भारत में मानव अधिकार आंदोलन विभिन्न स्तरों पर चुनौतियों का सामना करते हैं। एक तरफ राजनीतिक और आर्थिक स्तर तथा दूसरी तरफ विशिष्टता एवं सांप्रदायिकता सभी स्तरों पर राज्य के अधिकार देखे जाते हैं। अधिकारों का मुख्य प्रबंध एक व्यक्ति के अनुकूल बनाया जाता है। अतः: यह आवश्यक है कि सामूहिक परिप्रेक्ष्य को इसमें शामिल किया जाए।
निश्चित उदारवादी एकल बाजार आधारित विचारधारा जो राज्य का इस प्रकार मार्गदर्शन करती है कि समाज को एकल और सजातीय श्रेणी का मानने के प्रयास बढ़ जाते हैं। यह समाज क्षेत्रीय, धार्मिक, मानव जाति, भाषा और सांस्कृतिक भिन्नताओं से परे होता है और इस प्रकार सार्वभौमिक निश्चित समाधान के प्रति उत्तरदायी होता है। कोठारी का कथन है कि चूँकि राज्य किसी विशिष्ट दावों को मान्यता नहीं देता इसलिए समूहों को धार्मिक दलबंदी और सांप्रदायिक रूपों में अपना विरोध दर्ज कराने के लिए विवश किया जाता है। मानव अधिकार समूहों को विश्व की दोहरी श्रेणियों से समझौता करने और मानव अधिकारों के समग्र उल्लंघनकर्ता के रूप में राज्य की भूमिका का निरंतर उजागर करने की आवश्यक़ता है। अधिकारों के प्रभावी प्रबंध व्यक्ति की ओर ले जाने में सहयोग करते हैं अथवा उसे तीक्नल्ा से-धकेलते हैं, इसलिए यह आवश्यक है कि समूह परिप्रेक्ष्य को सम्मिलित किया जाए। डी.एल. सेठ तर्क देते हैं कि अधिकारों की उदार तथा विधिक संकल्पना हाशिए पर पड़े लोगों की चिंता नहीं करती है या उसको उसमें सम्मिलित नहीं करती है अर्थात् जो लोग संगठित क्षेत्र से संबंधित नहीं हैं, उनको किसी भी प्रकार अधिकारों से दूर रखा जाता है। अधिकारों की भाषा को फिर से विस्तारित करने तथा राज्य के निर्धारणीकरण के सदर्भ में उसके अर्थ को पुनः खोज करने की अत्यंत आवश्यकता है।
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