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तुकाराम के काव्य में सामाजिक अभिव्यक्ति पर प्रकाश डालिए।

 तुकाराम के काव्य में सामाजिक अभिव्यक्ति:

तुकाराभ जिस वारकरी संप्रदाय के अनुयायी थे उस वारकरी संप्रदाय का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक बुराइयों को दूर करना था। उन्होंने लौकिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए समान रूप से उपयोगी एक नई पद्धति की रचना की। संतों का यह प्रयास रहा कि ऐसे समाज की निर्मिति की जाए जिससे वंश, समूह, जाति, वर्ण संप्रदाय और धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाए । सामाजिक समता और बंधुत्व की स्थापना हो और विषमता, विभेद, पाखण्ड, आलस्य और ब्राह्मणों द्वारा रचित कर्मकाण्ड को नष्ट किया जा सके । यह समाज को तुकाराम और अन्य संतों की सबसे बड़ी देन रही।

उस समय समाज विषमता और अन्याय पूर्ण वातावरण में सांस ले रहा था। पतनशील हिन्दू जीवन दृष्टि को जीवन प्रवाह निश्चित करने वाली दृष्टि के रूप में समाज अपना चुका था। जिससे किसी प्रकार की मुक्ति सम्भव नहीं थी। लोगों को यह विश्वास दिया जा रहा था कि कितनी भी मेहनत करने के बावजूद उनकी गरीबी और भूख, दुःख ओर दैन्य समाप्त नहीं होगा । वर्णव्यवस्था के अधीन जाति-व्यवस्था को कोई भी तोड़ नहीं सकता था, अत: जाति के आधार पर निर्धारित व्यवसाय को करते रहने के लिए बाध्य किया जाता था । अनेक पीढ़ियों तक यह विश्वास दृढ़ रहा कि कोई भी नीति, दर्शन या कला के आधार पर धर्म द्वारा बनाए नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता।

ऐसे युग में तुकाराम ने अपनी आंतरिक प्रेरणा और अनुभूति से समानता और बंधुत्व के प्रचार से, अपने आध्यात्मिक चिंतन से, श्रम की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए धर्म के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया । हम तुकाराम के कुछ अभंगों के आधार पर समझ सकेंगे कि तुकाराम ने आध्यात्मिक विचार और सामाजिक प्रश्नों को किस प्रकार एक साथ जोड़ कर प्रस्तुत किया। इसी कारण भक्ति आंदोलन विशाल सामाजिक आंदोलन का रूप ग्रहण कर सका। अन्यथा भक्त की एक. और व्याख्या यह भी हो सकती है कि केवल ईश्वर चिंतन में मग्न रहने वाला, जिसे समाज से कोई सरोकार नहीं है, ऐसा व्यक्ति । लेकिन तुकाराम को ऐसा भक्त अभिप्रेत था जो ईश्वर भक्ति के साथ-साथ सामाजिक समानता के लिए सक्रिय कार्य करें। वे संतों का वर्णन इस प्रकार करते हैं--

अर्भकाचे साठी | पंते हाती धरीली पाटी |।

तैसे संत जगी। क्रिया करूनी दाविती अंगी।

बालकाचिये चाली। माता जाणूनी पाऊल घाली।।

तुका म्हणे नाव । जनासाठी उदकी ठाव ।।

भावार्थ : जिस प्रकार पुत्र को पढ़ाने के लिए शिक्षक हाथों में तख्ती उठाते हैं । उसी प्रकार संत समाज के हित के लिए कार्यशील रहते हैं। बालक को चलना सिखाने हेतु जैसे माता उसे हाथ पकड़कर चलना सिखाती है वैसे ही संत जनकल्याण के लिए कार्य करते हैं।

1. धार्मिक बाह्याचार का विरोध

इस प्रकार आत्म-निष्ठा और समाज का काव्यमय संगम तुकाराम की रचनाओं में प्रमुख रूप से देख सकते हैं। प्रतिक्रियावादियों की ओर से उनका विरोध होना स्वाभाविक-सी बात थी। और विरोध हुआ भी। शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है और तुकाराम पर वेदों के ज्ञान को शूद्र होते हुए भी सामान्यजनों में बांटने का आरोप लगाया। उनके अभंगों की गाथा को इंद्रायणी नदी में डुबो दिया गया । परंतु इस विरोध के समक्ष तुकाराम अपनी निस्पृह सेवा-भावना और समता की स्थापना के प्रति वचनबद्धता के कारण अपने लेखन कार्य में निमर्न रहे। शिष्य संप्रदाय या मठ स्थापना की बात को उन्होंने कभी महत्व नहीं दिया । राजा शिवाजी ने उनकी आर्थिक सहायता करने के लिए कीमती नजराना भेजा, लेकिन तुकाराम ने उसे लौटा दिया।

तुकाराम कहते हैं कि भक्ति के लिए संसार त्याग की आवश्यकता नहीं है । ''सत्यवादी करी संसार सकव्ठ | अलिप्तकमव्ठ जब्ही जैसे ।।

