भारत शासन अधिनियम 1935, एवं अन्य
अधिनियम
ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश शासन को सत्ता हस्तांतरण के पश्चात, ब्रिटिश संसद भारत के मामलों के व्यवस्थापन में लिप्त हो गयी। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये, 1885 से 1935 तक औपनिवेशिक शासन द्वारा कईं प्रकार के शासन अधिनियम लागू किये। भारत सरकार अधिनियम 1935 इनमें से एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। इस इकाई में आप इस अधिनियम से पहले अन्य अधिनियमों के बारे में अध्ययन करेंगे। इन अन्य अधिनियमों में सबसे पहले 1858 का भारत सरकार अधिनियम था। इस अधिनियम के द्वारा भारत में शासन का केन्द्रिकृत एवं विकेन्द्रीकृत ढ़ोँचा सामने आया। केन्द्रिकृत ढ़ाँचा वहां लागू किया गया जिसका सीधा नियंत्रण ब्रिटिश राज के अधीन था। ये क्षेत्र ब्रिटिश इंडिया प्रांत के रूप में जाने जाते थे। विकेन्द्रिकृत ढ़ाँचा वहां लागू किया गया जहाँ पर ब्रिटिश राज शाही का कोई सीधा नियंत्रण नहीं था। ये क्षेत्र भारतीय राजाओं के शासन के अधीन थे। इन्हें शाही राज्य कहते थे या देशी रियासत के नाम से जाना जाता था। इस प्रकार की व्यवस्था में राजा अपने राज्य के आंतरिक मामलों में पूर्व रूप से स्वतंत्र था, लेकिन ये ब्रिटिश नियंत्रण के अधीन थे। केन्द्रिकृत ढ़ोँचे के अंतर्गत सभी प्रकार की शक्तियां भारत के राज्य सचिव के पास थी जिसका सीधा नियंत्रण ब्रिटिश राज के पास था। वह (सचिव) राज शाही की तरफ से कार्य करता था। उनकी सहायता के लिये 15 सदस्यीय मंत्रिमंडल था। उस समय कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका अलग नहीं थी। ये सब भारत के सचिव के नियंत्रण में थी। ब्रिटिश शासन में सचिव की सहायता के लिये वायसराय था। वायसराय को भी कार्यकारी परिषद सहायता करती थी। जिला स्तर पर वायसराय की सहायता के लिये ब्रिटिश प्रशासक होते थे। प्रांतीय सरकारों के पास वित्तिय स्वायत्ता नहीं होती थी। 1870 में लार्ड मेयो ने प्रांतीय प्रशासन को चलाने के लिये उनकी जरूरतों को पूरा करने को सुनिश्चित किया।
1909 में भारत परिषद अधिनियम के
लागू होने के पश्चात प्रांतीय सरकारों के राजनीतिक संस्थाओं के क्षेत्रों को
विस्तृत किया गया। इस अधिनियम को पहली बार लागू किया गया जिसका उद्देश्य 'प्रतिनिधित्व' प्रणाली ब्रिटिश शासन में लागू करना
था। इसमें गैर सरकारी चुने हुए सदस्य शामिल थे। इस अधिनियम के द्वारा मुस्लिम
समुदाय का भी अलग से प्रतिनिधित्व दिया गया। 1919 के भारत
सरकार अधिनियम ने प्रांतीय सरकारों का कूछ सत्ता सुपुर्द की। जिसमें केन्द्र सरकार
का नियंत्रण उन का प्रमुख था। इसने केन्द्र सरकार के नियंत्रण को कुछ कम किया।
इसके द्वारा प्रशासन के कार्यक्षेत्र और राजस्व के स्रोतों का केन्द्र एवं
प्रांतों में विभाजन किया। इस व्यवस्था के अंतर्गत प्रांतीय सरकारों को राजस्व के
स्रोतों पर नियंत्रण का अधिकार दिया जैसे भूमि, सिंचाई और
न्यायिक मामले। प्रांतीय विषयों को स्थानांतरित एवं आरक्षित श्रेणी में बाँटा गया।
स्थानांतरित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्यपाल को था जबकि आरक्षित विषयों
पर कानून बनाने का अधिकार विधायिका के पास था। राज्यपाल (कार्यकारी प्रमुख)
विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं था।
भारत सरकार अधिनियम 1935,
अन्य भारत सरकार अधिनियमों से भिन्न था। जैसा कि आपने पढ़ा होगा उन
अधिनियमों में ब्रिटिश इंडिया के प्रांत की सरकार एकात्मक या केन्द्रिकृत थी।
अर्थात हर स्तर पर वही सरकार कार्यरत थी। पिछले अधिनियमों के बजाय भारत सरकार
अधिनियम 1935 प्रांतीय स्वायत्ता की बात करता है। इसके
द्वारा अल्पसंख्यकों को संरक्षण प्रदान किया गया। इन संरक्षणों में अल्पसंख्यकों
जैसे मुस्लिम, सिख, पारसी, यूरोपियन एवं ऐंग्लों इंडियन समुदाय को पृथक प्रतिनिधित्व के प्रावधान
