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पंजाबी भक्ति के साहित्य ग्रंथ कौन से हैं। संक्षेप में उनका परिचय दीजिए।

 पंजाबी साहित्य:

1. भाषा

पंजाबी भारत के पंजाब प्रांत की भाषा है | वास्तव में पाँच नदियों की भूमि जिनमें रावी, सतलुज, व्यास, चिनाव और झेलम नदियाँ श्रवाहित होती है के कारण यह प्रदेश पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हुआ और इस क्षेत्र के लोगों की भाषा को पंजाबी नाम दिया गया । देश के बंटवारे से पहले यह भाषा

केंवल पंजाब तक ही सीमित थी किंतु बैंटवारे के बाद जहाँ यह पाकिस्तान के बहुत बड़े हिस्से में बोल्नी जाती है वहीं भारत में यह पंजाब, दिल्‍ली, उत्तर प्रदेश के कुछ भागों तथा जम्मू में बोली जाती है । इसके अलावा देश के विभाजन के बाद पंजाबी भाषी जहाँ-जहाँ गए अपनी भाषा भी साथ ले गए. ' इस प्रकार यह देश के कई क्षेत्र में न्यून रूप में बोली जाती है।

2. लिपि

पंजाबी भाषा के लिए जिस लिपि का व्यवहार होता है उसे ' गुरुमुखी' कहते हैं । वास्तव में सिखों के दूसरे गुरु अंगद ने सिख मत के अंथ को लिखने के लिए इस लिपि को अंतिम रूप दिया और गुरु के मुख से प्रमाणित माने जाने के कारण ही इसे “गुरुमुखी'' लिपि की संज्ञा दी गई । वैसे पंजाबी भाषा के लिए अरबी तथा देवनागरी लिपि का भी प्रयोग किया जाता है ।

3. साहित्य

पंजाबी साहित्य की शुरुआत दसवीं शताब्दी के बाद मसूद तथा बाबा फरीद के सूफी काव्य से होती है। बाबा फरीद का काल ]73-265 ई. का है । ये दिल्‍ली के प्रसिद्ध हजरत ख्त्राजा निजामुद्दीन औलिया के गुरु थे । इनसे पहले मसूद जो महमूद गजनवी के पुत्र थे ने पंजाबी में काव्य रचनाएँ की । वास्तव में पंजाबी साहित्य की आधारशिला गुरुनानक (१469-538) में रखी । “गुरूगंथ साहिब'” में संकलित उनकी वाणियों का अवलोकन करे तो स्पष्ट फता चलेगा कि जनसाहित्य की रचना की शुरूआत नानक ने ही की । उनकी भाषा सरल तथा स्पष्ट है । साथ ही उसमें सामाजिक चेतना का ही संदेश है । एक उदाहरण देखिए --

कलि होई कुत्ते मु्दी खाजु ही आ गुरदास ।

कुहू बोलि बोलि मडकाणा चुका धरम विचारु ॥।

अर्थात्‌ कलियुग के शासकों की खाद्य वस्तु को मांस हो गयी है। अर्थात्‌ रजवाड़े कुत्तों के समान

लालची हो गए है। वे रिश्वत तथा बेइमानी से कैसे खाते हैं।

पंजाबी भक्ति के साहित्य ग्रंथ:

1. आरंभ

पंजाबी भक्ति काव्य का आरंभ तो पंजाबी साहित्य रचना के साथ ही हो जाता है। सिद्ध-नाथ कवियों में गोरखनाथ को पंजाबी साहित्य में भी सम्मानपूर्ण स्थान हासिल है। पंजाबी के प्रथम महान्‌ कवि बाबा फरीद का पंजाजी भ्रकत काव्य में अत्यंत सम्मानीय स्थान है जो तेरहवीं शताब्दी में हुए।

2 आधार ग्रंथ

पंजाबी भक्ति काव्य का वास्तविक आधार ग्रंथ “आदि ग्रंथ” या जन भाषा में ''श्री ग्रू ग्रंथ साहिब” है। इस आधार ग्रंथ में सात गुरूओं-गुरू नानक देव, गुरू आनंद देव ''(दसरे गुरू), गुरू रामदास (चौथे गुरू), गुरू अर्जुन देव, गुरू तेगबहादुर की वाणी के साथ दसवें व अंतिम ग़ुरू-गुरू गोविन्द सिंह का एक श्लोक संकलित हैं। किंतु गुरू वाणी के साथ ही साथ तीस भकक्‍तों की वाणी भी आदि ग्रंथ'” में संकलित हैं। इन भकक्‍तों में-कजीर, रविदास, नामदेव, ज्ञानेश्वर, रामानंद, परमानंद, सूरदास (मदन मोहन), जयदेव, फरीद आदि प्रमुख हैं। वास्तव में ''आदि ग्रंथ” में प्रे भारत के संत कवियों की वाणी संकलित है और इसे पूरे भारत के भकित्त काव्य का प्रमुख ग्रंथ भी माना जा सकता है। ''आदि ग्रंथ” में कल 5894 पद संकलित हैं, जिंसमें 4956 पद सिख ग्रूओं के व 938 पद अन्य संत कवियों के हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक व पूर्व से पश्चिम तक सभी दिशाओं व क्षेत्रों के भक्त कवियों की वाणी ''आदि ग्रंथ” में संकलित है।

