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चार दिन तक पलक नहीं झंपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जर्मनों को अकेला मारकर न लौट, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब नहो।

चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है ओर बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जर्मनों को अकेला मारकर न लोटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो।

संदर्भ-उपरोकत पंक्तियां चन्द्रधर शर्मा गुलेरी कृत 'उसने कहा था' कहानी से अवतरित हैं। लहना सिंह भारतीय फौज का सिपाही है, जो इंग्लैंड की ओर से जर्मनी के विरुद्ध मोर्च पर डटा है। वह लडाई का इंतजार करते-करते उकता गया है और चाहता है कि लड़ाई जल्दी से शुरू हो।


व्याख्या-चार दिन से एक पलक भी नहीं झपकी है। इसी तरह यहां पडे रहने से क्या लाभ है। जिस प्रकार बिना दोडे घोड़ा बेकार हो जाता है, उसी प्रकार बिना लडे सिपाही भी बेकार हो जाता है। बेकार पडे-पडे सिपाही का उत्साह भी कम होने लगता हे, इसलिए अच्छा यही है कि जर्मनों पर धावा बोलने का आदेश दिया जाये। उसके बाद मेरी वीरता देखिए। यदि में अकेला सात जर्मन सैनिकों को न मार कर आऊंँ, तो मुझे दरबार साहब का दर्शन करने का अवसर न प्राप्त हो।

विशेष-(1) प्रेम, शौर्य तथा त्याग की इस अद्भुत कहानी में लहना सिंह के चरित्र द्वारा भारतीय किसान की जीवटता, साहस, बुद्धिमानी तथा कर्त्तव्य-परायणता को दर्शाया गया हे।

(2) लहना सिंह चूंकि एक किसान हे, इसलिए देशज शब्दों, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग अधिक हुआ हे।

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