आधुनिक राज्य का महत्त्वपूर्ण घटक नौकरशाहीकरण है। यह शासन करने की प्रणाली है, जो पदानुक्रम, विशेषज्ञता आदि पहलुओं पर आधारित होती है। दूसरे शब्दों में, आधुनिक विश्व में प्रशासन का संचालन करने में नौकरशाही व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह शासन व्यवस्था सभी आधुनिक राज्यों और गैर-राजकीय संरचनाओं में समाई हुई है। प्रशासनिक सेवाओं और सेना में इसे प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। राजनीतिक पार्टी, यूनियनों सहित धार्मिक तथा शैक्षिक एवं अन्य सेवाओं का भी यह एक अनिवार्य अंग बन गई है।
नौकरशाही के सदस्य पेशेवर एवं उच्च शिक्षा प्राप्त लोग होते नौकरशाही का अर्थ है निर्णय लेने की प्रक्रिया का केन्द्रीकरण। उल्लेखनीय है कि नौकरशाही हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो चुकी है। जैसे-जैसे-राज्य के विभिन्न संस्थानों का केन्द्रीकरण होता जा रहा है, वैसे-वैसे-नौकरशाही सुदृढ़ होती जा रही है। अब नौकरशाही व्यवस्था इतनी विस्तारित हो चुकी है कि यह सरकारों के अलावा राज्य के विभिन्न क्षेत्रों/संगठनों, यहाँ तक कि गैर-सरकारी संगठनों तक में व्याप्त हो चुकी है। नौकरशाह कानून के अनुसार वैध आदेशों को मानते हैं। नौकरशाही व्यवस्था इस तरह होती है, जिसमें अगर किसी सदस्य को हटा दिया जाए, तो पूरी व्यवस्था सुचारु ढंग से संचालित होती रहती है। बावजूद इसके आधुनिक शासन है व्यवस्था में नौकरशाही शासकों के लिए औजार मात्र है। नौकरशाही शासन को संचालित करने की प्रणाली है, न कि स्वयं शासक ध्यातव्य है कि शासक या शासन के उच्चतर पदों पर बैठे लोग नौकरशाही की प्रक्रिया की बदौलत वहाँ नहीं पहुँचते। हाँ, यह अवश्य है कि वह प्रशासन को नौकरशाही नामक औजार के माध्यम से संचालित करते हैं।
राज्य का जागरूक नागरिक नौकरशाही के मजबूत तंत्र के जरिए ही लोकतंत्र को मजबूत कर सकता है। लोकतंत्र में जितने भी बड़े और व्यापक संगठन हैं, सभी नौकरशाही व्यवस्था के अंतर्गत ही काम करते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है राजनीतिक पार्टियां। उल्लेखनीय है कि छोटे संगठन भी नौकरशाही व्यवस्था के माध्यम से कार्य करते हैं।
ट्रेड यूनियनों में नौकरशाही :-
20वीं शताब्दी में सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों का चरित्र पेशेवर हो गया है और उनके संचालन की जिम्मेदारी नौकरशाही व्यवस्था के हाथों में आ गई। नौकरशाही के होने की बात सेनाओं, प्रशासनिक सेवाओं तथा राज्य के मुख्य अंगों में की जाती थी। लेकिन आधुनिक औद्योगिक समाज की जटिलताओं ने ट्रेड यूनियनों में नौकरशाही की व्यवस्था को जन्म दिया। उल्लेखनीय है कि आधुनिक युग में ट्रेड यूनियन एक लोकतांत्रिक संस्था है। अर्थात् यह आर्थिक और राजनीतिक शोषितों के कल्याण की बात करती है। यह लोकतांत्रिक पद्धति के आधार पर अपना कार्य करती है।
उल्लेखनीय है कि 19वीं सदी में कारखानों और कार्यस्थलों पर मजदूरों की न्यायोचित मांगों के सम्बन्ध में इनका जन्म हो जाता था, लेकिन तब मालिकों से इनका समझौता या वार्ता निहायत ही व्यक्तिगत किस्म का होता था। लेकिन 1870 के पश्चात् औद्योगीकरण की तीव्र लहर ने दृश्यपटल पर नाटकीय परिवर्तन पैदा किया। कारखानों के भीमकाय आकार और आधुनिक तकनीक के उपयोग ने प्रबंधन को पेशेवर रूप दिया। ट्रेड यूनियन अधिकारों का भी उदय हुआ। अब प्रबंधकों की तरह ही यूनियन अधिकारियों के लिए दक्षता, प्रशिक्षण सम्बन्धी योग्यता की जरूरत पड़ी।
अब नए यूनियन अधिकारी केवल मजदूर हितार्थ की मांग करने वाले मजदूर नहीं रह गए, बल्कि कार्यवाही की योजना बनाने, कमेटी के कार्यकलापों को संचालित करने वाले तथा समझौता वाता को कुशल से चलाने वाले हो गए। अब यूनिक अधिकारियों को किसी एक उद्योग की स्थिति के आधार पर नहीं, अपितु सम्पूर्ण आर्थिक तंत्र की आवश्यकता के मद्देनजर योजना बनानी पड़ती थी।
