18वीं शताब्दी में इतिहास-लेखन न के बराबर था। अंग्रेज इस काल में भारत पर अपनी सत्ता कायम करने में इस प्रकार व्यस्त थे कि इतिहास लिखने का उनके पास समय नहीं था। चार्ल्स ग्रांट 18वीं शताब्दी के एक ऐसे प्रमुख लेखक हुए, जिन्होंने अपने लेखन में इतिहास का पुट दिया तथा 1792 में उन्होंने 'ऑबजरवेशन्स ऑन दि स्टेट ऑफ सोसाइटी एमंग द एसिएटिक सब्जेक्ट्स ऑफ इण्डिया' नामक पुस्तक लिखी। वे इवैंजेलिकल स्कूल अर्थात ईसाई धर्म प्रचारक स्कूल से सम्बन्धित थे, जिसकी यह मान्यता थी कि भारत में ईसाई धर्म की रोशनी फैलाना अंग्रेज शासकों को प्राप्त दिव्य नियति है तथा जिसका उद्देश्य भारत को आदिम धार्मिक आस्थाओं तथा अन्धविश्वासों के कुएँ से बाहर निकालना है। जबकि 19वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों तक भारतीय समाज और इतिहास पर बिरले ही इस प्रकार का लेखन देखने को मिलता था। भारत में 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में अंग्रेजों का शासन सुदृढ़ हुआ तथा उन्होंने अपने हाथ-पाँव फैलाना शुरू किया। 1815 में नेपोलियन तथा फ्रांस पर विजय प्राप्त करने के पश्चात ब्रिटेन ने केवल यूरोप की प्रथम दर्जे की ताकत बन गया, बल्कि ब्रिटेन में पहली औद्योगिक दर्जे की क्रान्ति हुई तथा यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली औद्योगिकृत देश के रूप में उभरकर सामने आया। अंग्रेजों द्वारा भारत के विषय में किया लेखन उनके घमण्ड तथा आत्मविश्वास को दर्शाता है, जिसके अनुसार वे ऐसे देश पर राज्य करते हैं, जो सभी क्षेत्रों में पिछड़ा हुआ है। 9वीं शताब्दी के दूसरे दशक से अंग्रेजों के इतिहास-लेखन में यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप में परिलक्षित है।
1806 और 1818 के बीच लगभग इसी समय में जेम्स मिल ने भारत के इतिहास पर अनेक ग्रंथों की रचना की तथा भारत के विषय में अंग्रेजों की सोच पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा। 'हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया' नामक इस पुस्तक के प्रथम तीन खण्डों में प्राचीन तथा मध्ययुगीन भारत का सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है। जबकि अन्तिम तीन खण्डों भारत में अंग्रेजी राज की चर्चा की गई है। इस किताब की बहुत प्रशंसा हुई है और 1820, 1826 और 1840 में इसका पुनर्मुद्रण हुआ तथा हेलीबरी स्थित ईस्ट इंडिया के कॉलेज में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले ब्रिटिश इंडियन सिविल ऑफिसर्स के लिए यह आधारभूत पाठयक्रम बन गया है 1840 के दशक तक यह पुस्तक अप्रासांगिक हो गई थी तथा इसके संपादक एच.एच. विल्सन ने 1844 में अपनी संपादकीय टिप्पणी में इस बात का खुलासा किया। विल्सन के द्वारा इस पुस्तक में अनेक तथ्यात्मक भूलों की तरफ भी इशारा किया गया। लेकिन तब भी इस पुस्तक को क्लासिक कृति का दर्जा प्राप्त होता रहा।
मिल ने कभी भी भारत का भ्रमण नहीं किया और भारत के विषय में उन्होंने जो पुस्तक लिखी वह अंग्रेज लेखकों के द्वारा जो पुस्तकें लिखी गयी थीं, उसी सीमित जानकारी पर आधारित है। भारत में रहने के दौरान कई अंग्रेज अफसरों ने भारत और भारत के लोगों के विषय में अपने पूर्वाग्रह व्यक्त किए थे, उसी का प्रतिबिंबन इस पुस्तक में हुआ है। विश्वसनीयता, वस्तुनिष्ठता और विवेचन की सीमाओं के बावजूद दो कारणों से यह किताब महत्त्वपूर्ण थी। