200 बी.सी.ई.-300 सी.ई. में नरीकरण
समीक्षाधीन अवधि में कृषि विस्तार से अधिशेष का उत्पादन हुआ जिसने गैर उत्पादकों जैसे कारीगरों और व्यापारियों को व्यापार और वाणिज्य में स्वयं को समर्पित करने में सक्षम बनाया। शहर, व्यापार और वाणिज्य, शिल्प विशेषज्ञता और प्रशासन के केन्द्र थे उत्तर-पश्चिम में तक्षशिला एक प्रसिद्ध शहर था। इस शहर के अवशेषों की खुदाई तीन टीलों अर्थात भीर, सिरकप और सिरसुख से की गई है। सिरकप के टीले से 200 बी.सी.ई. से 200 सी.ई. तक की कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं। शहर ने इन्डो-ग्रीक की अवधि से नगरीकरण के लक्षण दिखाने शुरू कर दिये लेकिन शहर की दीवारों के साथ किलेबन्दी इन्डो-पार्थियन शासकों ने की थी। अच्छी तरह से बनाई गई सड़कें और योजनाबद्ध घर ग्रीक और हेलेनिसटिक प्रभावों को दर्शाते हैं। अहिच्छत्र में 200 बी.सी.ई. सक आते-आते एक नई सड़क बनाई गई थी। उत्तर-पूर्व बिहार में वैशाली के लिच्छवी राज्य में किलेबन्दी की दीवार को 200 बी.सी.ई. से 200 सी.ई. लक कम से कम तीन बार बनाया गया था। उडीशा के शिशुपालगढ़ में नगरीकरण के चिन्ह आ0 बी.सी.ई. के बाद से देखे जा सकते हैं लेकिन यह 200 बी.सी.ई. से तेजी से आगे बढ़ा। 200-100बी.सी.ई. के बीच बनाई गई एक बड़ी दीवार पहले कच्ची इटों की और बाद में पक्की ईटों के साथ बनाई गई थी। शिशुपालगढ़ के प्रारंभिक ऐतिहासिक शहर में एक उल्लेखनीय बड़ा और अलंकृत प्रवेश द्वार था।
इस अवधि के दौरान मधुर उत्तर
मारत में सबसे अग्रणी शहर के रूप में उभरा। यहशहर शक, पहलव और
कुृषाण शासन के दौरान विकास के शिखर पर पहुंच गया। चूंकि इन शासकों का
उत्तर-पश्चिम के साथ घनिष्ट सम्बन्ध था इसलिए मथुरा जो हालाँकि गंगा-यमुना दोआब
में स्थित भा, उत्तर-पश्चिम के ऐतिहासिक विकास के साथ निकटता
से जुड़ गया। सोंख में शहर के अवशेष कुधाण काल के दौरान विकास के उच्चतम चिन्हों
को दिखाते हैं। आवासीय इमारतें कच्ची इटों और पक्की इटों दोनों से बनी हुई थी। शहर
की दीवारों को भी पुर्ननिर्मित और चौड़ा किया गया था। अगूत्तर निकाय (छटी शताब्दी
बी.सी.ई.) में मथुरा का वर्णन अनुकूल नहीं है। यह मथुरा की घूल भरी सड़कों,
खराब परिवहन और खराब आर्थिक स्थिति का वर्णन करता है जहाँ भिक्षुओं
को आसानी से भिक्षा भी नहीं मिलती थी। शहर की इस खेदजनक तस्वीर की तुलना तीसरी
शताद्दी सी.ई. के ब्रौद्ध ग्रन्भ्म ललितरिस्तार के वर्णन के साभ्न उल्लेखनीय रूप
से की जा सकती है। शहर का आकार बढ़ गया था; यह बहुत अधिक
आबाद था; और भिक्षा आसानी से उपलब्ध थी।
पूर्व में सबसे महत्वपूर्ण शहर
चन्द्रकेतूगढ़ था। कोलकता से उत्तर-पूर्व में 22 मील की दूरी
पर स्थित यह स्थल एक ऊँची मिट्टी की दीवार से घिरा हुआ है। स्थल का सीमा विस्तार
दर्शाता है कि शहर बड़ा भा। इसके प्रारंभिक स्तर पर, उत्तरी
काले पॉलिशदार मृदमांड (प्8?०७४) जो एक शहरीकरण से संमबंधित
मृदभांडहै, पाए गए। शहर हालाँकि प्रथम शताब्दी में ही अपने
पूर्ण आयाम और शहरी चरित्र तक पहुँच पाया था। इस चरण में मिट्टी के बर्तन, पकी हुयी मिट्टी की मूर्तियों, ढाले गये तांबे के
सिक्के पाए जाते हैं। मदिरा के गिलास शहर के निवासियों द्वारा बिताए गए अवकाश काल
का सकेंत देते हैं। पकी हुयी मिट्टी की कलाकृतियाँ भी परिष्कृत हैं और शहरी
आभिजात्य यों की अभिरूचियों का एक विचार पेश करती है।
व्यापार
विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में कुछ उत्पाद थे जो उनके लिए
विशिष्ट थे, कुछ अन्य क्षेत्रो में उनकी कुछ कमी थी। इसलिए
