जनोन्मुखी इतिहास उसे कहते हैं, जो आम जनता को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखा गया है। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही इसकी शुरुआत हो चुकी थी। शास्त्रीय पश्चिमी परम्परा में इतिहास-लेखन महान व्यक्तियों का गुणगान होता था। इतिहास की परिधि में आम लोगों को नहीं रखा गया था तथा इसके विषय में कलम उठाना इतिहासकारों को अपनी बेइज्जती जैसा लगता था। पीटर बक्र का इतिहास-लेखन के संदर्भ में यह कहना है कि यूरोपीय भाषा में समाज शब्द अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक अपना आधुनिक अर्थ प्राप्त नहीं कर सका था और आज हम जिसे समाज या सामूहिक ढाँचा कहते हैं उन सम्बन्धों और सम्बन्धों के फैलाव को और उसकी अवधारणा को इनके बिना समझना मुश्किल है।
भारत में जनोन्मुखी इतिहास-लेखन एक प्रमुख समस्या रही है। जो कुछ भी निम्न वर्ग के विषय में लिखा मिलता है, वह अधिकांश समाज के दूसरे स्तर के व्यक्तियों द्वारा लिखा गया है। उन विकसित देशों में भी प्रासंगिक स्नोत की समस्या हे। जहाँ मजदूर वर्ग अपेक्षाकृत अधिक संख्या में साक्षर थे, वहाँ भी किसानों तथा पूर्व-औद्योगिक समूहों से सम्बन्धित स्रोत शासकों द्वारा ही तैयार किए गए थे। भारत में आम जनता, जिसमेंऔद्योगिक मजदूर वर्ग भी शामिल थे पर शिक्षित नहीं थे। इसी कारण प्रत्यक्ष स्रोत मुश्किल से ही उपलब्ध थे, इतिहासकार इस स्थिति में अप्रत्यक्ष स्रोतों के आधार पर जनोन्मुखी इतिहास लिखने की कोशिश करते हैं। सब्यसाची भट्टाचार्य के अनुसार साक्षरता के अभाव के परिणामस्वरूप उनके आचरण और व्यवहार, विचार और भावना संबंधी सूचनाओं जो कि पूरा मेल नहीं खाते थे, भौतिक प्रमाणों जिसका सर्वोत्तम रूप अदालतों की कार्यवाइयों से जुड़े दस्तावेजों में उपलब्ध है, आदि के आधार पर अधिक निर्भर रहना होता है तथा उन्हीं से निष्कर्ष निकालना होता है। मौखिक परम्पराओं की भी अपनी समसस््याएँ हैं तथा उन्हें भी बहुत हद तक नहीं खींचा जा सकता तथा स्मृतियों पर बहुत भरोसा भी नहीं किया जा सकता। जनोन्मुखी इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों में अग्रणी रंजीत गुहा ने इन्हीं समस्याओं का हवाला देते हुए कहा है कि जिसके विषय में विस्तारपूर्वक अध्ययन किया गया है। गुहा की अपनी पुस्तक 'एलेमेंट्री आसपेक्ट्स ऑफ पीजेन्ट इनसरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया' (1983 ) में यह लिखा गया है कि ये दस्तावेज अधिकांश रूप में संभ्रांत लोगों द्वारा तैयार किए गए हैं, जिनकी सहायता से इतिहासकार किसी कृषक आन्दोलन के पीछे छिपी ऐसी मानसिकता को समझाने का प्रयास करते हैं।
सभी तो नहीं लेकिन अधिकांश दस्तावेज संभ्रांत लोगों के द्वारा तैयार किए गए हैं। सरकारी दस्तावेजों के रूप में यह हमें उपलब्ध है जैसे कि पुलिस रिपोर्ट, सेना की चिट्ठी-पत्री, प्रशासनिक लेखा, सरकारी विभागों के कार्यवृत्त और उद्घोषणाएँ आदि। इस विषय के सम्बन्ध में हमारे पास सूचना के जो गैर सरकारी स्रोत हैं, जैसे-अखबार या शासनाधिकारी के बीच निजी पत्र व्यवहार भी संभ्रांत की मानसिकता और भाषा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। शासक वर्ग देशी हो या गैर भारतीय इससे बहुत अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।
इन संभ्रांतीय पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए लोक परम्पराओं के उपयोग की बात की जाती है, लेकिन गुहा के अनुसार हमारे उद्देश्य को पूरा करने के लिए लोक परम्पराएँ भी पर्याप्त मात्रा में क्या गुणात्मक रूप में उपलब्ध नहीं हैं। इसके अतिरिक्त कृषक आन्दोलन के विषय में जो लोक कथाएँ प्रचलित हैं उनमें भी संश्रांतीय पूर्वाग्रह देखने को मिलता है। गुहा का यह सुझाव है कि आन्दोलनकारियों की चेतना को पकड़ने के लिए इन्हें पैनी निगाहों से देखना आवश्यक है। प्रमाणों की छानबीन में ही बहुत सावधानी की आवश्यकता है तथा उसमें विद्रोही चेतना तथा तत्त्व को सावधानी से खोजने की आवश्यकता है।
