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'पथ के साथी संस्मरण में व्यक्त सुभद्रा कुमारी चौहान के व्यक्तित्व का विश्लेषण कीजिए।

महादेवी वर्मा द्वारा लिखित संस्मरणों का संकलन 'पथ के साथी' 1956 में प्रकाशित हुआ था। इस शीर्षक से ही इस संकलन की प्रकृति स्पष्ट हो जाती है। इसमें उनके उन सहयोगियों और सहकर्मियों की चर्चा है जो उनकी रचना-यात्रा में उनके साथ-साथ चले। इनमें मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, नरेन्द्र शर्मा आदि हिंदी के लब् प्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान के बारे में लिखा उनका संस्मरण इस इकाई में पाठ के रूप में सम्मिलित किया गया है। हिंदी समाज उनके नाम से भली भांति परिचित है। देश भक्ति से परिपूर्ण वीरता और ओज से भरे गीतों के लिए वह अत्यंत प्रसिद्ध रही हैं'। 'खूब लड़ी मरदानी, वह तो झांसी वाली रानी थीः आज भी लोगों में देश भक्ति का जोश भर देता है। इसी तरह 'वीरों का कैसा हो बसंत' गीत भी अत्यंत लोकप्रिय रहा है। इन्हीं सुभद्रा कुमारी चौहान पर महादेवी वर्मा ने यह संस्मरण लिखा है।

   सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा दोनों एक ही विद्यालय में पढ़े थे। सुमद्राजी, महादेवी से बड़ी थीं और अपने छात्र जीवन से ही कविता लिखने का उन्हें भी शौक था। यही वजह थी कि लड़कियाँ या तो कविताएं लिखती ही नहीं थीं या लिखती भी तो छुप- छुपाकर | महादेवी जी भी कविताएं लिखती थीं, यह बात सुभद्रा जी को पता चली और फिर इन्हीं कविताओं ने दो कवयित्रियों को एक दूसरे के इतने करीब ला दिया।

   सुभद्राजी का विवाह उसी समय हो गया था, जब वह कक्षा आठ में पढ़ रही थीं। लेकिन ऐसे व्यक्ति के साथ जो स्वतंत्रता सेनानी था और जिसे लगातार कारागर की सजा होती रहती थी। ऐसे व्यक्ति की पत्नी बनने का अर्थ था, जीवन के दाम्पत्य सुखों को तिलांजलि देना और दुखों की शय्या पर ही जीवन काट देना। लेकिन सुभद्राजी ने ऐसा कुछ नहीं किया | अपने पति के साथ वह भी आजादी की लड़ाई में शामिल हो गई और कारागर की यात्रा उनके जीवन की यात्रा भी बन गई। घर-गृहस्थी और बच्चों के लालन-पालन के साथ- साथ देश की आजादी को भी जीवन का हिस्सा बना लेना सरल काम नहीं था। यह किसी पुरुष के बस की बात नहीं हो सकती थी। महादेवी ने उनके जीवन के इस पक्ष को अत्यंत मार्मिक ढंग से उजागर किया है।

   घर और कारागार के बीच में जीवन का जो क्रम विवाह के साथ आरंभ हुआ था वह अंत लक चलता ही रहा। छोटे बच्चों को जेल के भीलर और बड़ों को बाहर रखकर वे अपने मन को कैसे संयत रख पाती थी यह सोचकर विस्मय होता है।'

   सुभद्राजी के व्यक्तित्व पर रोशनी डालते हुए महादेवी जी लिखती हैं कि 'अपने निश्चित लक्ष्य पथ पर अडिग रहना और सब कुछ हँसते-हँसते सहना उनका स्वभावजात गुण था। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उनके चरित्र का यह पक्ष उन्हें और महान बना देता है। लेकिन राजनीतिक जागरुकता ही उनक॑ व्यक्तित्व में नहीं थी, सामाजिक जागरुकता भी उतनी ही अधिक थी। कविता लिखकर जिस विद्रोही स्वभाव का परिचय उन्होंने बचपन में दिया था, वह जीवन पर्यंत रहा। अपने बच्चों पर किसी तरह का अंकुश लगाने की बजाए उन्होंने उन्हें स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने का अवसर दिया। इसी तरह अपनी बेटी का अंतर्जातीय विवाह कर उन्होंने सामाजिक रूढियों को तोड़ने में जो साहस का परिचय दिया वह् इस बात से और भी मुखर रूप में सामने आता है कि उन्होंने यह कहते हुए कन्यादान की प्रथा का विरोध किया कि स्त्री कोई निर्जीव वस्तु नहीं है जिसका कि दान किया जा सके।

   अपने पारिवारिक जीवन में ही नहीं सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भी उन्होंने अपने प्रगतिशील साहसपूर्ण व्यक्तित्व का परिचय बराबर दिया। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद इलाहाबाद में अस्थिविसर्जन के अवसर पर हरिजन महिलाओं के अधिकारों के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया वह इसी बात का प्रमाण है।