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इन यूनियनों के समक्ष यह स्थिति इसलिए पैदा हुई कि अब राजनीतिक पार्टियां भी चुनावों में जन-समर्थन के लिए इन पर आश्रित हो गई थी। उल्लेखनीय है कि राजनीतिक पार्टियों की तरफदारी करने के कारण इन्हें सम्बन्धित राजनीतिक पार्टियों की आशा के अनुरूप अपनी योजनाएँ बनाने और कार्यान्वित करने की जरूरत पड़ने लगी। अब पार्टी के नौकरशाही के अनुरूप इन्हें कार्य करने की जरूरत आ पड़ी। राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के लिए यूनियनों ने अपने राष्ट्रव्यापी संगठन बनाए। इन विशालकाय संगठनों के संचालन के लिए अब पेशेवर अधिकारियों की आवश्यकता पड़ी। यूनियनों के ये राष्ट्रीय संघ अब मालिकों के राष्ट्रीय संघ से वार्ता/समझौता करने लगे। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ब्रिटिश पूँजीपतियों का संघ ‘कंफेडेरेशन ऑफ ब्रिटिश इंडस्ट्री’।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् जर्मनी और इंग्लैंड में राजतंत्र के संचालन में यूनियनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन यूनियनों ने निजी क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण, उच्च स्तर पर रोजगार सृजन, मजदूरों के हितार्थ कल्याणकारी योजनाओं के निर्माण, नियोजित निवेश तथा रोजगार के अवसरों की गारंटी आदि योजनाओं पर बल दिया। यूनियनों की यह सारी योजनाएँ राज्यतंत्र की नौकरशाही व्यवस्था के समान तैयार की गई थीं। इस तरह यूनियनों का पेशेवर चरित्र और भी सुदृढ़ होता गया।
लेकिन यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश यूनियन की संरचना विकेंद्रित है और ट्रेड यूनियन कांग्रेस का वर्चस्व राष्ट्रीय संघों और बड़ी औद्योगिक यूनियनों पर नगण्य था। ज्यादातर समझौते एक उद्योग की यूनियन और मालिकों के संघ के बीच होते हैं। एक ही उद्योग में कई-कई यूनियनों का जन्म हो जाता है। इस स्थिति को ब्रिटिश औद्योगिक सम्बन्धों के लिए उचित भी माना जाता है। 1949 में म्यूनिख कांग्रेस में जर्मन यूनियनों ने कंपनी के संचालकमंडल में भागीदारी, कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने, उद्योगों के सामाजीकरण करने तथा योजना निर्माण आदि की मांगें रखीं। इनमें से कुछ हासिल भी हुआ।
1952 के ‘वर्क्स कंस्टीट्यूशन एक्ट’ ने कंपनी के संचालन में यूनियन को एक-तिहाई संचालकों को नामित करने का अधिकार दिया। जर्मनी की यूनियनों की गतिविधियों की विशेषता है कि वहाँ कानूनी औपचारिकताओं पर ध्यान दिया जाता था। अर्थात् यूनियनों को कोई भी गतिविधि कानून के दायरे में रहकर करनी पड़ती थी। उल्लेखनीय है कि सामूहिक सौदेबाजी केवल यूनियन ही कर सकती थी, वह भी समझौते की अवधि के दौरान नहीं। ध्यातव्य है कि यूनियनों का एक उद्देश्य नौकरशाही की प्रवृत्ति से निपटना भी था। नौकरशाही की इस प्रवृत्ति को यूनियन के निचले स्तर से अक्सर चुनौतियाँ मिलती रहती थीं। ब्रिटेन में इन संस्थाओं को शॉप स्टीवार्ट कहा जाता था।
ये यूनियन के सबसे निचले स्तर पर निर्वाचित निकाय होते थे। सदस्यों की तत्कालीन समस्याओं के समाधान की वकालत करने वाले थे। निकाय यूनियन की नौकरशाही की तुलना में ज्यादा क्रांतिकारी विचारों वाले थे। ब्रिटेन में इन निकायों ने हमेशा प्रबंधन तंत्र तथा सरकारों से समझौता करने की हिमायती यूनियन के नौकरशाही की आलोचना की। लेकिन यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सोवियत संघ में स्थिति इससे भिन्न एवं उलट थी। 1917 की रूसी क्रांति के पश्चात् वहाँ जो सरकार गा , हुई, वह घोषित रूप से मजदूरों की सरकार थी। उसका उद्देश्य मजदूरों के कल्याणार्थ कार्य करना था। इसलिए वहाँ की यूनियनें मजदूरों के अधिक की मांग का दावा नहीं कर सकती थीं। यहाँ भी यूनियन, पार्टी, प्रबंधतंत्र तथा राजतंत्र की नौकरशाही संलग्न थी, लेकिन वे सभी एक ही नौकरशाही के अलग-अलग रूप थे।
कार्यकारी रूप से तो वे मंत्रालयों के समान एक-दूसरे से अलग थे, लेकिन सभी का लक्ष्य एक ही राजनीतिक विचारधारा, नेतृत्व को पोषित करना था। यहाँ यूनियनों का कार्य मजदूरों के हित में पार्टी की नीतियों के कार्यान्वयन का था। श्रम सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण तो ऊपरी स्तर पर होता था और कारखाने के स्तर पर यूनियनें प्रबंधन के साथ मिलकर उन्हें लागू करती थीं। इस तरह यह पता चलता है कि पूर्वी और पश्चिमी यूरोप में यूनियनों के कार्य भिन्न थे, लेकिन वे एक ऐसी व्यवस्था के घटक थे, जो एक पदानुक्रमबद्ध अधिकारी तंत्र था।
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