फैंटेसी का स्वरूप
फैंटेसी मूलत: मनोविश्लेषण शास्त्र से संबद्ध शब्द है, जिसकी व्याख्या स्वप्न के संदर्भ में फ्रायड और युंग ने की है। यद्यपि इन
दोनों मनोविश्लेषणवादियों ने स्वप्न से फैंटेसी को अलग करने का प्रयास किया है,
लेकिन युंग ने “अभिप्रेरित चिंतन” (डायरेक्टेड थींकिंग) के रूप में
विवेक द्वारा नियंत्रित सत्य के सामाजिक मानदंड के रूप में इसे स्वीकार किया है।
प्रसिद्ध मार्क्सवादी समीक्षक क्रिस्टाफर काडवेल ने इस व्याख्या को अंशत: स्वीकार
किया है और इसे “अभिप्रेरित अनुभूति” (डायरेक्टेड फीलिंग) सिद्ध करते हुए सौंदर्य
या अच्छाई का सामाजिक मानदंड माना है। फैंटेसी विवेक-प्रक्रिया द्वारा अनुशासित न
होकर हृदय या मन द्वारा अनुशासित होती है।
मुक्तिबोध ने फैंटेसी के
संदर्भ में काडवेल की व्यवस्था को अधिकांशत: स्वीकार किया है किंतु “अभिप्रेरित
अनुभूति(डायरेक्टेड फीलिंग) के स्थान पर उसे “संवेदनात्मक उद्देश्य’ से नियंत्रित
एक सक्रिय-सर्जनात्मक इकाई के रूप में ग्रहण किया है ‘फैंटेसी डायनेमिक होती है।
कला के प्रथम क्षण के अंतिम सिरे पर उत्पन्न होते ही उसकी गतिमानता शुरु हो जाती
है।” (एक साहित्यिक की डायरी, पृ0 20) कला
के प्रथम क्षण अर्थात् “जीवन के उत्कट तीव्र अनुभव क्षण’ के अंतिम सिरे और कला के
दूसरे क्षण अर्थात् सौंदयानुभूति के आरंभिक सिरे पर उत्पन्न फैंटेसी वस्तुत:
निर्वैयक्तिकता की ही . एक स्थिति को संकेतित करती है। निर्वैयक्तिकता की यह
स्थिति ही मुक्तिबोध द्वारा निरूपित कला का दूसरा क्षण अर्थात् फैंटेसी का क्षण है,
जिसके संबंध में मुक्तिबोध ने लिखा है, “जो
फैंटेसी अनुभव की व्यक्तिगत पीड़ा से स्वतंत्र होकर, अनुभव
के भीतर की ही संवेदनाओं के द्वारा उत्सर्जित और प्रक्षेपित होगी वह एक अर्थ में
वैयक्तिक होते हुए भी निर्वैयक्तिक होगी। उस फैंटेसी में अब एक भावनात्मक उद्देश्य
की संगति आ जाएगी, इस संवेदनात्मक उद्देश्य के द्वारा ही
वस्तुत: फैंटेसी को रूप-रंग “मिलेगा।”
फैंटेसी : कविताओं के विश्लेषण के संदर्भ में
फैंटेसी के शिल्प की दृष्टि से ‘अंत:करण का आयतन” शीर्षक कविता के
विश्लेषण द्वारा हम मुक्तिबोध की शिल्पगत विशेषताओं को आसानी से समझ सकते है|
“अंत:करण का आयतन” कविता का
आरंभ अत्यंत सहज, आत्मीय ढंग से, किंतु
असंतोषपूर्ण आत्मस्वीकृति के माध्यम से इस प्रकार होता है :
‘अन्त:करण का आयतन संक्षिप्त
है
आत्मीयता के योग्य
मैं सचमुच नहीं।
आगे भी अंत तक काव्य-नायक ”मैं” के माध्यम से कविता आत्मकथन शैली
में प्रस्तुत हुई है। काव्यनायक “मैं” आरंभ में ही अपनी “सर्वगामी छाया’ के माध्यम
से एक रहस्यमय वातावरण की सृष्टि करता है :
“पर क्या करूँ यह छाँह मेरी सर्वगामी है।
हवाओं में
अकेली सांवली बेचैन उड़ती है
कि
श्यामल-अंचला के हाथ में ,
तब लाल
कोमल फूल होता है
चमकता है
अंधेरे
में
प्रदीपित द्वंद्व चेतस् एक
सत्-चित्-वेदना
का फूल
उसको ले
न जाने
कहाँ किन-किन सांकलों को
खटखटाती
वह।’
यहाँ तक उस रहस्यमय छाया रूप फैंटेसी का वास्तविक रूप यद्यपि पूरी
तरह उद्घाटित नहीं हुआ है, फिर भी उसके हाथ में स्थित प्रकाशमान
“सत-चित-वेदना का द्वंद्व-चेतस फूल’ रहस्य के आवरण में वस्तुत: द्वंद्वात्मक
भौतिकवादी समझ है, जिसके प्रकाश में काव्य-नायक की छाया अपनी
यात्रा सम्पन्न करती है। फैंटेसी की प्रकृति के अनुसार इसे संवेदनात्मक उद्देश्य
की संज्ञा दी जा सकती है। काव्यनायक ”मैं’ की छाया द्वारा सांकलों को खटखटाने के