सुमित सरकार की यह मान्यता है कि प्रमाणों की अनुपलब्धता के कारण और भी गहरे हैं। निम्न वर्गों के हाशिए पर चले जाने की बात करते हुए वे कहते हैं कि “ औपनिवेशिक भारत में अपेक्षाकृत जनान्दोलनों की तीव्रता में कभी जनोन्मुखी इतिहास के न लिखे जा पाने की सबसे बड़ी वजह थी, यह स्थापित करना भी ठीक नहीं होगा कि भारतीय किसान निष्क्रिय नहीं थे तथा वे लगातार आन्दोलन तथा विरोध करते आ रहे थे” कहने का तात्पर्य यह कि निम्नवर्ग ज्यादातर समय अधीनता के शिकंजे में जकड़े रहे। भयंकर गरीबी और लगातार उकसाए जाने के बावजूद उनका निष्क्रिय रहना अजूबा लगता है। राजनीतिक रूप से सक्रिय होने के बावजूद अन्तत: सामाजिक रूप से उच्च लोगों के अधीन रहना ही उनकी नियति बनी।
भारतीय जनता का इतिहास लिखने में इतिहासकारों को इन बाधाओं का सामना करना पड़ा। बैरिंगटन मूर जूनियर के द्वारा 'सोशल ऑरिजिन्स ऑफ डिक्टेटरशिप एंड डेमोक्रेसी' (1967) लिखा गया, जिसमें किसान आन्दोलन का इतिहास उल्लेखित है तथा इसमें भारतीय किसानों के विषय में भी चर्चा की गई है। मूर की मान्यता है कि भारतीय कृषक वर्ग में राजनीतिक चेतना का अभाव था तथा वे अपनी गरीबी और शोषण के बाद भी तुलनात्मक रूप से दब्बू तथा विनयशील थे। इसी कारण भारत में किसान विद्रोह अपेक्षाकृत कम पाए जाते हैं बावजूद इसके कि आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप लगभग चीन की ही तरह किसान लगातार गरीब होते चले गए। अनेक इतिहासकारों ने भारतीय किसान के विषय में इस दृष्टिकोण को मानने से इंकार कर दिया। कैथलीन गफ का मानना है कि छोटे-छोटे आन्दोलन में हजारों किसानों की या तो सक्रियता होती थी या लड़ाई लड़ते थे, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 1857-58 का भारतीय गदर है, जिसमें किसानों की बहुत बड़ी संख्या ने लड़ाई लड़ी तथा 5,00,000 वर्ग मील में अंग्रेजी शासन का नामोनिशान मिटा दिया। रंजीत गुहा के द्वारा भी उनकी अपनी पुस्तकों में लिखा गया है कि इस तरह के 117 वर्षो में 110 से ज्यादा किसान विद्रोहों के उदाहरण मिलते हैं, जो रंगपुर धिंग से लकर बिरसा के विद्रोह तक फैले हुए थे। ए.आर. देसाई के द्वारा भी भारतीय किसान के दब्बूपन संबंधी दृष्टिकोण का विरोध किया गया है तथा वे कहते हैं कि संपूर्ण अंग्रेजी युग में और उसके बाद भारतीय ग्रामीण परिदृश्य पर विरोध और विद्रोह छाए रहे तथा हजारों गाँवों में बड़े पैमाने पर उग्रवादी संघर्ष जारी रहा, जो वर्षों तक चला। अत: यह स्पष्ट है कि कम-से-कम अंग्रेजी राज में भारतीय किसानों की निष्क्रियता एक भ्रम है तथा इस भ्रम को दूर करने के लिए अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं।
'पच्चीस वर्ष पहले तक भारतीय श्रमिकों का इतिहास मजदूर संघ के इतिहास का ही एक अंग था। 1982 में लिखते हुए सब्यसाची भट्टाचार्य के द्वारा टिप्पणी कौ गई थी कि अभी तक हमारे श्रम इतिहास से सम्बन्धित सबसे अधिक किताबें मजदूर आन्दोलन पर लिखी गई हैं। इसके अतिरिक्त मजदूरों को एक आर्थिक इकाई के रूप में देखा गया, जिसमें उनके सामाजिक सांस्कृतिक अस्तित्व को शामिल नहीं किया गया है। 1980 के दशक के बाद से इस स्थिति में परिवर्तन होने लगा। इस सत्र में कई अध्ययन किए गए, जिसमें मजदूर वर्ग के इतिहास में व्याप्त परिप्रेक्ष्य में देखा गया। यह सही है कि मजदूर संघ मजदूर वर्ग की गतिविधियों को एक बहुत ही संगठित रूप में प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन मजदूर संघ मजदूरों के संगठित होने का मात्र एक रूप है। दूसरी ओर मजदूर आन्दोलन एक व्यापक मंच प्रदान करता है तथा इसमें हर प्रकार के मजदूरों की लामबंदी की बात शामिल होती है। हाल के अध्ययनों से यह भी पता चला है कि केवल आर्थिक प्रेरणा ही मजदूर वर्ग के कार्यों का एकमात्र निर्धारक तत्त्व