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'निराला की साहित्य साधाना' की भाषा-शैली का विवेचन कीजिए।

किसी भी रचना के निर्माण में भाषा एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण घटक है। लेखक के प्रतिपाद्य का संप्रेषण भाषा के माध्यम से ही होता है और भाषा ही रचना के प्रभाव को बढ़ाती या घटाती है। बड़े आकार और फलक वाली रचना में, जैसी निराला की यह जीवनी अपने मूल रूप में है, भाषा का एक महत्वपूर्ण कार्य उसकी पठनीयता को बनाए रखना भी है। रामविलास शर्मा सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा में बैसवाड़ी की छौंक, मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ जीवनी में घटित प्रसंगों का वर्णन करते है। निराला के जन्म का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं - 'उस दिन मंगल था, महावीर स्वामी ने अपनी पूजा के ही दिन राम सहाय को पुत्र का मुंह दिखाया। दरवाजे पर बाजे बजे, नाई, धोबी, डोम वगैरह नेग मांगने आये। महिषादल में अवध के और परिवार भी रहते थे, कई घर वैसवाड़े के ही लोगों के थे। इन सबसे स्त्रियाँ आईं, सोहर होने लगे। थोड़ी देर को राम सहाय को लगा कि वह गढ़ाकोला में ही उत्सव मना रहे हैं। खैर अभी न सही, जैसे ही, मौका मिला, वह पुरखों की देहरी छुलाने बच्चे को गाँव जरूर ले जायेंगे...

   राम सहाय तिवारी अपने घर से सैकड़ों मील दूर परदेस में पड़े थे। शादी-विवाह के लिए वे अपने घर गढ़ाकोला आते थे। अपने पुरखों की धरती के प्रति उनका आत्मीय लगाव, उत्सव-पर्वों में वहाँ के लोकाचार और रीति-रिवाजों के प्रति आग्रह और अपने बैसवाड़ी समाज से जुड़ने की उनकी ललक आदि को यह भाषा गहरी पारदर्शिता के साथ उद्घाटित करने में सक्षम है। इसी के तत्काल बाद, जब अपने रंग-रूप के कारण बच्चा - पंडित ने जिसका नामकरण सुर्जकमार किया था - पड़ोस की स्त्रियों का खिलौना हो जाता है तो वे बैसवाड़ी शब्दो में ही अपने उद्गार प्रकट करती हैं - महतारी, बेटवा आदि शब्द इसके उदाहरण हैं।

   रामविलास शर्मा अपनी भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग करते हैं क्योंकि वे इसे अच्छी तरह जानते हैं कि भाषा जनता की थाती है और इसी जनता द्वारा बोले गए शब्द और मुहावरे शरीर में स्वस्थ शुद्ध रक्त की तरह भाषा को निखारते हैं। इस जीवनी में प्रयुक्त कुछ मुहावरों को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। हाथ छोड़ बैठना, पानी बंद करना, कंठफूट आना, मसें भीगना, बगलें निकलना और दो दांत की लड़की आदि इसी प्रकार के कुछ उदाहरण हैं जो पाठ्यक्रम में निर्धारित अंश से ही बहुत सहज रूप में जुटाए गए हैं। इन मुहावरों का अर्थ समझकर भाषा की व्यंजना-शक्ति की सामर्थ्य को आसानी से समझा जा सकता है:

हाथ छोड़ बैठना : क्रोधावेश में मार बैठना

पानी बंद करना : समाज और बिरादरी से बाहर कर देन

कंठ फूट आना : मसें भीगना और बगलें निकलना

ये सारे प्रयोग यौवनागम के संकेत हैं| कंठ में गट्टा निकलना और आवाज में भारीपन का आ जाना, मूंछों के स्थान पर बालों की रेख दीखने लगना और बगलों में बाल निकलना आदि सारे चिह्न बालक से युवा हो जाने के चिह्न हैं। लेखक इन्हें निराला के प्रसंग में प्रयुक्त करके उनके गौने की भूमिका बनाता है अर्थात्‌ अब उम्र के हिसाब से वे इस लायक हैं कि उनका गौना किया जा सके।

   दो दांत की लड़की : कम उम्र की लड़की, दुनियादारी से अनजान और भोली-भाली। रामविलास शर्मा प्रसंगानुसार जीवन के विविध और विभिनन क्षेत्रों के शब्दों से अपनी भाषा को सहज, सरल और स्वाभाविक बनाते हैं। गाँव-जवार, कोर्ट-कचहरी, लगान-वसूली, साहित्य-संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णन में उनकी भाषा के बदलते हुए तेवर और छवियों को देखा जा सकता है।

