कविवर पन्त जी की काव्य-चेतना निरन्तर परिवर्तन और प्रगति के पथ पर अग्रसर रही है। हिंदी कविता के बहुत से काव्य आन्दोलन उनकी आँखों के सामने उठे और इतिहास बन गए। किन्तु पन्त जी छायावाद, प्रगतियाद और फिर आध्यात्मिक चेततनावाद की ओर एकनिष्ठ होकर चलते रहे। पन्त जी की लम्बी काव्य यात्रा के विकास को हम अध्ययन की सुविधा के लिए तीन सोपानों में विभक्त कर सकते हैं। (क) छायावादी काव्य: इसे उनके सृजन युग का सौन्दर्य भी कह सकते हैं। (ख) प्रगतिवादी काव्य: इसे हम लोकमंगल वादी या शिव युग भी कह सकते हैं। (ग) आध्यात्मिक नव चेतना का अरविन्द वादी काल: इसे सत्य से साक्षात्कार का चिन्तन युग या सत्य युग भी मान सकते हैं। साहित्य में पन्त जी के काव्य चेतना के विकास के इन युगों की प्रसिद्धि “सौन्दर्य”, “शिव”, “सत्य” के नाम से रही ही है।
(क)
छायावादी काव्य (1916 ई. से 1935 ई. तक) पन्त जी के
सृजन का सर्वोत्तम रूप उनके छायावादी काव्य में ही दृष्टिगत होता है। इस काल में
ही वे “वीणा” लेकर आए और "ग्रांथिञ, “पल्लव”, “गुंजन” तथा “ज्योत्सना”
जैसे
छायावादी काव्य मुहावरे की, भाव संकल्पना की। प्रकृति-सौन्दर्य-चेतना और शिल्पकला
की चमत्कारी रचनात्मकता वे इसी समय दे गए। “वीणा” कवि की काव्य भावना का कोमल शिशु
संसार है जिसमें प्रगीतात्मक गीत विहग कल्पना के रंगीन पंख फैलाकर उड़ते हैं। इन
प्रगीतों की मूल प्रेरणा प्रकृति-सौन्दर्य है। पर कभी-कभार विवेकानंद और तिलक पर
भी नवजागरणवादी रचनाएँ लिखी हैं। “ग्रंथि” असफल प्रेम की मार्मिक जीवनानुभव से भरी
रचना है। “शिकला सी एक बाला” कल्पना के आकाश को घेर लेती है। फलतः यह कोमल
मधुर-सौन्दर्य की रचना है।
“पल्लव” की भूमिका का चिन्तन
और प्रगीत-कला छायावादी सर्जनात्मकता का चरम उत्कर्ष है। हिंदी के सभी आलोचक
“पललव” (1926) को ही पन्त जी की प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ
प्रस्फुटन मानते हैं। इस संग्रह की भूमिका का वही महत्व हिंदी में है जो
वर्डस्वर्थ की “लिरिकल वैलेड्स” की भूमिका का पश्चिमी स्वच्छन्दतावादी
काव्यशास्त्र में रहा है। “पल्लव” के बाद “गुजंन” और
“ज्योत्सना” जैसे काव्य-संग्रह आये पर काव्यात्मकता का वह प्रगीत संसार फिर नसीब
नहीं हो सकता ।
ख)
प्रगत्तिवादी काव्य: छायावाद के बाद पन््त जी पर मार्क्स की विचारधारा का प्रभाव पड़ा।
वे छायावाद की भाव भूमि से हटकर मार्क्सवादी भाव भूमि की कविताएँ लिखने लगे।
किन्तु पन्त जी के काव्य की यह भाव दिशा सहज नहीं थी। पन्त जी “ज्योत्सना” में ही
मार्क्सवाद से प्रभावित हुए। किन्तु इस प्रभाव का खुलासा “युगांत" में दिखाई
दिया। "युगांत” “गुण-वाणी” तथा "ग्राम्या” में इनके काव्य स्वभाव का बदलाव
स्पष्टतः देखा जा सकता है। वे भाववादी-आदर्शवादी भूमि को छोड़कर यथार्थवाद की कठोर
वास्तविकता-वादी भूमि पर आते हैं। उनका मूलस्वर उस प्रगतिवादी काल में “नष्ट-अ्रष्ट”
हो रहे “जीर्ण पुरातन” का विद्रोही-स्वर है। “गा कोकिल बरसा
पावक कण” इसी नवीन यथार्थवाद का मुखर रूप है। पंत जी ने लिखा है “ज्योत्सना तक मैं
सौन्दर्य-बोध की भावना से ही जगत का परिचय प्राप्त करता रहा। उसके बाद मैं बुद्धि
से भी संसार को समझाने की चेष्टा करने लगा हूँ। यह कहा जा सकता है कि यहाँ मेरी
काव्य साधना का दूसरा युग आरम्भ होता है।" कहना न होगा कि यह दूसरा युग
कल्पनावाद से निकलकर यथार्थवाद की भाव भूमि को अपनाता है।
ग)
प्रगतिवादी काव्य में पंत जी ने प्रथम बार प्रकृति के सौन्दर्य लोक से निकल कर हाड़- मांस
के आदमी को पहचानने की कोशिश की है। इस क्षेत्र में कोशिश पूरी भी न हो पाई थी कि
वे अरविन्द-दर्शन के अध्यात्मवाद की ओर चले गए। पंत के काव्य विकास का यह्ट तीसरा
सोपान मूलत: उनके आत्म विकास और आत्म मंथन का काल है। उन्हें लगा अरविंद दर्शन ही
मानवों की समस्याओं का हल है। उन्हें मनुष्य का आध्यात्मिक विकास भी जरूरी लगने
लगा। 'स्वर्ण-धूलि”, “अंतिमा”, “रजत शिखर”
और “लोकायतन” इसी अध्यात्मवादी भावलोक की रचनाएँ हैं। इसके बाद पन्त जी के बहुत
से संग्रह आए पर उनसे कविता जैसे छूटती गई। वे चिन्तन की झोंक के कलाकार बनते गए।
“भू जीवन हो भगवत् दर्पण” का जीवन-दर्शन उनकी कविता को निगल गया। अतिमानस को
अरविंदवादी प्रवाह से वे फिर छूट न सके।
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