भिक्षापात्र अबलंबिणे। ज जिणे लाजिर वाणे।

सुखे करावा संसार। परी न संडावे दोन्ही वार ।।

जोडोनिया धन उत्तम व्यवहारे। उदास विचारे वेचकरी | |

2 जातित्रथा, छुआछूत का विरोध

इस्लाम के आगमन ने भारतीय समाज व्यवस्था और धार्मिक विचारों को पहली बार हिला दिया था । हिन्दू धर्म के अनुसार जो वर्णव्यवस्था यहाँ बनी थी उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता था। जिस जाति में जिसने जन्म लिया है वह उसी जाति के नाम से जाना जाता था। उसे अपनी जाति को बदलने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन मुस्लिम धर्म ने अपने धर्म का अचार करने हेतु किसी भी धर्म अथवा जांति के अनुयायियों को अपने धर्म में दीक्षित करना शुरू कर दिया | वर्णाश्रम व्यवस्था को यह बहुत बड़ा धक्का था । इस्लाम जो अ्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक जाति को अपपने में समाहित कर लेने के लिए पूरी तरह से उदार था। इस्लाम धर्म, की इस उदारता की ओर हिन्दुओं का वह हिस्सा जो सदियों से वर्णाश्रम धर्म के कारण अपमान और घृणा की जिंदगी जी रहा था, सबसे अधिक आकृष्ट हुआ | सबसे अधिक आकर्षण का कारण था इस्लाम धर्म के बेधुत्व और एकेश्वरवाद जैसे प्रगतिशील तत्व । आगे चलकर महाराष्ट्र

में भी ज्राह्मणजाद की दासता को अस्वीकार करके संतों ने कर्मकांड का निषेध किया और बहुंदेवोपासना के स्थान पर केवल एक देवता के रूप में पंढरपुर के “विट्ठल'”” की उपासना करना प्रारंभ कर दिया। इस्लाम के एकेश्वरवादी पंथ की गम्भीरता हिन्दूवाद के मसिहाओं के मन में घर कर गई थी । इस का विशेष परिणाम महाराष्ट्र में तब देखने को मिला जब सन्तों ने राम और रहीम में कोई भेद न मानने का उपदेश दिया और उन्हें जातिवाद और बाहरी कर्मकांडों के बंधनों से मुक्ति का आश्वासन दिया । सनन्‍्तों के इन विचारों ने आपसी प्रेम भावना को बढ़ावा मिला और लोगों को एकता के सूत्र में बांध कर एक ईश्वर की भक्ति करने के लिए प्रेरित किया । इस एकता की भावना में एक ओर उदार मुस्लिम शासकों को हिन्दू सन्‍्तों के प्रति कोमल बना दिया तो दूसरी तरफ अबुल फज़ल, फैजी,अकबर दाराशिकोह (शाहजहाँ का बड़ा बेटा) कब्बीर, और महाराष्ट्र में शेख मुहम्मद जैसे इस्लाम के मानने वाले एक राष्ट्रीय आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने का प्रयास कर रहे थे । हिन्दू मुस्लिम एकता को त्रस्थापित करने का सर्वप्रथम प्रयास संतों ने किया था । जिसकी फलश्रुति यह हुई कि भारत में ही मुस्लिम अपने धर्म के अलावा अन्य धर्म के श्रद्धा स्थलों की ओर आकर्षित हुए।

तुकाराम के काव्य में राम और रहीम के एक होने का प्रभाव स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । वे कहते हैं (ये उनके हिन्दी में रचित अभंग है) अल्ला देवे अल्ला दिलावे।

अलल्ला दारू अल्ला स्विलाजे।

अलल्‍ला बगर नहीं कोए अल्ला करे

सस्‍्रो हि होए।।

अल्ला को तुकाराम उस बड़े वैद्य के रूप में देख रहे हैं जो सबको अपनी भक्ति की गोली दारू (दवा) स्विलाकर चंगा रखता है ।

मेरी दारू जिन्हें खाया । दिदार दरगों सो स्रो हि पाया

सल्हे सुंढी धावाल जाये । बिगारी स्रोले क्‍या लेखले।।

एक और अभंग में तुकाराम कह रहे हैं कि खुदाई ही प्यार का स्वरूप है)

प्यार खुदाई रे बाबा जिकिर खुदाई |

कहे तुका चलो एका हम जिन्‍्हों के सात |

मिलावे तो उसे देना तो ही चढावे हात | |

संतों की इस समन्वय भावना को देस्ककर कुछ कट्टर मुसलमान भी अपनी हठधर्मिता छोड़कर सहिष्णु और विनम्र हो गए थे । कुछ मुसलमान फकीर हिन्दू संतों की श्रेणी में प्रतिष्ठित हैं । और कुछ संतों का दोनों घर्मों के लोग समान आदर करते हैं। एक ओर तो तुकाराम को पारिवारिक सामाजिक, धार्मिक विरोध से सतत्‌ संघर्ष करना पड़ा तो दूसरी ओर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर विजय ज्राप्त करने के लिए आत्म संघर्ष करना पड़ा ।अपने एक अपभंग में वे इसका विवेचन करते हैं :

रात्री दिवस अआम्हा युद्धाचा प्रसंग | अंतर्बाह्मय जग आणि मन |

जीवा ही आगोज पड़ती आघात | येऊनियां नित्य करी ॥।

तुका म्हणे तुझया नामाचिया बत्ठे । अवधियांचे काव्ठे केले तोंड ।

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