बाद भी :
“नहीं इनकार वाले द्वार खुलते, किंतु
उन सोतों
हुओं के गूढ़ सपनों में
परस्पर
विरोधों का उ-विदारक शोर होता है
विचित्र प्रतीक
गुंथ जाते, (अनिवार्य का भवितव्य)।
नीलाकाश
नीचे – और
नीचे उतरता आता
उस नीलाभ
छत से शीश टकराता
कि सिर से
खून चेहरा रक्त-धाराओं भरा।’
यहाँ दरवाज़ा बंद कर सोने वाले लोग वर्गीय विषमता से ग्रस्त समाज
के प्रतीक हैं। उनके गूढ स्वप्न परस्पर-विरोधी आशाओं-आकांक्षाओं के प्रतीकाभास हैं, जिन्हें “उर-विदारक’ शोर के रूप में सुनकर काव्य-नायक एक “अनिवार्य
भवितव्य’ (अवश्यंभावी घटना) का अनुभव करता है। यह अनिवार्य भवितव्य वस्तुत:
वर्ग-संघर्ष की अनिवार्यता है, जिसका दबाव एक गंभीर दायित्व
के रूप में काव्यनायक “मैं” को आक्रांत करता है। नीलाभ आकाश से टकराकर सिर का
फूटना चेहरे का रक्तस्नात् होना, उपर्युक्त तथ्य का संकेतक
है। ‘अंधेरे में’ कविता का कर्ता “रक्तलोक-स्नात पुरुष’ भी “आत्मा की प्रतिमा” के
रूप में प्रकट होकर काव्य-नायक ”मैं’ को अपने कठिन दायित्व का अनुभव : कराता है।
यहाँ आकर फैंटेसी की गति एक
विराम लेती है, दूसरी दिशा में मुड़ने के लिए। इस तथ्य को
पहले भी संकेतित किया जा चुका है कि फैंटेसी एक “संवेदनात्मक उद्देश्य” को लेकर
गतिशील होती है, जिसमें प्रतीक, रूपक,
बिंब आदि उसके अनुगत बन कर आते हैं। अत: फैंटेसी के विश्लेषण की
प्रक्रिया में इनका भी विश्लेषण आवश्यक है। दूसरी बात यह कि मुक्तिबोध एक
क्रांतिकारी चेतना के कवि हैं।
अत: उनके लिए सामाजिक
अंतर्विरोधों का ज्ञान मात्र ही सामाजिक क्रांति की शर्त नहीं है। उस पर और अधिक
सोचने-विचारने तथा वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोध के निषेध के लिए “वंद्वात्मक निषेध” की
वास्तविकता से परिचित होना और उसके अनुकूल वातावरण के निर्माण का प्रयास भी आवश्यक
है। सामाजिक अंतर्विरोधों के “उर-विदारक शोर से जागृत चेतना चिंताक्रांत होकर
सोचने के लिए विवश करती है :
“कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?
प्रतिष्ठित
राज्य संस्कृति के प्रभावी दृश्य
सुंदर
सभ्यता के तुंग स्वर्ण-कलश
सब आदर्श
उनके
भाष्यकर्ता ज्ञानवान महर्षि
ज्योतिर्विद्, गणितशास्त्री, विचारक, कवि,
सभी वे याद
आते हैं।
प्रतापी
सूर्य हैं वे सब प्रखर जाज्वल्य।”
”बेबीलोन” सचमुच नष्ट होगा क्या? इस प्रश्न के माध्यम
से फैंटेसी यहाँ एक नया मोड़ लेती है। वैसे बेबीलोन यहाँ प्राचीन-मध्यकालीन
सामाजिक शोषण पर आधारित राज्याश्रयी संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है, लेकिन अपनी रूपकीय मुद्रा के कारण वह पूँजीवादी शोषण पर आधारित आधुनिक
राज्याश्रयी संस्कृति का प्रतीक भी बन जाता है। इस प्रकार मुक्तिबोध ने वर्तमान
जीवन-तथ्यों और उसके मूलभूत प्रश्नों को सुदूर अतीत में प्रक्षेपित कर वर्तमान से
एक आकर्षक दूरी पैदा की है। यही कार्य प्रसाद जी ने अपनी “कामायनी” में फैंटेसी के
माध्यम से किया है। यहाँ भी फैंटेसी का अपना स्वतंत्र ढाँचा है, अपना स्वतंत्र दिक्काल और निजी इतिहास-भूगोल है, जो पूरी तरह प्राचीन-मध्यकालीन
वातावरण पर आधारित है| यह कार्य कवी ने “भाष्य कर्ता ज्ञानवान महर्षि ज्योतिर्विद,
गणित शास्त्री, विचारक, कवि” आदि शब्दों के माध्यम से भी बखूबी संपन्न किया है|
लेकिन इस ढांचे में भरे गये रंग वर्तमान जीवन-तथ्यों द्वारा उपस्थित किये गये हैं|
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