विशेष रूप में सातवीं शताब्दी के बाद के काल में राजस्थान में शासक वंशों की जो वृद्धि हुई, उसे राजपूतों के रूप में मान्यता प्रदान की गई। राजपूततों के उदय का विश्लेषण अभी तक उनके पूर्वजों के सन्दर्भ में पुरालेखों में पाई जाने वाली वंशावलियों के अध्ययन के द्वारा किया गया है। इसके अतिरिक्त राजवंशों के और राजनीतिक इतिहास की रचना के द्वारा भी इनका विश्लेषण किया गया है। विद्वानों ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में अनेक विदेशी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। कुछ विद्वान इन्हें विदेशी मूल के, तो कुछ अन्य इसे क्षत्रिय मूल के मानते हैं। चारण का कहना है कि इनकी उत्पत्ति माउंट आबू के अग्निकुंड से हुई थी। वीरगाथा कविताओं और परम्पराओं में वर्णित है कि राजपूत वर्ग में 36 गोत्र या कुल थे। प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत में शासक वंशों की उत्पत्ति के इतिहास का अध्ययन हाल की रचनाओं में भी किया गया है। इससे प्रारम्भिक मध्यकालीन राजनीतिक पद्धति के आविर्भाव के अध्ययन का केन्द्र राजपूत राज्यों के राजवंशीय इतिहास से हटकर उन कारणों के विश्लेषण की ओर मुड़ गया है, जिनके कारण स्थानीय शासक कुलों से बनी राज्य संरचना की उत्पत्ति हुई। शासक वंशों का उदय एक ऐसी प्रक्रिया मानी जाती है, जो इन शासक कुलों द्वारा क्षत्रिय स्तर का दावा करने के कारण सम्भव हुई। इस दावे के द्वारा केवल वंश के विषय में जानकारी देना ही नहीं था, वरन इसके माध्यम से उन्होंने शासन की वैधता प्राप्त की। राजपूतीकरण की प्रक्रिया इस प्रकार प्रारम्भिक मध्यकाल में प्रबल होती गई। इसका अध्ययन राजवंश या वंश परम्परा के विवरणों के रूप में नहीं, वरन कबीलाई राजनीतिक पद्धति से राज्य पद्धति के विकास के रूप में किया जाना चाहिए।
पुरालेखीय और पुरातत्त्वीय साक्ष्यों से यह पता चलता है कि कृषि अर्थव्यवस्था के विस्तार के कारण खेतिहर बस्तियों की संख्या में वृद्धि हुई। पश्चिमी और मध्य भारत के अभिलेखों से पता चलता है कि राजपूत कुलों ने सबारों, भीलों और पुलिंदों को अपने अधीन कर लिया है। कबीलाई समूहों को अधीन करने के कारण राजपूत शासक वर्ग शक्तिशाली बन गए थे। पुरालेखों और वीरगाथा कविताओं की परम्पराओं से यह पता चलता है कि गुहिलाओं का प्रवासन गुजरात से राजस्थान की ओर हुआ था और भीलों के कबीलाई मुखियाओं के उत्तराधिकारियों के रूप में इनका वर्णन किया गया है। पुरातन प्रबन्ध संग्रह और नायंसी के खयात में उल्लेख मिलता है कि चहामना कुल की नाडोल शाखा ने दक्षिण पूर्व मेवाड़ में मेदाओं को विस्थापित किया था। कृषि के विकास के परिणामस्वरूप नए क्षेत्रों में बस्तियों को जन्म दिया और कबीलाई राजनीतिक पद्धति धीरे-धीरे राजपद्धति में रूपांतरित हो गई। पल्लिवलचंद के समाहित चारणों के मिथक वृत्तान्त में उस प्रक्रिया की चर्चा की गई है, जिसके द्वारा रामोदा सिहा ने मेदाओं और मीनाओं को पराजित किया था। विशिष्टता वर्ण पदानुक्रम के अन्तर्गत सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया इस काल की एक प्रमुख विशेषता थी। कबीलाई हैसियत से राजपूत का दर्जा प्राप्त करने वाले मेदा और हूण इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। गुर्जर कुल के प्रतिहार आठवीं सदी के महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली शासक बन गए थे, जो पशुपालक और खेतिहर थे। शासक बनने के लिए ही प्रतिहारों ने अपने को कबीलाई गुर्जर कुल से अलग कर लिया था। इस काल की वंशावलियों ने शासक वंशों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा दिखाने का प्रयास किया है। कहा जाता है कि मंदोर के प्रतिहार एक ब्राह्मण की क्षत्रिय पत्नी वंश के होने के कारण ब्रह्मक्षत्र सामाजिक स्थिति का दावा किया था। मेवाड़ के गुहिलाओं को भी दसवीं से ग्यारहवीं ईसवी में ब्रह्मक्षत्र का दर्जा प्राप्त था। 