व्यापारिक प्रक्रियाओं के विस्तार का विश्लेषण हम दो मुख्य अंगों के मध्य कर सकते हैं-(i) साझेदारी (ii) दलाली।
(i) साझेदारी-यदि हम यह विचार करें कि किसी व्यापार को चलाने में किन-किन संसाधनों की जरूरत पड़ती है, तो पूँजी और श्रम सबसे पहले सामने आते हैं, क्योंकि ये दोनों ही वे चीजें हैं, जो किसी व्यापार को चलाने के लिए सबसे जरूरी हैं। यदि किसी व्यक्ति के पास ये दोनों उपलब्ध हैं, तो कोई भी व्यक्ति अपना व्यापार चला सकता है। व्यापार चलाने के लिए पूँजी रीढ़ का काम करती है और व्यापार को आगे बढ़ाने में व उसके विकास में भी पूँजी की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। कुछ व्यक्तियों के पास पर्याप्त धन होता है। वे अपना व्यापार शुरू कर सकते हैं और जिन व्यक्तियों के पास पर्याप्त धन नहीं होता, तो वे किसी दूसरे व्यक्ति या अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलकर व्यापार शुरू कर सकते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि साझेदारी एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें दो या दो से अधिक पक्ष अपनी श्रम दक्षता और पूँजी एक साथ मिला लें, साझेदारी कहलाती है। साझेदारी एक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक प्रक्रिया है। मध्यकालीन भारत में साझेदारी का एक फायदा यह समझा जाता था कि इससे जोखिम और लाभ दोनों बँट जाते थे। साझेदारी से एक लाभ यह होता है कि इसमें जिस व्यक्ति के पास कम पैसा होता था या अन्य व्यक्ति के साथ मिलकर पैसा मिलाकर कम पैसे में अधिक बड़ा व्यापार दोनों व्यक्ति कर सकते थे। साझेदारी समाज के विभिन्न वर्गों, छोटे-छोटे व्यापारियों के मध्य संयुक्त परिवार के मध्य ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे साझेदारी का पता चलता है। व्यावसायिक कम्पनियाँ या समूह दूसरों से संपर्क साझेदारी के लिए नहीं, बल्कि फैक्टर या एजेंट बनाने के लिए करते थे। ये फैक्टर स्वतंत्र रूप से अपना व्यापार करते रहते थे और अपने मालिकों के आदेश का भी पालन करते थे। उनकी माँगों की पूर्ति करते थे, जिससे इन्हें कमीशन मिलता था और लाभ में हिस्सा भी।
(ii) दलाली-जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होता जाता है, व्यापार में पारदर्शिता कम होती जाती है और प्रतिस्पर्धा बढ़ती चलती जाती है। व्यापारी अपना व्यापार बढ़ाने के लिए होड़ करने लगते हैं। व्यापारी एक-दूसरे से व्यापार में आगे निकलना चाहते हैं। ऐसे समय में व्यापारियों को जरूरत होती है एक दलाल की, जिसका लाभ समय और दूरी की बचत होता है। दलाली प्रथा इतनी महत्त्वपूर्ण होती है कि व्यापारिक जगत की इसके बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। मध्यकालीन भारतीय व्यापार में दलालों की सहायता से व्यापार चलाना एक आम बात थी। ये दलाल सभी वाणिज्यिक केन्द्रों पर होते थे और इन दलालों में जो मुख्य रूप से दलालों का काम निपटाते थे, वे थे बनिया। यह अपने गुणों के कारण मध्यकालीन व्यापार में छाया रहा। दलालों के रूप में पारसी व मुसलमान होते थे। बड़े व्यापारी अक्सर इनकी सेवा लिया करते थे। ये वस्तु विशेष का सौदा करते व उसे जहाज में भिजवाते थे, जिससे व्यापारियों को समय और दूरी दोनों कौ बचत हो जाती थी। विदेशी व्यापारी भी दलाल रखते थे।
दलालों का धन्धा एक कम्पनी के रूप में चलता था, जिसे पारिवारिक कम्पनी कहना ज्यादा सही होगा, क्योंकि ये लोग अपने हिसाब-किताब को एक बुजुर्ग के हाथ में रखते थे, जो इनके पैसों का हिसाब-किताब रखता था। हर रोज शाम को सभी काम करने वाले सदस्य अपने पैसों का हिसाब-किताब देने के साथ-साथ व्यापार पर चर्चा करते थे। दलालों को अच्छी आमदनी हो जाती थी क्योंकि ये दोनों ओर से कमीशन लेते थे, जो माल बेचता था, उससे भी और जो माल खरीदता था, उससे भी। इनकी कमीशन की दर निश्चित नहीं होती थी। यह सौदे के अनुसार घटायी व बढ़ाई जा सकती थी। यदि सौदा जटिल होता था, तो ज्यादा कमीशन लिया जाता था। दलालों का धन्धा गोपनीयता का होता था व लेने व बेचने वालों से ये सांकेतिक भाषा में बात करते थे।
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