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि जेम्स मिल दार्शनिक जेरेमी बेंथम द्वारा प्रेरित उपयोगितावादियों के प्रभावशाली राजनीतिक तथा आर्थिक स्कूल से सम्बन्धित थे। मिल ने भारत का जो इतिहास लिखा उसकी उपयोगितावादी अभिव्यक्ति तो थी, ही साथ-ही-साथ भारत में ब्रिटिश प्रशासन के लिए इसमें यूटिलिटेरियन अर्थात उपयोगितावादी एजेंडा भी अंतनिर्हित था। इस पुस्तक के प्रभावी होने का एक और कारण था जिसकी ओर अक्सर लोगों का ध्यान उतना नहीं जाता, जितना जाना चाहिए 19वीं शताब्दी के शुरुआत में लिखी इस पुस्तक में उस समय की मानसिकता दिखाई पड़ती है। यूरोप में आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध में विजय और औद्योगिक समृद्धि के बाद अंग्रेजों के वर्चस्व के बाद यह मानसिक बुनावट बनी थी। जेम्स मिल घमण्ड से चूर साम्राज्यवाद का संदेश प्रसारित करते हैं तथा उन्होंने ऐसा ही लिखा है जैसा उस समय वह इंग्लैंड के पाठक पढ़ना और सुनना चाहते थे।
एक तरफ जहाँ जेम्स मिल इतिहास की उपयोगितावादी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी ओर उनके प्रतिद्वन्द्दी माउंट स्टूअर्ट एलफिन्सटन की कृति को दार्शनिक जुड़ाव की दृष्टि से वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। एलफिन्सटन भारत में प्रशासनिक अधिकारी थे तथा उनकी नौकरी का अधिकांश समय भारत में बीता था तथा भारत पर इतिहास लिखने के लिए उनके पास मिल की तुलना में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी। उनकी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ हिन्दू एंड मुहम्मडन इंडिया' (1841) भारतीय विश्वविद्यालयों में 1857 के बाद स्थापित एक महान पाठ्य-पुस्तक मानी जाती थी तथा अगली शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षो में इसका पुनर्मुद्रण किया गया। इसके पश्चात एलफिन्सटन ने 'हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश पावर इन द ईस्ट! नामक पुस्तक लिखी, जिसमें अपेक्षाकृत व्यवस्थित रूप से हेस्टिग्स शासनकाल तक ब्रिटिश शासन के प्रसार तथा सुदृढ़ीकरण का वर्णन किया गया है। एलफिन्स्टन के लेखन से प्रभावित होकर भारतीय इतिहास-लेखन में हिन्दू और मुस्लिम शासनकाल की बजाए प्राचीन और मध्यकाल नामकरण को बढ़ावा मिला। हालांकि विशेष रूप में भारत में एलफिन्सटन की पुस्तकें असरदार पाठय-पुस्तकें थीं। लेकिन 1860 के दशक में जे. टैलब्वाय व्हिलर के द्वारा अधिक पेशेवर तथा बेहतर इतिहास लिखा गया। व्हिलर ने 1867 तथा 1876 के बीच पाँच खंडों में 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया का वृहद् इतिहास लिखा तथा इसके बाद “सर्वे ऑफ इंडिया अंडर ब्रिटिश रूल' (1886) नामक पुस्तक लिखी।
एलफिन्सटन के बाद विन्सेंट स्मिथ का नाम आता है, जिनके द्वारा 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' नामक पुस्तक लिखी गई, जो ब्रिटिश इंडियन सिविल सर्वेन्ट इतिहासकारों की लम्बी परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी मानी जाती है। 1911 में जब एलफिन्सटन की ऐतिहासिक कृति 'हिन्दू और मुहम्मडन इंडिया” का प्रकाशन हुआ तो उसी वर्ष विन्सेन्ट स्मिथ का समग्र इतिहास प्रकाशित हुआ। उनकी यह कृति प्राचीन भारतीय इतिहास पर किए गए उनके प्रारम्भिक शोध और एलफिन्स्टन के बाद अंग्रेज शोधार्थियों द्वारा अर्जित ज्ञान पर आधारित है। 