“दुख की श्रेणी में प्रवृत्ति के विचार से करुणा का उलटा क्रोध है। क्रोध जिसके प्रति उत्पन्न होती है उसकी हानि की चेष्टा की जाती है। करुणा जिसके प्रति उत्पन्न होता है उसकी भलाई का उद्योग किया जाता है। किसी पर प्रसन्न होकर भी लोग उसकी भलाई करते हैं। इस प्रकार पात्र की भलाई के उत्तेजना दुःख और आनंद दोनों ही श्रेणियों में रखी गई है।”
उत्तर – क्रोध या गुस्सा एक भावना है। दैहिक स्तर पर क्रोध करने/होने पर हृदय की गति बढ़ जाती है; रक्त चाप बढ़ जाता है। यह भय से उपज सकता है। भय व्यवहार में स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है जब व्यक्ति भय के कारण को रोकने की कोशिश करता है। क्रोध मानव के लिए हानिकारक है। क्रोध कायरता का चिह्न है।
सनकी आदमी को अधिक क्रोध आता है उसमे परिस्थितीयो का बोझ झेलने का साहस और धैर्य नही होता।क्रोध संतापयुक्त विकलता की दशा है। क्रोध मे व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता लुप्त हो जाती है और वह समाज की नजरो से गिर जाता है।क्रोध आने का प्रमुख कारण व्यक्तिगत या सामाजिक अवमानना है।
उपेक्षित तिरस्कृत और हेय समझे जाने वाले लोग अधिक क्रोध करते है। क्योंकि वे क्रोध जैसी नकारात्मक गतिविधी के द्वारा भी समाज को दिखाना चाहते है कि उनका भी अस्तित्व है।क्रोध का ध्येय किसी व्यक्ति विशेष या समाज से प्रेम की अपेक्षा करना भी होता है।
क्रोध प्रकट करने से पहले: कार्यालय में तनाव अधिक होना धैर्य क्षमता को कम करता है। जब आपके काम का श्रेय कोई और ले लेता है अथवा आपके काम पर प्रश्न उठाता है तो क्रोध के लक्षण उभरने लगते हैं। पर इससे पहले कि क्रोध हम पर हावी हो जाए हमें इसका प्रबंध करना जरूरी हो जाता है।
हमें क्रोध के मूल कारण को जानने और समझने की जरूरत है। आप संबंधित व्यक्ति से बातचौत कर सकते हैं अथवा सीनियर के साथ मीटिंग भी कर सकते हैं। सीनियर द्वारा आपके काम पर प्रश्न बदला लेने के लिए तत्पर न रहें।धैर्य मानव का सबसे बड़ा गुण है। गलती मानवीय स्वभाव है, हमेशा सटीक होना सम्भव नहीं है।
गुस्सा एक ऐसी अवस्था है जिसमें विचार तो आतें हैं लेकिन भाव अपनी प्रधानता पर होते हैं और सामने वाला कौन है? हमारा उससे कया सबंध है? हमें उससे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? आदि विचार लुप्त हो जाते हैं!
वास्तविकता यह है कि जब हमें गुस्सा आता है तो हम ज्यादा दूर तक नहीं सोच पाते बल्कि उससे होने वाले परिणाम के बारे में भी नहीं सोच पाते । बस दिमाग में रहता है तो वो है गुस्सा, गुस्सा, और गुस्सा। आपका दिमाग तभी संतुलित होकर सोच सकता है जब आप आपके अन्दर किसी भाव की अधिकता न हो । आपने देखा होगा कि जब हम बहुत खुश रहते हैं तबभी हम सही से नहीं सोच पाते । जब कोई भाव हमारे ऊपर पूरी तरह से हावी होता है तो सबसे ज्यादा हमारी "सोचने की क्षमता" प्रभावित होती है ।
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