्रस्ताव तभी माना जाता है जब विजय की शक्ति भी आपके पास हो!
सहनशीलता, क्षमा और दया को यह संसार तभी सम्मान देता है जब
शक्ति की चमक उसके पीछे मौजूद होती है।
काव्य सौष्ठव
·
युद्धोन््माद के माहौल में
शक्तिहीनता काम नहीं आती है।
·
युद्ध-प्रियता प्रतिपक्ष की विनम्रता
का सम्मान नहीं करती है।
·
शांति बनाए रखने के लिए
शक्ति-संतुलन आवश्यक है।
·
यह कविता अवांतर से यह भी सन्देश
देती है कि युद्ध अंततः अच्छे परिणाम नहीं देता है।
·
28 मात्राओं की पंक्तियों से इस कविता
का निर्माण हुआ है। 16 और 12 मात्रा पर
यति है। अंत में दीर्घ है।
विशेष
युद्ध के माहौल में वीरता आवश्यक होती है। ऐसे माहौल में शक्तिहीन
को अपमानित होना पड़ता है। क्षमा की नीति भी तभी कारगर होती है, जब क्षमा करनेवाला शक्तिशाली हो।
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