भक्ति आंदोलन का उदय-हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन के उदय पर सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने विचार किया। उन्होंने इसके कारणों को तलाशते हुए उन्होंने दो स्थापनाएं दी हैं। एक, भक्ति आंदोलन अचानक पैदा होने वाला आंदोलन है। दूसरा, भक्ति आंदोलन को उन्होंने ईसाई-प्रभाव से जोड़ा। उनका मानना था कि रामानुजाचार्य को नेस्टोरियन ईसाई भक्तों से भावावेश और प्रेमोल्लास का संदेश मिला।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति
आंदोलन के उदय को भारत में मुस्लिम राज्य-व्यवस्था की स्थापना से जोड़ा। उनके
अनुसार, जब मुस्लिम साम्राज्य अच्छी तरह स्थापित हो गया,
तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी समाप्त हो गए। ऐसे राजनीतिक
उलटफेर से हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छायो रही। अपने पौरुष से
हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा
मार्ग नहीं था।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इन
मान्यताओं को नहीं स्वीकारते। भक्ति आंदोलन के अचानक उभरने तथा ईसाई मत से
प्रभावित होने संबंधी ग्रियर्सन की मान्यताओं को खंडित करते हुए उन्होंने विचार
व्यक्त किया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी शुक्ल जी की मान्यता से भी सहमत नहीं
थे। भक्ति के उत्थान के संदर्भ में द्विवेदी जी का समर्थन यह तथ्य भी करता है कि
समूचे भक्तिकाव्य में मुसलमानों के विरुद्ध कोई सांप्रदायिक अभिव्यक्ति नहीं है।
द्विवेदी जी ने भक्तिकाव्य को “भारतीय चिंता का स्वाभाविक
विकास” कहा है। पूर्व में यही चिंता नाथ-सिद्ध व्यक्ति कर चुके थे। रामानुज,
नामदेव, रामानंद, वल्लभाचार्य
आदि ने इसी परंपरा का आगे विकास किया। आचार्य द्विवेदी ने भक्ति आंदोलन के दक्षिण
भारत से उत्तर की ओर आने का संकेत किया है। इस तथ्य को शुक्ल जी भी मानते हैं कि
भक्ति आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई, उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति
के अनुरूप हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ
लोगों में जगाई। शुक्ल जी ने संत मत के उत्थान में सिद्धों और योगियों की भूमिका
को भी रेखांकित किया है। इस प्रकार, भक्ति आंदोलन के उत्थान
के संदर्भ में द्विवेदी जी का शुक्ल जी से मूल मतभेद मुस्लिम आक्रमण और
राज-स्थापना को भक्ति आंदोलन के मुख्य कारण के रूप में देखने को लेकर है। द्विवेदी
जी की मान्यता ज्यादा तर्कपूर्ण है।
इतिहासकार सतीशचंद्र ने भक्ति
आंदोलन के उभार में मुस्लिम प्रभाव को एक नए दृष्टिकोण से देखा। उनके अनुसार,
“उत्तर भारत में राजपूत-ब्राह्मण समझौता विगत पांच सदियों तक
प्रभावशाली रहा और यही समझौता कर्मकांड समर्थित वर्णाश्रम धर्म पर आधारित सामाजिक-सांस्कृतिक
व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था।'” उनका मानना था
कि 'तुक्कों द्वारा राज्यों के विजय और इस्लाम के आगमन'
ने ऐसी प्रभावशाली शक्तियों को बढ़ावा दिया, जिसने
परवर्ती सदियों में लोकप्रिय आंदोलन के रूप में भक्ति के विकास का मार्ग प्रशस्त
किया। डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्ति आंदोलन के उत्थान में व्यापार के विकास और इसके
कारण सामंती सामाजिक संरचना के टूटने को प्रमुख कारण माना है। उनके अनुसार,
“'गुप्तकाल व्यापारिक समृद्धि का काल है, कबीर
और सूर का युग भी ऐसी समृद्धि का काल है। तमिलनाडु में जब आलवार संतों ने
भक्तिकाव्य रचा, तब वहां भी व्यापारिक संबंधों कौ शिधिलता से
भक्ति साहित्य का सीधा संबंध है।'' रामविलास शर्मा का मानना
है, ''सामंती व्यवस्था में धरती पर सामंतों का अधिकार था,
तो धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का।'!
इस प्रकार, भक्ति आंदोलन का उत्थान किसी एक कारण के फलस्वरूप न होकर तत्कालीन समय की
विविध परिस्थितियों की समन्वित भूमिका से इसका विकास एवं प्रसार हुआ।
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