दिये गये।
इस अधिनियम के द्वारा संघ एवं
प्रांतों के बीच तीन सूचियों के तहत् सत्ता के बंटबारे का प्रावधान किया गया।
प्रथम संघ सूची, द्वितीय समवर्ती सूची तथा तृतीय प्रांतीय
सूची। इस अधिनियम के माध्यम से संघ एवं प्रांतों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए
संघीय न्यायालय का भी प्राक्धान किया गया। प्रांतीय सरकार का कार्यकारी अध्यक्ष
राज्यपाल था जिन्हें विशेष शक्तियां प्राप्त थी।
विशेष शक्तियों के तहत्
राज्यपाल प्रांतीय विधायिका के निर्णयों पर वीटो का प्रयोग कर सकते थे। वे राज
शाही की तरफ से कार्य करते थे और वे गवर्नर-जनरल के अधीन नहीं थे। गवर्नर-जनरल
वायसराय को कहते थे। उन्हें कुछ व्यक्तिगत मामलों मे भी कुछ विशेषधिकार प्राप्त
था। इन मामलों में उन्हें मंत्रियों की सलाह की जरूरत नहीं थी। राज्यपाल को
गवर्नर-जनरल के नियंत्रण में कार्य करना पड़ता था और गवर्नर-जनरल वास्तव में राज्य
का सचिव होता था। वे विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे लेकिन उन्हें मंत्रियों
की सलाह पर कार्य करना पड़ता था जो कि विधायिका के प्रति उत्तरदायी थे।
भारत सरकार अधिनियम 1935,
में केन्द्र सरकार के गठन का प्रावधान भी था जिसमें राज्य एवं
प्रांतों के प्रतिनिधि आते थे। इस प्रकार की सरकार को संघ सरकार कहते थे क्योंकि इसमें
राज्य एवं प्रांत दोनों के सदस्य होते थे। लेकिन संघ सरकार की स्थापना नहीं हो सकी
क्योंकि राजाओं के बीच संघ में शामिल होने पर सहमति नहीं थी। इस प्रकार इस अधिनियम
के अंतर्गत केवल प्रांतीय सरकारों का गठन किया गया और इस अधिनियम के अंतर्गत
प्रांतीय विधायिका के चुनाव 1937 में हुए। चुनाव के बाद आठ
प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1937 में त्यागपत्र दे दिया। इस तरह एम. गोविन्द राव और निर्विचार सिंह के
अनुसार भारत सरकार अधिनियम 1935 ने संविधान सभा के लिए
संविधान निर्माण की आधारशिला रखी।
नेहरू रिपोर्ट : संविधान के मसौदे का प्रथम भारतीय प्रयास
जैसा कि आपने पढ़ा होगा संविधान निर्माण में ब्रिटिश शासन के
द्वारा विभिन्न अधिनियमों को शामिल करने का प्रयास किया गया। भारतीयों को इसमें
कोई भूमिका नहीं थी। भारतीयों के द्वारा संविधान तैयार करने का प्रथम प्रयास 1928 में नेहरु रिपोर्ट में किया गया। इसके पूर्व 1921-22 में असहयोग आंदोलन के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के
द्वारा स्वराज के रूप में प्रयास किया गया।
नेहरु रिपोर्ट, मोतीलाल नेहरु के नाम पर तैयार की गयी जो मसविदा समिति के अध्यक्ष थे। मसविदा
समिति का निर्णय अखिल भारतीय राजनीतिक दलों के सम्मेलन में लिया गया था। उन
राजनीतिक दलों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, स्वराज पार्टी
और मुस्लिम लीग शामिल थी। मद्रास की जस्टिस पार्टी और पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी
इसमें सम्मिलित नहीं थी। नेहरु रिपोर्ट ने सार्वमौमिक मताधिकार और केन्द्र एवं
प्रांतों में जिम्मेदार सरकार की मांग की। इसने हालांकि प्रभुत्व शासन की मॉग की न
कि भारत को पूर्ण आजादी की। अर्थात् भारतीयों को केवल कुछ मामलों में कानून बनाने
की आजादी थी ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में। इसके लिये नेहरु रिपोर्ट ने केन्द्र
एवं प्रांतों के विषय की एक सूची तैयार की तथा मौलिक अधिकारों की सूची तैयार की।
इसने पुरुष एवं महिलाओं के लिये सार्वभौमिक मताधिकार की माँग की। 1934 में, नेहरु रिपोर्ट के तैयार हो जाने के कुछ वर्षों
के पश्चात् भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आधिकारिक रुप से भारत के लोगों के लिए
एक संविधान की माँग की वो भी बिना किसी बाहरी लोगों के हस्तक्षेप के।
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