नहीं है। मजदूर वर्ग तथा इसके आन्दोलनों का निर्माण विभिन्न स्रोतों से होता है, जिसमें सांस्कृतिक , सामाजिक और राजनीतिक पक्ष आर्थिक पक्ष की तरह ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। तीसरी बात यह है कि मजदूरों का अध्ययन करते वक्त मुख्य रूप से औद्योगिक मजदूरों का ही अध्ययन किया जाता है, जो कि सम्पूर्ण मजदूर वर्ग का एक छोटा सा हिस्सा है। ग्रामीण मजदूर वर्ग, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले शहरी मजदूर और सेवा क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर भी मजदूर ही होते हैं। इसके अतिरिक्त मजदूरों, नियोक््ताओं , सार्वजनिक कार्यकर्ताओं और सरकारी अधिकारियों से संबंधित समस्याएँ, दृष्टिकोण, विचार और व्यवहार तथा जेंडर (स्त्री-पुरुष) संबंधित सवाल भी सामने आ रहे हैं। इस बदलते परिदृश्य के विषय में भी अनेक लोगों के द्वारा अध्ययन किया गया है।
अनेक विद्वानों ने जनजातीय आन्दोलनों को किसान आन्दोलन का ही हिस्सा माना है। इसका कारण यह है कि कई वर्षों तक कबीलाई समाज और अर्थव्यवस्था को किसानों और कबीलों के कृषीय समस्याओं को किसानों की समस्या के रूप में ही देखा जाता रहा है। कैथलीन गफ.ए.आर. देसाई और रंजीत गुहा ने जनजातीय आन्दोलनों पर इसी ढंग से विचार किया है। इसके अतिरिक्त घनश्याम शाह, अशोक उपाध्याय और जगन्नाथ पाथी जैस कई दिद्वानों ने कबीलाई समाज और अर्थव्यवस्था में होने वाले उन परिवर्तनों की ओर इशारा किया, जिसने उन्हें गैर जनजातीय किसानों की दिशा में धकेल दिया है, लेकिन इस वर्ग के एक प्रमुख विद्वान के.एन. सिंह का मानना है कि यह दृष्टि ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें जनजातीय सामाजिक संघटन की विविधताओं को नजरअंदाज किया जाता है, जो जनजातीय आन्दोलन के अभिन्न आंग हैं। इनका एक सांस्कृतिक पक्ष है। सिंह कबीलाइयों की आर्थिक मांग की अपेक्षा उनके सामाजिक संगठन पर विशेष बल देते हैं। उनकी मान्यता है कि एक ओर जहाँ किसान जमीन आन्दोलन पूर्णत: कृषीय था, क्योंकि किसान जमीन से अनाज उगाकर ही अपना जीवनयापन करता था जबकि जनजातीय आन्दोलन का संबंध कृषि से भी था और जंग से भी क्योंकि जंगल पर आश्रित रहकर ही वे जमीन से जुड़े रह सकते थे। इसका एक जातीय पक्ष भी था। कबीलों ने जमींदारों, महाजनों और छोटे सरकारी अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह इसलिए नहीं किया कि वे उनका शोषण किया करते थे बल्कि इसलिए कि वे उनके लिए परदेसी थे।
इस दृष्टिकोण के विपरीत विद्वानों ने जनजाति वर्गीकरण पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है। जैसे कि सूसन देवले ने अपनी पुस्तक 'डिसकोर्सेस ऑफ एथनिसिटी : कल्चर एंड प्रोटेस्ट इन झारखंड” (1992) में यह लिखा कि जनजाति श्रेणी भारत में यूरोपीय विद्वानों और औपनिवेशिक अधिकारियों की भारतीय यथार्थ को समझने के लिए बनाई हुई है। आंद्रे बेते का भी मानना है कि कबीलों और किसानों में कई प्रकार की समानताएँ हैं इसलिए उन्हें दो अलग-अलग संरचनात्मक प्रकारों के रूप में नहीं देखना चाहिए। लेकिन यह सच है कि बीसवीं शताब्दी तक जनजातीय समाजों के एक बड़े हिस्से की कुछ खास विशिष्टताएँ थीं, जो उन्हें मुख्य धारा के किसान समाजों से अलग करती थीं। पहली बात यह कि किसानों की अपेक्षा जनजातीय समाजों में सामाजिक और आर्थिक विभेद कम थे। दूसरे, वन पर कबीलों की निर्भरता भी किसानों से उन्हें अलग करती थी जिनका जीवनयापन जमीन से जुड़ा था। तीसरे, जनजातीय सामाजिक संगठन और कबीलों के एक खास इलाके में संक्रेन्द्रित रहने के कारण वे अन्य समुदायों और समाजों से कट जाते हैं और अलग-अलग रहते हैं। इन कारणों से वे औपनिवेशिक शासन में लाए गए परिवर्तनों से अपेक्षाकृत ज्यादा भड़क उठे और उन्होंने विद्रोह किया और उनके विद्रोह में उग्रता की मात्रा अधिक थी।
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