ऐतिहासिक काल में बहुत पहले समय से क्षेत्रों के बीच विनिमय मौजूद थे। उदाहरण के
लिए, कूषि क्षेत्रों ने खाद्यान्न और गन्ने का उत्पादन किया
लेकिन वह नमक और मछली के लिए तटीय क्षेत्रों पर निर्मर थे। तटीय क्षेत्रों में
काफी नमक और मछली का उत्पादन होता था लेकिन मुख्य आहार, चायल,
धान की खेती के क्षेत्रों से लाया जाता था। पहाड़ी श्रृंखलाएं लकड़ी,
मसालों आदि से समृद्ध थी लेकिन उन्हें खाद्यान्न और नमक के लिए कृषि
क्षेत्रों और तटीय क्षोत्रों पर निर्भर रहना पड़ता था। इस प्रकार, स्थानीय और अक्सर लंबी दूरी के स्थल और समुद्र पार के व्यापार संजाल
विकसित हुए।
स्थानीय व्यापार के संदर्भ में
वस्तु विनिमय लेन-देन का सबसे आम तरीका था। वस्तु विनिमय की अधिकांश वस्तुर्ऐ
तत्काल उपयोग के लिए थी। नमक, धान, मछली,
दुग्ध उत्पाद, जड़े, हिरन
का माँस, शहद और ताडी सुदूर दक्षिण में वस्तु विनिमय की नियमित
वस्तुएँ थी। बहुत कम ही विलास की वस्तुएँ जैसे कि मोती, हाथी
दाँत भी वस्तु, विनिमय के रूप में दिखाई देते हैं। विमिनय दर
स्थाई नहीं थी। छोटा-मोटा बट अभाव ही वस्तुओं की कीमत तय करने का एक मात्र तरीका
आ। धान और नमक भाव ही वस्तुओं की कीमत तय करने का एक मात्र तरीका था। धान और नमक केवल
दो कस्तुएँ थीं जिनके लिए सुदूर दक्षिण की वस्तु विनिमय प्रणाली में एक निर्धार्ति
विनिमय दर ज्ञात थी। विनिमय लाभ उन्मुख नहीं था।
उपमहाद्वीप के अन्दर स्थल
व्यापार मार्गों के व्यापक संजाल ने व्यापाश्यों के आवागमन को सुविधाजनक बनाया।
पूरे भारत में चार प्रमुख मार्ग और उनके सहायक छोर्ट मार्ग अस्तित्व में थे। एक
मार्ग सातवाहन की राजधानी प्रतिष्ठान या पैठन से शुरू होकर तगार, नासिक, सेतव्या, बाणसभ्य,
उज्जैनी और सौंची से होता हुआ गंगा घाटी तक जाता भा। अन्त में यह
उत्तर में कौशल की राजधानी श्रावस्ती तक पहुँचता था। एक अन्य मार्ग अंग राज्य
(मागलपुर क्षेत्र) की राजधानी चम्पा से पश्चिम और उत्तर पश्चिम मे गंधार राज्य में
पुष्कलावती की तरफ जाता भा। इस मार्ग का उल्लेख शम्रायथण में राम के बनवास के
संदर्भ में मिलता है। एक तीसरा मार्ग पूर्व में पाटलीपुत्र से शुरू होकर सिन्धु
डेल्टा में पटल तक जाता था। पेरिस काबुल के साथ भृगुकच्छ को जोड़ने याले एक स्थल
मार्ग का उल्लेख करता है जो पश्चिमी तट का एक प्रसिद्ध बन्दरगाह है। यह मार्ग
काबुल से पुष्कलावली, तक्षशिला, पंजाब
और गंगा की घाटी से होते हुए मालवा क्षेत्र को पार करके भृगुकच्छ तक जाता था।
बौद्ध स्त्रोत गंगा घाटी से गोदावरी घाटी तक जाने वाले एक मार्ग का उल्लेख करते हैं।
इसे दक्षियापथ के नाम से जाना जाता था। अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य उन वस्तुओं का
उल्लेख करते हैं जिनमें दक्षिणी क्षेत्र व्यापार करते थे और इसमें शंख, हीरे, मोती, बहुमूल्य पत्थर और
सोना शामिल भा। अच्छे किस्म के वस्त्रों का भी उत्तर और दक्षिण के बीच लेन-देन होता
था। उत्तरी काले पॉलिशदार मृद भांड, एक विशिष्ट प्रकार के
शहरी बर्तन भी उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण तक पहुँचे। इन मिट्टी के बर्तनों के
अवशेष पांडेय के क्षेत्र में मिले हैं। जड़ी-बूटियाँ और मसालों जैसी वस्तुएँ
जिसमें जटामांसी और मूलाबाभ्रम (मरहम को तैयार करने के उपयोग
में आने वाली जड़ी-यूटी) शामिल थे, को जहाजों ड्वारा पश्चिम
में भेजा जाता था। दक्षिण भारत के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में आहत सिक्के
बरामद किये गए हैं जो उत्तर और दक्षिण के बीच तेज व्यापार की गवाही देते हैं।
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