गाँधीवाद महात्मा गाँधी के आदर्शों, विश्वासों एवं दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को कहा जाता है, जो स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेताओं में से थे। यह ऐसे उन सभी विचारों का एक समेकित रूप है जो गाँधीजी ने जीवन पर्यत जिया था। गाँधीवाद के बुनियादी तत्वों में से सत्य सर्वोपरि है;। वे मानते थे कि सत्य ही किसी भी राजनैतिक संस्था, सामाजिक संस्थान इत्यादि की धुरी होनी चाहिए। वे अपने किसी भी. राजनैतिक निर्णय को लेने से पहले सच्चाई के सिद्धांतो का पालन अवश्य करते थे।
गाँधी जी का कहना था “मेरे पास दुनियावालों को सिखाने के लिए कुछ भी नया नहीं है। सत्य एवं अहिंसा तो दुनिया मैं उतने ही पुराने हैं जितने हमारे पर्वत हैं।” सत्य, अहिंसा, मानवीय स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय पर उनकी निष्ठा को उनकी निजी जिंदगी के उदाहरणों से बखूबी समझा जा सकता है।
कहा जाता है कि सत्य की व्याख्या अक्सर वस्तुनिष्ठ नहीं होती। गाँधीवाद के. अनुसार सत्य के पालन को अक्षरशः नहीं बल्कि आत्मिक सत्य को मानने की सलाह दी गई है। यदि कोई ईमानदारीपूर्वक मानता है कि अहिंसा आवश्यक है तो उसे सत्य की रक्षा के रूप में भी इसे स्वीकार करना चाहिए। जब गाँधी जी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान स्वदेश लॉटे थे तो उन्होंने कहा था कि वे शायद युद्ध में ब्रिटिशों की ओर से भाग लेने में कोई बुराई नहीं मानते।
गाँधी जी के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा होते हुए भारतीयों के लिए समान अधिकार की मॉग करना और साम्राज्य की सुरक्षा में अपनी भागीदारी न निभाना उचित नहीं होता। वहीं दूसरी तरफ दूवतीय विश्वयुद्ध के समय जापान द्वारा भारत की सीमा के निकट पहुँच जाने पर गाँधी जी ने युद्ध में भाग लेने को उचित नहीं माना बल्कि वहाँ अहिंसा का सहारा लेने की वकालत की है।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में भी किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के दवारा भी पीड़ा न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था मैं, किसी भी प्राणी का कोई नुकसान न करना।
गाँधीजी के अनुसार धर्म और राजनीति को अलग नही किया जा सकता है क्योंकि धर्म मनुष्य को सदाचारी बनने के लिए प्रेरित करता है । स्वधर्म सबका अपना अपना होता है पर धर्म मनुष्य को नैतिक बनाता है । सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, परदुःखकातरता,दूसरों की सहायता करना आदी यही सभी धर्म सिखाते हैं ।
इन मूल्यों को अपनाने से ही राजनीति सेवा भाव से की जा सकेगी । गाँधीजी आडम्बर को धर्म नही मानते और जोर देकर कहते हैं कि मन्दिर मे बैठे भगवान मेरे राम नही है । स्वामी विवेकानंदजी के दरिद्र नारायण की संकल्पना को अपनाते हुए मानव सेवा को ही वो सच्चा धर्म मानते हैं । वास्तव मे उनका विश्वास है कि प्रत्येक प्राणी इश्वर की सन्तान हैं और ये सत्य है; सत्य ही ईश्वर है।
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