एक अन्य मूल अवधारणा जिस पर दर्खाइम ने श्रम-विभाजन के अंतर्गत ध्यान केंद्रित किया, वे है - सामान्य अंतःकरण' या 'सामूहिक चेतना'| उनके अनुसार, यह सामूहिक चेतना ही समग्र समाज द्वारा धारित मान्यताओं, प्रथाओं एवं सामान्य मनोभाव का मुख्य भाग होती है और यही सामाजिक प्रयोजन प्रदान करती है और सामाजिक जीवन का संरचित करती है। सामूहिक चेतना नैतिक एयं मानसिक मनोभावों की किसी समरूपता से पहचानी जाती है। यह सामूहिक चेतना बैयक्तिक चेतना से भिन्न होती है। यह समग्र समाज में विसरित होती है। सामूहिक चेतना की भूमिका सामाजिक एकात्मकता कायम रखने में भी होती है और विभिन्न पीढ़ियों को परस्पर जोड़ने में भी। सामूहिक चेतना की विस्तृति, प्रबलता एवं एकरूपता जितनी अधिक होगी, उतना ही बेहतर लोगों का सामूहिक मान्यताओं एवं मनोभावों के प्रति लगाव होगा (मॉरिसन 1995)।
‘दर्खाइम’ सामूहिक चेतना का वर्णन किसी समाज के औसत सदस्यों की सामान्य मान्यताओं और मनोभावों के रूप में करते हैं। इन मान्यताओं एवं मनोभावों की व्यवस्था का अपना ही एक जीवन है। इसका पूरे समाज मे अस्तित्व बना हुआ है। इसका विशिष्ट स्वरूप है, जो इसे एक वास्तविकता प्रदान करता है। सामूहिक चेतना उन विशेष दशाओं से स्वतंत्र होती है जिनमें लोगों को रखा गया हो। यह किसी समाज के सम्पूर्ण क्षेत्र- बड़े और छोटे कस्बों एवं गाँवों में फैली होती है। यह सभी व्यवसायों या पेशों आदि में सर्वमान्य होती है। यह विभिन्न पीढ़ियों को एक-दूसरे से जोड़ती है। लोग समाज में आते हैं और चले जाते हैं जबकि सामूहिक चेतना निरंतर बनी रहती है। यद्यपि सामूहिक चेतना केवल व्यक्तियों द्वारा ही निर्मित होती है, इसकी सीमा व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं होती बल्कि उससे भी उच्च स्तर पर क्रियान्वित होती है।
“विस्तार एवं बल के अर्थ में, सामूहिक चेतना एक समाज से दूसरे में भिन्न होती है। अल्पविकसित समाजों में सामूहिक चेतना वैयक्तिक चेतना को अपने अन्दर ही समा लेती है। इस प्रकार के समाजों में सामूहिक चेतना का विस्तार स्पष्ट एवं सर्वव्यापी होता है। उदाहरणार्थ, आदिम समाजों में प्रचलित सामाजिक नियंत्रण और निषेध प्रत्येक सदस्य के ऊपर दृढ़तम रूप से आरोपित होते हैं, और सभी सदस्य इनका वर्चस्व मानते हैं। यह सामूहिक चेतना ही है जो व्यक्तियों के अस्तित्व को नियंत्रित करती है। परस्पर अनुभव की गई सामूहिक भावनाओं में बहुत अधिक ताकत होती है तथा निषेधों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों पर ये कठोर दण्ड के रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं। किसी समाज की सामूहिक चेतना जितनी दृढ़तर होगी उतना ही व्यापक अपराध के विरोध में या अन्य किसी सामाजिक आदेश के उल्लंघन पर आक्रोश होगा।” (ई एस ओ 13, खण्ड 3:41)
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