   निराला की जीवनी का जो अंश हमारे सामने है उसमें अवध और बंगाल की परिवेशगत विशिष्टताओं और प्राकृतिक छटाओं में उपलब्ध भौगोलिक अंतर के ब्यौरे बहुत प्रामाणिक एवं विश्वसनीय रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक का मुख्य काम अपने चरित नायक के चारित्रिक और सांस्कृतिक विकास पर केंद्रित होने पर भी उसके संपर्क के अन्य प्रमुख व्यक्तियों के चरित्र पर भी लेखक बहुत सजग दृष्टि रखता दिखाई देता है। राम सहाय तिवारी का क्रोधी और वत्सल स्वभाव, स्वाभिमान और स्वामिभक्ति का दूंद्व, पुत्री के भविष्य के प्रति मनोहरा देवी की माँ की सहज चिंता द्वारा लेखक अपने इन अपेक्षाकृत गौण पात्रों को भी बहुत विश्वसनीय रूप में प्रस्तुत कर पाने में सफल हुआ है। छोटे-छोटे प्रसंगों द्वारा लेखक ने मनोहरादेवी का चरित्र गहरी संवेदनशीलता से अंकित किया है। निराला के युवा मन पर उनके गहरे प्रभाव की दृष्टि से यह जरूरी था। पहली बार ससुराल जाने पर पिता की सलाह पर निराला अपनी शान और ऐंठ का झूठा प्रदर्शन करते हैं| रूही की मालिश इसी का एक हिस्सा है। पिता-पुत्र दोनों के मन में यही भाव है कि इससे ससुराल वालों पर रोब तो पड़ेगा ही, खर्च भी खूब होगा और वे लोग अपनी हार मान लेंगे। लेकिन हुआ इसका उल्टा ही। निराला की सासू जी इस पर ताना मारती हैं - “अपने बेटे की मालिश रूह से करायें और उनकी बेटी के लिए चढ़ावा इतना मामूली”! रात को पत्नी मनोहरादेवी निराला को समझाती हैं - 'इत्र-फुलेल लगाना किसान परिवार में शोभा नहीं देता। और जब बात बढ़ने लगती है, निराला उन्हें मछुआइन का किस्सा सुनाने लगते हैं तो वह बिगड़ जाती है। वह कमरे से उठकर चल देती है। इस आरंभिक भेंट में ही निराला को लगता है कि पत्नी जैसे उनकी पकड़ के बाहर है। उसका तेजस्वी और घर-गृहस्थी के काम में कुशल रूप उन्हें गहरे में कहीं प्रभावित भी करता है। उनके कंठ से तुलसी का भजन सुनकर तो उन्हें लगता है जैसे गले में मृदंग ही बज रहा है। वस्तुत: पत्नी को इस रूप में देखकर ही निराला के, सोते संस्कार जैसे जाग उठते हैं। साहित्य और संगीत के प्रति उनका आकर्षण जैसे स्वयं उन्हें ही एक नए रूप में दिखाई देने लगता है। मनोहरादेवी के इस रूप को देखकर ही अपने सौंदर्य का उनका अभिमान चूर-चूर हो जाता है। उनके मन में यह भाव बहुत उत्कटता से जागता है कि वे ऐसा कुछ करें जिससे यह जीवन सार्थक हो जाए। पत्नीकी तुलना में अपना निकम्मापन उनके आगे स्पष्ट होने लगता है। घर-परिवार की ही नहीं, पड़ोसियों की भी सेवा और सहायता का उनका स्वभाव निराला को गहराई से प्रभावित करता है। पत्नी का चरित्र ही जैसे पति का प्रेरणा-स्रोत बन जाता है।

   उपन्यास की तरह जीवनी भी अपने चरित नायक समेत अनेक व्यक्तियों का एक जीवित संसार अपने में समाये रहती है। पात्रों के बीच होने वाले संवाद उसी रूप में घटित होने का कोई प्रमाण नहीं होता है। उनकी सहजता और विश्वसनीयता ही उनकी सफलता की कसौटी होती है। उपन्यास की तरह जीवनी में भी ये संवाद कथा के विकास में सहायक होते हैं और पात्रों के चरित्र की विशेषताओं को उद्घाटित करते हैं। इस जीवनी में भी ऐसे प्रसंग हैं जिनमें संवादों की यह सहजता और विश्वसनीयता देखी जा सकती है। इन संवादों में भी निराला और मनोहरादेवी के बीच के संवाद कदाचित जीवनी के सफलतम संवाद हैं। जैसा कि बताया जाता रहा है इन संवादों के माध्यम से ही मनोहरा देवी का तेजस्वी और स्वाभिमानी रूप बहुत सहज रूप में सामने आता है और अपनी सहजता में ही वह रूप निराला को अभिभूत करता है। सादगी और सहजता का प्रभाव ही सबसे गहरा होता है और वही निराला के जीवन की दशा बदलता है।

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