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शंकरदेव के काव्य में सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों की अभिव्यक्ति किस प्रकार हुई है? स्पष्ट कीजिए।

 शंकरदेव के काव्य में सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों की अभिव्यक्ति:

शंकरदेव और माधवदेज के एकत्र काव्य-साहित्य को शांकरी काव्य कहा गया है। शंकरदेव के प्रियतम शिष्य होने के कारण उनके दर्शन से माधवदेव का प्रभावित होना स्वाभाविक है। दोनों भक्त कवियों ने ““एकशरणीया धर्म” के महत्व को अ्तिपादित करते हुए साहित्य का निर्माण किया है। इसके बाद उनके स्रासाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण पर सध्तेप में विचार करेंगे।

1. एकशरण का अयर्तन

वैष्णव धर्मगुरू शंकरदेव से प्रथम भेंट में ही शाक्त धर्म को माननेवाले माधव ने अपने पंथ की श्रेष्ठता अतिपादित करने के लिए तर्क किया था | घंटों जाद-विवाद के बाद शंकरदेव ने भागवत्‌ से एक श्लोक उद्धुत करके शाक्त माधव को एकशरण के महत्व को बताया +-

यथा तरोम्यूलनोचनेन तृप्यान्ति तत्स्कन्धभुजोपशास्वा: ।

आणोपट्टाराच्य यथेन्द्रियाना तथैव सर्वार्णमच्युतेज्या ॥। (भा. 04/3/44)

(जिस जअकार वृक्ष की जड़ सींचने से उसके तना, शास्त्रा, उपशाय्त्रा आदि सभी का पोषण हो जाता है और जैसे भोजन द्ारा प्राणों को तृप्त करने से समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्री भगवान की पूजा ही सबकी पूजा है |) इसी श्लोक में '“एकशरण'”” की महत्ता प्रतिपादित हुई है इसके बाद शाक्त साध जैष्णज साधवदेव बने | “गीत” की “एकशरण”” ही शांकरी दर्शन का मूलाधार बना ।

“एकशरण” का तात्पर्य है संसार-सागर से मुक्ति पाने के लिए एकमात्र अद्दैत ब्रह्म कृष्ण की शरण लेना | शंकरदेव ने इस प्रकार अपना विचार व्यक्त किया है :

एके कृष्ण देव करियोक सेव

धरियो ताहान नाम ।

कृष्ण दास हुआ प्रसाद मुंजिया

हस्ते करा तान काम ॥।

(कृष्ण ही एक देव हैं, उन्हें पूजना चाहिए, उनका नाम स्मरण करना चाहिए “कृष्ण का दास होकर और उसकी कृपा लाभ कर हाथ से उन्हीं का काम करना चाहिए |) कृष्ण माधवदेव के काव्य में भी अनुरूप विचार प्राप्त होते हैं :

ईश्वर कृष्ण से निष्ठ परम आराध्य देव

मोर तान नामे निज गति।

(ईश्वर कृष्ण ही परम आराध्य देव हैं, उनके नाम ही मेरी गति है ।)

शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित “'एकशरण'”” का एक महत्वपूर्ण पहलू है । बहुदेववाद के स्थान पर “एक देव” की प्रतिष्ठा । सामाजिक एकता के लिए इसे वैष्णव धर्म की अमूल्य देन कही जा सकती है।

2. धार्मिक बाहयाडम्बर का खंडन

समाज में एकता और समता बनाये रखने के लिए बाहयाडम्बर का त्याग कर एक सहज, सरल और उदात्त मार्ग का अवलम्बन करना अति आवश्यक था । धार्मिक-शोषण में समाज-जीवन जर्जर हो चुका था। धर्म के नाम पर कठिन साधना अपनाने से सामान्य लोगों के भटकने की संभावना बनी रहती थी | इसलिए शंकरदेव ने अपने शांकरी साहित्य में तप, जप योग, तीर्थ, ब्रत, ज्ञान, वैराग्य इत्यादि कठिन साधनों को त्याग कर केवल भक्ति करने के लिए प्रोत्साहित किया है। शंकरदेव ने तीर्थ-वत्रत, तप-जप, योग आदि की असार्थकता सिद्ध करते हुए कहा है :

तीरिथ बरत तप जप भाग योग सुगुति।

मंत्र परम धरम करम करंत नाहि मुकुति ॥।

उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भक्ति के लिए देव, द्विज ऋषि होने की कोई आवश्यकता नहीं है या शास्त्रों के द्वारा कहे गए अनुष्ठान व्यर्थ ही है, केबल भक्ति से ही भगवान संतुष्ट होता है--

न लागै देव द्विज ऋषि हुइबे।

न लागै समस्त शास्त्र जानिबे |

मिछाते मरै आन कर्म करि।

होवन्त भकतिते तुष्ट हरि ॥

ऐसे विचार माधवदेव के काव्यों में भी है कि भारतवर्ष जैसे पुण्य क्षेत्र में मनुष्य का दुर्लभ जन्म पाकर व्यर्थ ही तप, जप, यज्ञ के पीछे न भटक कर केवल भक्ति करने से ही भगवान सुलभ हो जाता है---

