प्रेमचंद की कहानी 'विध्वंस' इसका सुंदर नमूना है कि प्रेमचंद हिंदी के प्रथम कहानीकार हैं जिन्होंने परंपरा से चली आती हुई कथा से कहानी के अलगाव को स्पष्ट करते हुए छोटे आकार की कहानी के रूप में हिंदी कहानी को विकसित किया जिसमें यथार्थ के प्रति आग्रह और अनुभूति की तीव्रता पर अधिक बल दिया गया।
शिल्प की दृष्टि से यह कहानी आकार में छोटी होने के साथ-साथ किस्सागोई और नाटकीयता के सम्मिश्रण पर आधारित है। प्रेमचंद इस कहानी के आरंभ में ही एक कथक के रूप में उपस्थित होते हैं और ऐसा लगता है मानो कोई चौपाल में बैठा किस्सा सुना रहा हो और हम सब उसके चारों तरफ बैठकर उसका लुत्फ उठा रहे हों। प्रेमचंद की इस किस्सागोई का नमूना देखिए-“जिला बनारस में बीरा नाम का एक गाँव था। वहाँ एक विधवा वृद्धा, संतानहीन, गोड़िन रहती थी, जिसका भुनगी नाम था। उसके पास एक धुर भी जमीन न थी चबैना या सत्तू पर निर्वाह करते ही हैं, इसलिए भुनगी के भाड़ पर नित्य भीड़ लगी रहती थी।” प्रेमचंद बड़ी चतुराई से अपनी कथक वाली भूमिका में न केवल भुनगी बल्कि पूरे गाँव कौ आर्थिक बदहाली को बयाँ कर देते हैं। प्रेमचंद की उपस्थिति इस कहानी में लगातार बनी रहती है पर वे अपने लंबे वक्तव्यों के द्वारा इसे बोझिल नहीं होने देते हैं। प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियों में कथक की भूमिका वहीं तक रहती हैं जहाँ तंक वह कहानी के लिए जरूरी होती है। इसके बाद प्रेमचंद कहानी की बागडोर अपने पात्रों को पकड़ाकर नेपथ्य में चले जाते हैं। 'विध्वंस' में भी जमींदार के चपरासी और भुनगी तथा स्वयं जमींदार और भुनगी के बीच जो नोंक-झोंक. होती है, उसे पात्रों की आपसी बातचीत के माध्यम से प्रस्तुत कर कथाकार ने अपने कथा कौशल का सुंदर नमूना दिया है।
इस कहानी में ऐसा लगता है जैसे पाठक इन पात्रों के आपसी वार्तालार्ष को कहीं छुपकर सुन रहा हो। यह प्रेमचंद की कथा प्रस्तुति की अपनी विशेषता है जो उन्हें श्रेष्ठ कथाकार की श्रेणी में ला खड़ा करती है। प्रेमचंद के शिल्प की यह भी विशेषता है कि कहानी के बीच में ही पाठक को कहानी के पात्र के मस्तिष्क में प्रवेश करा देते हैं और 'अंब वह वही सब कुछ सुनने लगता है जो पात्र सोच रहा होता है। 'विध्वंस' कहानी का एक दृश्य देखिए-उसकी समझ में न आता था, कया करे। न भूनते बनता था न छोड़ते बनता था। सोचने लगी कैसी विपत्ति है॥ पंडितजी कौन मेरी रोटियाँ:चला, देते, हैं, कौन मेरे आँसू पोंछ देते हैं। अपना रक्त जलाती हूँ तब कहीं दाना मिलता है। लेकिन जब देखो खोपड़ी पर सवार रहते हैं, इसलिए न कि उनकी चार अंगुल धरती से मेरा निस्तार हो रहा है। क्या इतनी जमीन का इतना मोल है? 