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हड़प्पा युगीन बस्तियों में समाजों के स्वरूप की चर्चा कीजिए।

सरदारी समाजों में सगोत्रीय नातेदारी से सामाजिक और आर्थिक सम्बन्ध निश्चित होते थे। इसके विपरीत राज्य समाजों में ऐसी नातेदारी से पृथक्‌ सम्बन्धों की स्थापना करना आवश्यक होता था। ये सम्बन्ध निम्न प्रकार स्थापित किए जाते थे-

(i) उपहार देकर

(ii) वैवाहिक गठबन्धन और

(iii) संरक्षक-ग्राहक सम्बन्ध बनाकर

इस प्रकार राजनीतिक उद्देश्यों को सिद्ध किया जा सकता था और समुदायों का समावेश किया जा सकता था।

स्पष्टतया, शहरी स्थिति में एकजुटता नातेदारी पर निर्भर न होकर एक साझा आवासीय स्वरूप पर और परस्पर निर्भर होती है तथापि समाज में सगोत्रीय समूहों की निरन्तरता को अस्वीकार नहीं कर सकते। यह कांस्ययुगीन मेसोपोटामिया और चीन से स्पष्ट है-

(i) संसाधनों का संयुक्त स्वामित्व चलता रहा होगा और

(ii) श्रम की लामबंदी भी सगोत्रीय नातेदारी के आधार पर रही होगी।

स्पष्टतया वहाँ पर्याप्त रूप से सामाजिक विषमजातीयता रही होगी, विशेषकर उस समय जब जनसंख्या आकेन्द्रित होकर शहरी केन्द्रों का रूप ले लेती होगी।

सामाजिक विषमजातीयता-पुरातत्व के दृष्टिकोण से सामाजिक विषमजातीयता की पहचान अनेक तरीकों से हो सकती है-

प्रथम, हड्प्पा की कुछ बस्तियों में गढ़ और लोअर टाऊन में मध्य दृष्टिगोचर होने वाली पृथक्‌ता से एक बस्ती के भीतर कार्य के आधार पर भिन्‍नता के साथ-साथ सामाजिक पृथक्‌ता का भी संकेत मिलता है। मोहनजोदड़ों कौ योजना में मकानों के रूप और आकार की विविधता मिलती है। चाहे आकारों की विविधता से आर्थिक भिन्‍नताओं का संकेत न मिले पर इनसे कुटुम्ब अथवा परिवार की इकाइयों के सम्बन्ध में पता चल सकता है, जिस तक प्रवेश द्वार से तुरंत पहुँचा जा सकता था। इससे आँगन की और आंतरिक कक्षों की निजता सुनिश्चित होती थी तथापि यह अधिक स्पष्ट नहीं है कि सामाजिक दृष्टि से विषमजातीय एक जनसंख्या को ऐसी निजता की आवश्यकता भी थी।

1. इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि समाज में व्यवसायगत विभेद था।

2. कुछ कौशलों को विशेषकर शिल्प में प्रोत्साहन दिया जाता रहा होगा तथापि इसका यह अर्थ नहीं है कि ये पूर्णकालिक व्यवसाय रहे होंगे। यह मानने कौ आवश्यकता नहीं है कि विशेषज्ञ व्यक्ति भरण-पोषण की प्राप्ति की गतिविधियों में नहीं लगते

3. हस्तनिर्मित वस्तुओं के प्रकार तथा सामग्री से उपभोग के स्वरूपों की भिन्‍नता का संकेत मिल सकता है, जैसे-

(i) पक्‍की मिट्टी अथवा फायन्स की तकुआ चक्री,

(ii) पक्की मिट्टी अथवा काँसे के बर्तन,

(iii) मिट्टी के मनके और चूड़ियाँ,

(iv) पत्थर, हड्डी, शंख-सीपी, फायन्स, धातु इत्यादि।

4. आवास के आकार और संपदा वाली वस्तुओं के मध्य कोई सहज सम्बन्ध अवश्य था।

5. मृतकों की अंत्येष्टि के सम्बन्ध में अधिकतर शवाधान को ही अपनाया गया था। सम्भवत: ऐसे अन्य भी तरीके रहे होंगे, जिनकी पहचान पुरातत्व के माध्यम से इतनी सरल नहीं है। शवाधानों में भी कुछ विविधता दिखाई पड़ती है, इसके निम्न प्रमाण उपलब्ध हैं--

(i) विस्तारित शवाधानों के

(ii) कलशों अथवा बड़े पात्रों में शवाधान के

(iii) ताबूतों में शवाधान के

(iv) द्वितीय अथवा प्रतीकात्मक शवाधान भी रहे होंगे।

हड्प्पा के शवाधानों में मेसोपोटामिया, मिस्र अथवा चीन के कांस्ययुगीन शवाधानों के विपरीत सामाजिक श्रेणीबद्धता का कोई साक्ष्य नहीं मिलता, यद्यपि इन स्थानों में कुछ उदाहरण अत्यधिक संपदा के मिलते हैं।

हड्प्पा के शवाधान निवास स्थान से दूर स्थित कब्रिस्तानों तक सीमित थे। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या ये कब्रिस्तान विशिष्ट सामाजिक समूहों के प्रयोग तक ही सीमित थे।

चूँकि निर्भरता केवल भौतिक साक्ष्य पर ही है अत: हड्प्पा के धर्म और विश्वास के सम्बन्ध में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। एक मुहर और टोकनों पर योगासन में अंकित एक पुरुष की आकृति को आइ्य शिव माना गया है। इस आकृति की व्याख्या कर इसे उन शमनी विश्वासों का साक्ष्य माना गया है, जो हड्प्पा संस्कृति में प्रचलित थे।