3. गुरू नानक देव : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

गुरू नानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 ईस्वी को राय भोय की तलवंडी गांव में मेहता काल यानि कल्याण चंद के घर माता तप्ता की कोख से हआ। उस समय दिल्‍ली के तख्त पर बहलोल खान (लोदी) का शासन था। राय मोय की तलवंडीगांव को अब ''ननकाना साहिब'' कहा जाता है व 1947 के बाद यह कस्बा पाकिस्तान में स्थित है। गरू नानक देव के जन्म व जीवन के संत्रंध में अनेक जन्म साखियां मिलती हैं।

गुरू नानक देव के सत्तर वर्ष के जीवन में कई पड़ाव हैं। जीवन के प्रथम 18 वर्ष वे अपने पैत॒क कस्बे में रहे व शिक्षा आदि प्राप्त की 18 वर्ष की आय में वे अपनी बहिन नानकी के पास सुल्तानपुर लोधी गए, जहां उन्होंने मोदी रूप में दस वर्ष बिताए। उनका विवाह सुलक्खणी जी से हुआ व दो पूत्र-श्री चंद व लखमी चंद आपके घर में पैदा हुए। 1497 में गरू नानक देव ज्ञान प्राप्ति के लिए यात्रा को आकल हो उठे व जीवन के अगले चौबीस वर्ष उन्होंने यात्राओं में बिताए। इन चौबीस वर्षों में आपने चार लंबी यात्राएं कीं, जो चार उदासियों के रूप में जानी जाती हैं। करीब 25 हजार मील का मार्ग आपने इन यात्राओं में तय किया व लगभग संपूर्ण भारत के अतिरिक्त एशिया व अरब में कई देशों की यात्रा की। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने अनेक धार्मिक संतों से गोष्ठियां की तथा अपने विचारों की प्रतिष्ठा की।

4 गुरू अर्जुन देव : व्यक्तित्व व कृतित्व

पंजाबी भक्ति काव्य व सिख्ख॒ धर्म परंपरा में गुरू नानक देव के बाद गुरू अर्जुन देव का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है।

गुरू अर्जुन देव, चौथे गुरू-गुरू रामदास के घर माता मानी की कोख से 14 अप्रैल 1563 ई. को पैदा हुए। अर्जुन देव बचपन से ही पिता के मोह में बंधे हुएं थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बाबा बुड्डा के पास हुई। 1581 ई. में 28 वर्ष की आयु में अर्जुन देव को सिख धर्म परंपरा में पांचवा गुरू स्थापित किया गया।

दिल्‍ली के तख्त पर उस समय अकबर का शासन था तथा वह है रू सा देव का बहुत सम्मान करता था। 1598 ई. में उसने गोइंदवाल में गुरू अर्जुन देव से भेंट की व उनके कहने पर किसानों के लगान में कमी की।

गुरू अर्जुन देव उच्चकोंट के कवि व संगीतज्ञ थे। सिख धर्म गुरूओं में सर्वाधिक वाणी की रचना गुरू अर्जन देव ने ही की। संभवतः गुरू गोविन्द सिंह ने ही उनसे कुछ ज्यादा वाणी की रचना की है।

5. शुरू तेगबहादुर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

गुरू तेगबहादुर सिखों के छठे गुरू हरिगोविंद जी के पांचवे व सबसे छोटे पत्र थे। गुरू अर्जुन देव आपके दादा थे। इनका जन्म 1 अप्रैल 1621 ई. को अमृतसर में हुआ था। गुरू तेगबहादुर का बचपन का नाम त्याग मलल था व उन्हें बचपन से ही अच्छी शिक्षा-दीक्षा व शस्त्र शिक्षा भी दी गई थी। 14 वर्ष की आयू में उन्होंने युद्ध में भी हिस्सा लिया। गुरू हरिगोविन्द ने अपने पश्चात गुरू गद्दी अपने पौत्र हरि राय्‌ को दी तथा उनके देहांत के बाद गद्दी पर उनके शिशु पुत्र हरि पे को बिठाया पर आठ वर्ष की छोटी आयु में ही वे चल बसे।. किंतु उन्होंने मृत्यु ली के लिए अपने दादा तेगबहादुर को नामजद क्रिया व कुछ विश्रम की स्थिति के बाद संगत में तेगबहादुर की नौवें गुरू के रूप में प्रतिष्ठा हुई।

चुरा तेगबहादुर, गुरू नानक देव के पश्चात ऐसे गुरू थे जिन्होंने भारत, बांग्लादेश आदि व्यापक यात्रा की। उन्होंने आनंदपुर साहिब नगर की भी स्थापना की।

इस बीच भारत प्रर औरंगजेब का असहिष्णु शासन स्थापित हो चुका था। उसके अत्याचारों से तंग आकर कछ कश्मीरी पंडितों ने गुरू तेगबहादर से स्रक्षा की प्रार्थना की। नौ वर्ष के गोविंद सिंह की प्रेरणा पर बलिदान के लिए उन्हें दशम गुरू स्थापित कर, गुरू तेगबहादुर दिल्‍ली आए, जहां उन पर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डाले गए-व जब वे अपनी आस्थाओं पर अडिग रहे तो अपने दादा गुरू अर्जन देव की तरह उन्हें भी यातनाएं दे दे कर शहीद किया गया। जहां उन्हें शहीद किया गया उस स्थान पर आल दिल्‍ली में भव्य शौशगरंज गुरूद्वारा स्थित है। यह घटना 1675 में घटी।

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