'ऐसे-कितने ही टुकड़े गाँव में बेकाम पड़े रहते हैं, कितनी ही बखरियाँ उजाड़् पड़ी हैं। वहाँ -तो केसर नहीं उपजती फिर मुझी पर क्यों आठों पहर धौंस रहती है। कोई बात हुई और यह धमकी मिली कि भाड़ खोदकर फेंक दूँगा, उजाड़ दूँगा# मेरे सिर पर भी कोई होता तो क्यों बौछारें सहनी पड़तीं।” प्रेमचंद की यह विशेषता है कि.वे एक दृश्य को ज्यादा देर तंकेल्ज्हीं चलने*देते हैं और बीच में ही उसे रोककर दूसरा दृश्य उपस्थित कर देते हैं। इससे कहानी में रॉचकता बनी रहती है। यहाँ*भीषषुसा होता है। भुनगी अभी सोच ही रही है कि कथक एक बार फिर से उपस्थित होता हैः और कहानी की बागडोर॑ बड़ी चतुराई से “पात्रों को पकड़ाकर गायब हो जाता है। प्रेमचंद का यह दृश्य परिवर्तन देखने लोयक है-“वह इन्हीं कुत्सित विचारों,में पड़ी हुई थी कि दोनों चपरासी ने आकर कर्कश स्वर में कहा-क्यों री, दाते भुन गए।” कहानी एक बार फिर से कथक और पात्रों के आपसी वार्तालाप के माध्यम से आगे बढ़ने लगती है और इस विधि से प्रेमचंद गुप्त रूप से अपना मनचाहा संदेश दे जाते हैं।
प्रेमचंद ने इस कहानी में अपनी व्यंग्य क्षमता और भाषा कौशल का बेजोड् नमूना प्रस्तुत किया है। उनकी शैली की सजीवता का एक बड़ा कारण उनकी यह व्यंग्य प्रविधि ही है। व्यंग्य करते समय उनकी मारक क्षमता बहुत बढ़ जाती है और बातों-बातों में ही वे कुछ ऐसा कह जाते हैं जो सारी परिस्थितियों की बघिया उधेड कर रख देती है। उनकी शैली का एक नमूना इस प्रकार है-“वह पंडित जी के गाँव में रहती थी, इसलिए उन्हें उससे सभी प्रकार की बेगार लेने का पूरा अधिकार था। उसे अन्याय नहीं कहा जा सकता। अन्याय केवल इतना था कि बेगार सूखी लेते थे। उनकी धारणा थी कि जब खाने ही को दिया
गया तब बेगार कैसी। किसान को पूरा अधिकार है कि बैलों को दिन भर जोतने के बाद शाम को खूँटे से भूखा बाँध दे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो यह उसकी दयालुता नहीं है, केवल अपनी हित चिंता है।” प्रेमचंद की व्यंग्य क्षमता का एक और नमूना है-“बुढ़िया के भाड की ओर ताका तो बदन में आग-सी लग गईं उसका पुनरुद्धार हो रहा था। बुढ़िया बड़े वेग से उस पर मिट्टी के लोंदे रख रही थी। कदाचित उसने कुछ रात रहते ही काम में हाथ लगा दिया था और सूर्यास्त से पहले समाप्त कर देना चाहती थी। उसे लेशमात्र भी शंका न थी कि मैं जमींदार के विरुद्ध कोई काम कर रही हूँ। क्रोध इतना चिरजीवी हो सकता है इसका समाधान भी उसके मन में न था। एक प्रतिभाशाली पुरुष किसी दीन अबला से इतना कीना रख सकता है उसे इसका ध्यान भी न था। वह स्वभावत: मानव-चरित्र को इससे कहीं ऊँचा समझती थी। लेकिन हा हतभागनी! तूने धूप में ही बाल सफेद किए।” ये है प्रेमचंद की विशिष्ट व्यंग्य शैली जिसका दीदार हम उनकी सभी कहानियों में कमोबेश करते हैं। शिल्प और शैली की दृष्टि से उनकी यह कहानी निश्चित ही बेजोड़ है।
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