1911 से लेकर लगभग 20वीं शताब्दी के मध्य तक विन्सेंट की लिखी पुस्तक लगभग सभी भारतीय विश्वविद्यालयों में पाठय-पुस्तक के रूप में पढ़ाई जाती थी। विन्सेंट स्मिथ की पुस्तक को एक पेशेवर लेखन के रूप में देखा गया तथा यह माना गया कि इस पुस्तक की तुलना में कोई दूसरी पुस्तक नहीं है। उनका दृष्टिकोण भारतीय इतिहास के प्रति अनेक अर्थों में भारत में अधिकारी के रूप में अनेक अनुभवों से ही प्रभावित है। 1885 के बाद होने वाले राष्ट्रवादी आन्दोलनों तथा 1905 में बंग भंग वे विरुद्ध होने वाले राजनीतिक आन्दोलन ने भारतीय इतिहास के विषय में उनकी दृष्टि को प्रभावित किया। जैसे कि बार-बार भारत की एकता की क्षणभंगुरता की ओर इशारा करते थे तथा उनके द्वारा यह जताने कौ कोशिश की गई कि यदि मजबूत साम्राज्यी सत्ता कायम नहीं रही तो चारों ओर बदअमनी का फैलाव बढ़ेगा तथा देश के टुकडे-टुकड़े हो जाएँगे। उन्होंने अनेकों बार भारतीय पाठकों को बड़े प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साम्राज्यों के पतन का हवाला देते हुए बताया है कि शाही ब्रिटेन के मजबूत हाथों से भारत सुरक्षित है तथा इसी कारण स्थायित्व और शान्ति प्राप्त है। ब्रिटिश सत्ता जिस दिन समाप्त होगी उसी दिन ब्रिटिश शासन द्वारा अर्जित सभी विकास मिट्टी में मिल जाएँगे। विन्सेंट स्मिथ ने राष्ट्रवादी आन्दोलन की संभावनाओं और भारतवासियों को अपनी नियति का फैसला खुद करने देने के राजनीतिक प्रश्न को अलग कर दिया तथा उसको महत्त्व नहीं दिया।
लेकिन ब्रिटिश शासन के अन्तिम वर्षों में यह राजनीतिक प्रश्न महत्त्वपूर्ण बनता जा रहा था और 1934 में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक दृष्टिकोण को अधिक बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने वाली ऐतिहासिक कृति का प्रकाशन हुआ। 'राइज एंड फुलफिलमेंट ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया! नामक यह कृति पिछली ऐतिहासिक कृतियों से भिन्न थी और इसमें एक उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया गया था तथा बहुत हद तक भारतीय राष्ट्रीय आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की गई थी। इसके लेखक एडवर्ड थॉम्पसन और जी.टी. गैरेट थे। एडवर्ड थॉम्पसन एक धार्मिक प्रचारक थे, जिन्होंने बंगाल के कॉलिज में कई सालों तक अध्यापन का काम किया तथा रविन्दरनाथ टैगोर से उनकी अच्छी मित्रता थी। जी.टी. गैरेट एक प्रशासनिक अधिकारी थे। ग्यारह साल भारत में नौकरी करने के बाद उन्होंने इंग्लैण्ड में लेबर पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। अपनी इस पृष्ठभूमिके कारण प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा लिखे गए इतिहासों से उनका नजरिया भिन्न था। थॉम्पसन और गैरेट को कंजरबेटिब अंग्रेज नेताओं की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर कई भारतवासियों को सरकारी रूप में निर्धारित पाठयपुस्तकों की अपेक्षा उनकी पाठयपुस्तकें अधिक विश्वसनीय लगीं। भारत की आजादी के पंद्रह वर्ष पूर्व इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इससे यह संकेत प्राप्त होता है कि अंग्रेजों के बीच प्रगतिशील और उदारवादी रवैयों की सोच बदल रही थी। इसी बदलती मानसिकता के परिणामस्वरूप 1947 में साम्राज्यी सत्ता में सत्ता का हस्तांतरण स्वीकार करने को बाध्य हुआ। जेम्स मिल से लेकर थॉम्पसन और गैरेट तक इतिहास-लेखन ने लंबा रास्ता अपनया। 19वीं शताब्दी में इतिहास-लेखन की शुरुआत हुई जो भारत में अंग्रेजी राज के अन्तिम वर्षो तक कायम रही।
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