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'सिलिया' कहानी में अभिव्यक्त दलित नारी चेतना का मूल्यांकन कीजिए।

'सिलिया' मुख्यतः: वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था की पृष्ठभूमि से उपजी अस्पृश्यता की एक प्रकार की दारूण वेदना की कहानी के साथ-साथ दलित विवशताओं के बीच नारी चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसमें उसके दुःख, यातना, पीड़ा, आस्था तथा आकांक्षा के साथ ही विद्रोह की आग भी विद्यमान है, अर्थात यह कहानी वास्तविक अथथों में दलित जीवन के आवेगपूर्ण अनुभवों की सच्ची अभिव्यक्ति है। सुशीला टाकभौरे दलित महिला पर लिखित अपनी एक कविता में कहती हैं- “तुम्हें क्‍यों शर्म नहीं आई? आग का दरिया बन जायेगी/उसके तेवर पहचानो/संभालो पुराने जेवर। थान के थान परिधान/नंगेपन पर उतरकर/पुरुष के सर्वस्व को नकार कर/नीचा दिखायेगी।

इसी तेवर की पहचान 'सिलिया' कहानी में बार-बार सिलिया को करनी पड़ती है। इसी के आधार पर सिलिया विचार करती है-“फिर दूसरों की दया पर सम्मान? अपने निजत्व को खोकर दूसरे की शतरंज का मोहरा बन जाना, बैसाखियों पर चलते हुए जीना नहीं, कभी नहीं।””

सिलिया के अंदर व्याप्त यह आक्रोश जाति व्यवस्था के साथ ही पुरुष मानसिकता पर भी एक प्रकार का कुठाराघात है। वस्तुत: यह पूरी कहानी की समाज व्यवस्था के प्रत्येक तन्तुओं को झकझोरती हुई। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को एक साथ ही कटघरे में खड़ा करके धर्म और आस्था को प्रश्नांकित भी करती है और इन्हीं समस्त दग्ध-भावों तथा चेतना की उपज है-सिलिया का आत्मस्वाभिमान। जहां वह सोचतीहैं-““क्या हम इतने लाचार हैं, आत्मसम्मान रहित हैं, हमारा अपना भी तो कोई अहं भाव है। उन्हें हमारी जरूरत है हमको उनकी जरूरत नहीं । हम उनके भरोसे क्‍यों रहें?”

“सिलिया' कहानी में नारी चेतना का यह प्रश्न कुछ अधिक ही सूक्ष्मतर रूप में उलझा हुआ प्रतीत होता है, जिसके कथासूत्रों की पेचीदगियों की वाक्य संरचनाओं के माध्यम से सुशीला टाकभौरे ने अत्यधिक संश्लिष्टता के साथ पिरोया है। सिलिया बार-बार पढ़-लिखकर बड़े होने की बात करती है तथा इसी के आधार पर आत्मनिर्भर होकर आत्मसम्मान से जीना भी चाहती है। यथा- “पढ़ाई करूंगी, पढ़ती रहूँगी, शिक्षा के साथ अपने व्यक्तित्व को भी बड़ा बनाऊँगी।”” वास्तव में यह आत्मनिर्भरता जितनी दलित विमर्श में है, प्राय: उतनी ही स्त्री विमर्श में भी विद्यमान है। वेदना, नकार और विद्रोह भावना आदि दलित विमर्श के साथ-साथ ही स्त्री चेतना की भी आत्मा है। कहानी में अन्तिम पड़ाव पर सिलिया द्वारा शादी न करने की घोषणा पाठकों का ध्यान बरबस ही आकर्षित करती है। जब वह कहती है-““विधा, बुद्धि और विवेक से अपने आपको ऊँचा सिद्ध करके रहँगी। किसी के सामने झुकूंगी नहीं। न ही अपमान सहूँगी।”' वस्तुत: यह दलित चिन्तन का एक प्रकार का आवेगपूर्ण आख्यान है, किन्तु जब आगे वह कहती है-““मैं शादी कभी नहीं करूँगी'” तब यह आक्रोश नारी चेतना से भी उसी रूप में जुड़ जाता है और विद्रोह की आग को और भी ज्यादा भड़काता है। यह केवल सिलिया की घोषणा बनकर सम्पूर्ण नारी मात्र की घोषणा बन जाती है।

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