   अपने जीवन में सुभद्वाजी ने जो कुछ भी किया, महादेवी वर्मा ने अपने इस संस्मरण में उसके पीछे उनकी सुविचारित दृष्टि बताई है। सुभद्राजी का यह कथन इस बात का द्योतक हैः समाज और परिवार व्यक्ति को बंधन में बांधकर रखते हैं। ये बंधन देशकालानुसार बदलते रहते हैं और उन्हें बदलते रहना चाहिए वरना वे व्यक्तित्व के विकास में सहायता करने के बदले बाधा पहुँचाने लगते हैं। बंधन कितने ही अच्छे उद्देश्य से क्‍यों न नियत किये गये हों, हैं बंधन ही, और जहाँ बंधन है वहाँ असंतोष तथा क्रांति है।”

   सुभद्राजी का उपर्युक्त कथन इस बात का प्रमाण है कि अपने समय और समाज के प्रति उनमें कितनी जागरूकता थी और सुविचारित दृष्टि के साथ सारी बातों को समझने की वेक्षमता रखती थीं। सुभद्राजी के व्यक्तित्व के इन पहलुओं को संस्मरण के माध्यम से महादेवी वर्मा ने जिस तरह से उजागर किया है, वह उनकी लेखकीय क्षमता का श्रेष्ठ प्रमाण है।

   सुभद्रा कुमारी चौहान के असामयिक निधन के बाद सन्‌ 1949 में जबलपुर में उनकी मूर्ति का अनावरण करते हुए महादेवी वर्मा ने कहा था, "नदियों के जय-स्तम्भ नहीं बनाये जाते और दीपक की लौ को सोने से नहीं मढ़ा जाता ....... महादेवी की इस उतक्ति में उनके संस्मरण का प्रतिपाद्य भी दूंढा जा सकता है। नदी और दीपक की लौ से सुभद्रा के व्यक्तित्व की तुलना करके वे जैसे उनकी गतिशीलता और तेजस्विता को ही श्रद्धांजलि दे रही थीं। लेकिन उनके व्यक्तित्व के प्राकृतिक गुणों के संपूर्ण स्वीकार के बावजूद इसमें किसी प्रकार की अतिरंजना का निषेध भी शामिल हैं। 'पथ के साथी' के अन्य संस्मरणों की तरह सुभद्राके व्यक्तित्व के भी वे आधारभूत मानवीय पक्षों पर अपने को केंद्रित करके चलती हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो महादेवी के काव्य की अपेक्षा उनके गद्य को अधिक जीवंत और यथार्थवादी मानते हैं। उनके गद्य की इस जीवंतता का कारण उनका यही यथार्थ और वास्तव के प्रति उनका लगाव है। संस्मरण के केंद्र में रखे गए व्यक्ति को वे भरपूर आदर देती हैं। आत्मीयता और अंतरंगता की झिलमिल ज्योति उस व्यक्तित्व के चारों ओर झिलमिलाती है लेकिन वास्तविकता की जमीन पर खड़ी होकर ही वे उसके गुणों का बखान करती हैं। सुभद्रा के संस्मरण में भी सुभद्रा के जीवन का यथार्थ, आर्थिक अभाव और अपनी गृहस्थी के साम्राज्य के प्रति उनकी छोटी-छोटी आकांक्षाएँ इस संस्मरण को गहरी विश्वसनीयता देता है। उनका सारा ध्यान व्यक्ति की विशिष्टताओं को पकड़ने पर केंद्रित रहता है। इस प्रक्रिया में उस केंद्रीय व्यक्तित्व की चिंता ही उनकी मुख्य रचनात्मक चिंता होती है। वे उसी का संस्मरण लिखती हैं, उसके बहाने अपना नहीं। युगीन परिवेश के विस्तार में जाकर वे केंद्रीय व्यक्तित्व की चारित्रिक रेखाओं को धूमिल नहीं करतीं | क्षुद्रताओं की अपेक्षा वे व्यक्तित्व की विराटता से साक्षात्कार को ही अपने संस्मरण का प्रस्थान बिंदु मानकर अपनी रचना-यात्रा शुरू करती हैं। संस्कृत साहित्य, भारतीय संस्कृति और दार्शनिक परंपराओं का विशाल भंडार उनके सामने होने से वे उस व्यक्तित्व का आकलन इसी सुविस्तृत फलक पर करती हैं। उनकी रचना की प्रामाणिकता का मूल स्रोत भी वस्तुतः यही है। इन सांस्कृतिकपरंपराओं के प्रति अपने गहरे लगाव के कारण ही वे शायद मानती हैं कि मृतात्माओं के उज्ज्वल पक्ष का ही स्मरण किया जाना चाहिए। उन्हें स्मृति में धारण करके ही उन्हें मरण और विस्मरण से बचाया जा सकता है।

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