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आमिर खुसरो का काव्य सौंदर्य

अमीर खुसरो बह्ुुभाषाविद थे। उनका फारसी, तुर्की और अरबी भाषा पर जबर्दस्त अधिकार था। खड़ी बोली के आदि प्रयोगकर्ता के रूप में उनकी ख्याति है। उन्होंने घोषणा की कि वे ऐसे भारतीय तुर्क हैं जिनकी मातृभाषा हिंदी है। अपने दीवान 'गुर्रतुलकमाल' में उन्होंने कष्टा

 

तुर्क-ए-डिंदुस्तानियम मन डिंदवी गोयम जवाब

चु मन तूती-ए-डिंदम अज रास्त पुरसी।

जे मन डिंदवी पुरस ता नग्ज गोयम ,

शकर मिञस्री न दारम कज़ अरब गोयम सुखन।।

 

अर्थात ममैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ, मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ अगर वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो डिंदवी भाषा में पूछो। मैं तुम्हें डिंदवी में अनुपम बातें बता सकूँगा। मेरे पास मिस्र की शक्कर नहीं कि अबडबी में ब्वात करूँ। यहाँ 'हिंदवी' से तात्पर्य तेरडवी-चौदद्ववीं शताब्दी की उस भाषा या बोली से है. जो उस समय दिल्‍ली और उसके आस-पास के इलाकों के साथ हिंदुस्तान के कुछ अन्य इलाकों में मी बोली जाती थी।

 

अमीर खुसरो की यद्ट हिंददी दरअसल खड़ी बोली है। इसकी जड़ें संस्कृत में थी. पर दिल्‍ली तथा उसके आसपास की अनेक माषाओं सह्ठित अन्य अनेक भाषाओं के शब्द मी सड्ठजता से शामिल हो गए थे। उन माषाओं की पद्चान जिन रूपों में की जा सकती हैं. वे हैं- ब्रजमाषा, राजस्थानी, अवध्ी, हरियाणवी, मुलतानी लाडौरी(पंजाबी), सिंधी. गुजराती, मराठी अपम्रंश आदि। अमीर खुसरो ने अपनी हिंदवी रचनाओं में फारसी. अरढी, तुर्की आदि के शब्दों का भी प्रयोग किया।

 

अमीर खुसरो के दौर में दरबारी भाषा फ़ारसी थी। कर्मकांड की भाषा संस्कृत थी लेकिन बोलचाल की भाषा अलग थी। खुसरो ने इसे डिंदवी कहा। उन्होंने इस हिंदवी पद का दो अर्थों में प्रयोग किया. दिल्‍ली और उसके आसपास के इलाकों में बोली जाने वाली माषा- खड़ी बोली और दूसरी ओर उनके समय हिंदुस्तान में ब्रोली जाने वाली अन्य भाषाएँ।

 

उन्होंने भारत के अनेक हिस्सों का भ्रमण किया था, परिणाम यद्ट हुआ कि वे अनेक भारतीय भाषाओं के संपर्क में आए। उन्होंने पहली बार भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण किया। नूर सिपड्दर उस समय की डिंदुस्तानी भाषाओं का प्रामाणिक दस्तावेज प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त अपने फारसी-हिंदी शब्दकोश खालिकब्ारी में बारह बार हिंदी शब्द का प्रयोग किया।

 

अमीर खुसरो की विभिन्‍न रचनाओं में प्रयुक्त माषा आखिर क्यों महत्वपूर्ण हैं? दरअसल उनकी भाषा लोक के करीब है। नागरी प्रचारिणी समा से प्रकाशित पुस्तक 'अमीर खुसरो' में ब्रजरत्न दास ने ठीक ही दर्ज किया है. “खुसरो को हुए सात सौ वर्ष व्यतीत हों गए कितु उनकी कविता की भाषा इत्तनी सजी सँँवरी और कटी-छटी हुई है कि वह वर्तमान भाषा से बह्ुत दूर नहीं अर्थात उतनी प्राचीन नहीं जान पड़ती। भाटों और चारणों की कविता एक विशेष प्रकार के ढाँचे में ढाली जाती थी। चाह्टे वड्ड खुसरो के पडले की अथवा पीछे की हो तो मी वह वर्तमान भाषा से दूर और खुसरों की भाषा से मिन्‍न और कठिन जान पड़ती है। इसका कारण साहित्य के संप्रदाय की रुढ़ि का अनुकरण ही है। चरणों की भाषा कविता की माषा है. बोलचाल की भाषा नहीं। ब्रजमाषा के अष्टछाप आदि कवियों की माषा भी साहित्य, अलंकार और परंपरा के बंधन से. खुसरो के पीछे की डोने पर भी उससे कठिन और मिन्‍न है। कारण केवल इतना डी है कि खुसरों ने सरल और स्वाभाविक माषा को डी अपनाया है. बोलचाल की भाषा में लिखा है. किसी सांप्रदायिक बंधन में पड़कर नहीं।” खुसरो की भाषा के मिजाज अलग-अलग हैं। वे अमिधा की भाषा में कविता कहते हैं. साथ डी वे लक्षणा और व्यंजना की भाषा की मारक क्षमता का भी ब्ेडतरीन उपयोग करते हैं। उनकी पह्ठेलियों में लक्षणा के बेडतरीन उदाहरण मिल जाते हैं। उसी तरह उनके आध्यात्मिक दोषों,” कव्वालियों में व्यंजना शब्द शक्ति की झलक मिलती है। अमीर खुसरों की भाषा और काव्य सौंदर्य की खूबियों के अनेक रंग हैं, जिन्हें देख कर यड्ट समझ पाना मुश्किल डो जाता है कि यह खड़ी बोली हिंदी के बेहद आदिम रंग का आस्वाद है|

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