कर्मकांडों का चित्रण सेलखड़ी की मुहरों पर बने कुछ रूपांकनों के माध्यम से किया जा सकता है, जैसे वर्णनात्मक दृश्यों से। मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार स्वयं एक सार्वजनिक कर्मकांड का स्थान था।

अनुमानत: धार्मिक विश्वास और रीतियाँ सम्पूर्ण हड़प्पा संस्कृति के लिए समजातीय नहीं रही होंगी। कुछ स्थानों पर अग्नि की उपासना थी। वह कुछ ही केन्द्रों तक सीमित थी। उदाहरण के लिए, माँ देवी की आकृतियाँ कच्छ में नहीं मिलतीं। पानी में डुबकी लगाने जैसे सार्वजनिक कर्मकांड मोहनजोदड़ो तक सीमित रहे होंगे। कुछ क्षेत्रों में वनस्पति, प्रकृति अथवा पशुओं की उपासना भी होती होगी।

1. अनुमानत: मुहरें पहचान के चिह्कों का कार्य करती थीं, जिससे अपरिचितों के साथ लेन-देन का संकेत मिलता है।

2. ये प्रामाणिकता के साक्ष्य के तौर पर भी काम करती थीं। सेलखड़ी की इन वस्तुओं में पीछे की ओर एक छेददार उभार है, जिसमें से सम्भवत: धागा पिरोया जाता था, जिससे इसे पहना जा सके। मुहर के सामने वाले भाग पर प्राय: निम्न चिह्न पाए गए हैं-

(i) एक पशु का रूपांकन

(ii) कहीं-कहीं वर्णनात्मक दृश्य

(iii) वनस्पति रूपांकन

(iv) एक बैठी मानवाकृति

(v) हडप्पा की लिपि के चिह हैं।

एक ओर एकसिंघा-एक मिथकीय प्राणी सर्वाधिक लोकप्रिय है, दूसी ओर किसी भी मुहर का रूपांकन क्षेत्रीय स्तर पर संकेन्द्रित नहीं है।

मुहरें अपने लेखों के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। उपमहाद्वीप में लिखाई के प्राचीनतम साक्ष्य से समाज से साक्षरता स्पष्ट होती है तथापि विनिमय के लिए प्रयुक्त की जाने वाली इन मुहरों पर लिखाई का अर्थ यह नहीं है कि साक्षरता व्यापक थी। संभवतया लिखने का ज्ञान कुछ ही व्यक्तियों तक सीमित था।

कांस्य युग, प्राथमिक तौर पर ताँबे और उससे अधिक टिन जैसी सीमित उपलब्ध होने वाली सामग्री की आवश्यकता के दृष्टिगत एक विस्तृत होती राजनीतिक अर्थव्यवस्था है।

दूसरे, हड्प्पा संस्कृति में बड़े शहरी केन्द्रों के विद्यमान होने से अत्यधिक विविध कच्चे माल के प्रयोग का पता चलता है। इन दोनों से तीसरी सहस्राब्दी वर्ष ई.पू. में निम्न का संकेत प्राप्त होता है-

(i) व्यापक संवाद-संपर्क क्षेत्र

(ii) बाहय दुनिया के साथ सम्बन्ध

(iii) यह परिधि पर स्थित क्षेत्रों के सम्बन्ध में सही हो सकती है, जैसे-

(a) राजस्थान के ताम्र बहुल क्षेत्रों की ताम्रपाषाणकालीन बस्तियाँ (गणेश्वर-जोधपुर)।

(b) बलूचिस्तान की बस्तियाँ, जो कुल्ली संस्कृति के स्थल कहलाती हैं।

(i) दक्षिण कश्मीर की नवपाषाणयुगीन बस्तियाँ, जैसे-बुर्जाहोम

(ii) अधिक दूरी बाले क्षेत्रों, जैसे-मेसोपोटामिया, ओमान, बहरीन के साथ संवाद-संपर्क।

इन सम्बन्धों का ज्ञान लिखित अभिलेखों और पुरातात्विक सामग्री से होता है। अनुमानत: ये संवाद-सम्पर्क विविध प्रकृति के रहे होंगे। मानब-जाति विज्ञानी और ऐतिहासिक विवरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समस्त संवाद-संपर्कों को केवल व्यापार के अंतर्गत मानना आवश्यक नहीं है। अत: यह कहा जा सकता है कि-

1. कुछ संवाद-सम्पर्क कच्चे माल की प्राप्ति के लिए अभियान रूप में थे।

2. कुछ राजनयिक सम्पर्क बढ़ाने के लिए राजनीतिक दूतावासों के रूप में थे।

यह स्पष्ट है कि गुजरात में लोथाल और सिंध में चान्हृदड़ों आदि शिल्प केन्द्रों और अफगानिस्तान में लापिस लाजुली के निकट, शोर्तूघई जैसी बस्तियों की स्थापना में राज्य ने लोगों के आवागमन की व्यवस्था की होगी।

इन संवाद-सम्प्कों से द्विभाषिकता अथवा बहुभाषिकता स्पष्ट होती है। सम्बन्धों के नियमों-विनियमों को एक साझा सामान्य संहिता के माध्यम से प्राप्त किया होगा, जो ऊपर से थोपे जाते थे। इसे एक महापरंपरा कहा जा सकता है, जिसमें अनेक लघु परंपराएँ सम्मिलित हैं। यह एकजुटता, क्षणिक अथवा अस्थायी रही होगी। कारण यह है कि हड्प्पा राज्य के भंग होने पर सामाजिक संरचना एक जनजातीय रूप में वापस आ जाती है। इससे यह संकेत मिलता है कि समाज में सगोत्रीय समूहों ने अपना महत्त्व नई सामाजिक संस्थाओं वाली एक शहरी स्थिति में भी बनाए रखा होगा।

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