गाँव में सामाजिकता पर गौर करें तो पाते हैं कि किसी भी कार्य में मदद लेने और देने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। जैसे “ सामुदायिकता की भावना” आदिवासी समाज की सबसे बड़ी विशेषता है और यह इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पहलुओं के तार से भी जुडी हुई है। परन्तु आज के पैसा-बाजार प्रतियोगिता पूर्ण युग में में इसका फैलाव, विकास की प्रक्रिया में सुसंगठित होकर नहीं किया गया। इसके बावजूद सामुदायिकता गरीब व सामाजिक तौर से पिछड़े वर्गों में आज भी किसी- न-किसी रूप में विद्यमान है।
स्वयं सहायता समूह का इतिहास देखने पर यह पता चलता है कि मुख्य रूप से इसकी शुरुआत देश की प्रतिष्ठित स्वैछिक संस्थाएं जैसे सेल्फ एम्पलाइड वीमेन एशोसिएशन, (SEWA) अहमदाबाद, मयराडा, बंगलौर आदि के माध्यम से हुई थी। मयराडा, बंगलौर के इतिहास को देखा जाये तो इस संस्था ने वर्ष 1968 से ही सामाजिक कार्य के प्रति अपनी भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। शुरुआत में मयराडा ने मुख्य रूप से चीन युद्ध के पश्चात् तिब्बत से आये तिब्बतियों को पुनर्स्थापित करने का कार्य शुरू किया। दूसरे दौर में इस प्रकार वर्ष 2000 तक लाखों लोगों को सुविधाएँ देकर उनके जीवन स्तर को उठाने का लक्ष्य बनाया।
उपयुक्त कार्यक्रम में स्वयं सहायता के सन्दर्भ में मुख्य रूप से मयराडा ने निम्न मुद्दों पर विशेष जोर दिया। जैसे_
• सामुदायिक क्रियाशील समूह के माध्यम से ग्रामीण शाख पद्धति।
• महिलाओं को संगठित करना जिससे स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा दिया जा सके।
गाँव में कुल आबादी का 75% से भो अधिक आबादी का प्रमुख आधार खेती है। ऐसे ग्रामीणों की अनेक समस्याएं हैं। पहली यह कि खेती के अतिरिक्त अन्य आय का साधन इनके पास नहीं होते हैं। दूसरा यह कि खेती में 5 से 6 माह तक काम मिलता है, इसलिए बचे समय में ग्रामीणों को आय के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है और आवश्यकता पड़ने पर इन्हें अपनी जमीन व गहनों को गिरवी रखनी पड़ती है, और परिस्थिति से मजबूर होकर इसे छुड़ा भी नहीं पाते हैं। इसी बीच यदि अन्य समस्याएं (बीमारी, मृत्यु. पर्व, शादी) आ जायें तो बंधक रखने की सीमाएं बढ़ जाती हैं। बैंक शाखाओं की वृहद नेटवर्क होते हुए भी ग्रामीणों की पहुँच वहाँ तक नीं हैं। चूँकि निर्धनों की जरूरतें छोटे ऋणों से सम्बन्धित होती हो, साथ ही साथ उनकी आवश्यकताएँ उपयोग और उत्पादन दोनों उद्देश्यों से जुड़ी है, बैंक वाले इसे खतरा मानते हैं और उधार देने से हिचकते हैं।
इस संकट स उभरने के लिए एक अकेला व्यक्ति तो सम्भवतः कुछ नहीं कर सकता है। परन्तु कुछ लोग मिलकर अपनी छोटी आय से थोड़ी-थोड़ी बचत करते-करते एक पूजी जमा कर सकते है। इसी पूंजी से वे एक दूसरे की मदद करते हैं और इसका उपयोग करके धीरे-धीरे जमीन छुडाते हैं। स्पष्टतः इस प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है। परन्तु स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से कुछ हद तक अपनी समस्याओं का समाधान करते हैं।
स्वयं सहायता समूह समान सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि वाले 10-20 सदस्यों का एक स्वैछिक समूह है जो-:
• नियमित रूप से अपनी आमदनी से थोड़ी-थोड़ी बचत करते हैं।
• व्यक्तिगत राशि को सामूहिक विधि में योगदान के लिए परस्पर सहमत रहते हैं।
• सामूहिक निर्णय लेते हैं।
• सामूहिक नेतृत्व के द्वारा आपसी मतभेद का समाधान करते हैं।
• समूह द्वारा तय किये गए नियमों एवं शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराते हैं।
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