धन्य धन्य कलिकाल, धन्य नरतनु भाल

धन्य धन्य भारत बरिषे।

तप जप यज्ञ तेजि, तोम्हार चरणे भजि।

तुवा नाम धुषियों हरिशे ॥

धर्म के नाम पर बाहयाडम्बर त्याग करने के लिए दिये गये उपदेश के पीछे धार्मिक शोषण से बचने की चेतावनी है । तत्कालीन समाज में ऐसा विश्वास पनप चुका था कि धन ही धर्म का मूल है । धन के नाम पर धर्म का व्यवसाय किया जा सकता है। वस्तुतः यह धर्म के नाम पर चलने वाला एक अ्रकार का आडम्बर ही था। शंकरदेव ने इसीलिए कड़ी हिदायत देकर कहा कि यदि कोई ऐसा सोचे कि धन से धर्म होता है और स्वर्ग सुख लाभ होता है तो यह गलत है, क्योंकि अतीसुख भी विनाशकारी है और दुःख का कारण है ---

यदि बोला धन हन्ते धर्म उपजय |

सेहि धन हतन्ते स्वर्ग सुखक पावय ॥।

शुनियो स्वर्गत आछे यत यत सुख |

समस्तें विनाशी सदा पावे मात्र दुख ॥।

तपस्या, तीर्थ-अ्रमण, श्रद्धाहीन प्रतिमा पूजन, व्यर्थ शास्व्राध्ययन इत्यादि साधना से ईश्वर और भक्त के बीच में अंतर बढ़ता है तो आडम्बर क्रो अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता । ऐसे आउड्म्बरों का त्याग ही सामाजिक एवं धार्मिक जीवन के लिए कल्याणकारी होता है।

3. नैतिकता व्का सहत्व

सामाजिक जीवन की स्वस्थता जैयक्तिक तथा पारिवारिक जीवन पर निर्भर करती है। सामाजिक व्यक्ति के लिए समाज के विधि-निषेधों का पालन आआवश्यक होता है। शेकरीकाव्य में विधि निषेध के लिए कानूनी स्वीकृति की असप्रेक्षा सानवीय मूल्यों को अधिक महत्व दिया गया है। दया, ममता, परोपकार, क्षमा, अहिंसा इत्यादि का संबंध कानून की अपेक्षा सानवीय म्पूल्यों से ही अधिक है। निर्बल अणियों पर दया, किपत्ति में पड़े व्यक्ति की सहायता, उपकार इत्यादि को विशेष महत्व, दिया गया है ।

आआणी-ऊपकार को शॉकरदेव ने महत्‌ पुण्य --- कर्म माना है---

जगतर पुण्य म्साने जाना निश्ठ करि।

आणी ऊपकार अपल्पको नुछि सरि |

आणी-ऊपकारी के रूप में शंकरदेव ने वृक्ष का उदाहरण अस्तुत किया है कि जुधक्ष अपने हर अंग से केवल दूसरे का ही भला करता है।

नैतिक जीवन का महत्व अ्रतिपादित करते हुए सत्य, अहिंसा इत्यादि तत्वों को अपनाने के लिए कहा?

सामाजिक जीवन की स्वस्थता के लिए इन गुणों को अपनाना अति आवश्यक है :

सत्य : नाहि नाहि असान श्रर्म जाना सत्य बिना ।

अहिंसा : नकरे ञ्राणीक हिंसा नाहि एत्को स्पूह्ठा |

काम-क्रोध-अह का त्याग : एरिबे सदाय काम क्रोध्व अहंकार |

लेबेस एजड़ाइबे हात दुर्जमम स्मायार ॥।

4. सामाजिक समता की स्थापना

अज्ञानी या अधर्मी ब्राह्मणादि की अपेक्षा कृष्ण भक्त किरात, कछारी, चाण्डाल आदि उत्तम एवं पवित्र हैं। माधवदेव ने भी स्पष्ट कहा है कि जात, कुलाचार धर्म से कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होती है, किसी भी जात-सम्प्रदाय के लोग केवल भक्ति से ही उन्हें प्राप्त कर सकते हैं--

जाति कुलाचार धर्म ज्ञाने कृष्ण देवतार

नुहि अनुग्रहर कारण ।

किंतु भक्तिभावे अति भजोक अर्जात जाति

ताते से संतुष्ट नारायण ॥॥

शंकरदेव कहते हैं --- ““नबाधै भक्ति जाति अनजाति ।” (भक्ति कोई जात-पात का विचार नहीं करती है।)

इससे स्पष्ट होता है कि भक्ति के क्षेत्र में ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है। सामाजिक समता के लिए वैष्णव भक्त-कवियों की बुनियादी विचारधारा है कि सभी उस ईश्वर की संताने है, तब उनमें भेद-भाव क्‍यों रहेगा । जाति-पांति, ऊँच-नीच, ब्राह्मण-शूद्र के भेदभाव का शंकरदेव ने विरोध किया है ।

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