1169 ईसवी में साकंभरी के चहामाना भी ब्रह्मक्षत्र ही थे। राजपूत शासक कुलों के अभिलेखों में इनका उल्लेख प्रतिहारों या मौयों के सामन््तों के रूप में किया गया है या फिर इन्हें स्वाधीन माना गया है। ऐसा माना जाता है कि उनके पूर्वज महाराजा कर्ण, लक्ष्मण जैसे परम्परा से सम्बन्धित थे और इन्द्र, विष्णु जैसे वैदिक देवता, सूर्यवंशी और कृत युग के इक्ष्वाकु थे। ऐसा प्रतीत होता है कि बाद के काल में ब्रह्मक्षत्र सामाजिक स्तर का प्रयोग एक नए विशुद्ध क्षत्रिय स्तर को वैधता प्रदान करने के लिए किया गया था, जो उच्च ब्राह्मण स्तर के थे। इससे यह पता चलता है कि वंशावलियों की रचना अधीनस्थ से प्रभुसत्ता के स्तर पर पहुँचने के लिए की गई। इन वंशावलियों में अतिशयोक्ति के बावजूद कुछ वास्तविक तत्त्व भी हैं। प्रारम्भिक गुहिले मौय्यों और प्रतिहारों के सामन्त थे। उपर्युक्त अध्ययन से इस काल की श्रेणीबद्ध राज्य संरचना के अन्तर्गत राजपूतीकरण की प्रक्रिया का पता चलता है।
राजपूत कुलों में भूमि वितरण तथा इससे बड़े भू-खंडों का जन्म राजपूत राजनीतिक पद्धति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। छह या छह के गुणक से मिली संख्या या चौरासी गाँवों के समूह खंडों में संगठित की गई भू-सीमांकित क्षेत्रीय अथवा प्रशासनिक इकाइयों का जन्म हुआ। इस काल में निर्मित किए गए किले शासक कुलों की राजनीतिक सत्ता के प्रतीक थे, जिनका भरण-पोषण आसपास की जोतों से प्राप्त संसाधनों से होता था और राजपूत राजनीतिक पद्धति की क्षेत्रीय व्यवस्था के अंग थे। राजपूतों के विभिन्न कुलों के अन्तर्गत विवाह सम्बन्धों ने भी राजनीतिक क्षेत्र को प्रभावित किया। अन्तर-कुल विवाह तंत्र राजपूतों अर्थात शासन के विशिष्ट वर्ग तक सीमित था। इस काल में जिन सामाजिक समूहों ने सत्ता प्राप्त्की और जो शासन करने वाले विशिष्ट वर्ग के रूप में स्थापित हुए, उन्होंने भी प्रतिष्ठित राजपूत वंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके और क्षत्रियकरण के द्वारा सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर अपनी स्थिति को वैधता प्रदान की।
ऐसा लगता है कि तेरहवीं शताब्दी तक राजपूत वर्ग राजनीतिक हैसियत के प्रतीक के साथ-साथ वंशानुगत भी बन गया था। राजपूत कुल-तंत्र में वृद्धि और विस्तार हो रहा था। राजपूत शब्द के अन्दर राजा के पुत्र से एक छोटे जोतदार तक का व्यापक वर्ग समाहित था। राजपुत्र, राउत, रानक जैसे उपनाम बारहवीं शताब्दी के बाद सामन््त और महामंडलेश्वर में अधिक प्रचलित थे। राठत और रानक उपाधियाँ भी अनेक कुलों के पुरालेखों में पाई जाती हैं, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि राजपूत सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था अनेक तत्त्वों को आत्मसात करने वाली एक लोचशील संरचना थी। राजपूतों के उदय के साथ परम्परागत क्षत्रिय अन्य व्यवसायों से जुड़ गए और शासक वर्ग भी अब क्षत्रियों के साथ नहीं, वरन राजपूतों के साथ जुड़ा था। राजपूत राजनीतिक पद्धति के अन्तर्गत अन्तर-कुल सम्बन्धों के अनेक उदाहरण हैं, जैसे-चहामना राज्य में गुहिले विशिष्ट वर्ग के भू-स्वामी के रूप में थे। स्मृतिशिलाओं या स्मृति अवशेषों में जिन्हें गोवर्धन ध्वज अथवा देवाली के रूप में जाना जाता है, प्रतिहार, चहामना और गुहिला कुलों का उल्लेख है। साथ ही महासामन्त, राना, राउत, राजपूत जैसी उपाधियों का भी उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि सैनिक पराक्रम इन कुलों को शासक शक्ति बनाने में एक महत्त्वपूर्ण कारण था। राजपूत शासक कुलों में वृद्धि विभाजन अथवा स्थानीय लोगों के इसमें विलय के कारण हुई।
प्रतिहारों तथा उनके सामंतों की राजनीतिक पद्धति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भूमि अनुदान थी। ब्राह्मणों और मंदिरों को प्रतिहार राजाओं ने दान में भूमि दी थी। ये अनुदान हमेशा के लिए थे, लेकिन इससे आर्थिक और प्रशासनिक विशेषाधिकारों की वास्तविक प्रकृति के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इन भूमि अनुदानों के कारण शासक और किसान के बीच भू-सम्पन्न मध्यस्थ स्थापित हुए। प्रतिहारों के सामन्तों के क्षेत्रों में ज्यादातर धार्मिक दान का प्रचलन था। जो लोग धार्मिक अनुदान प्राप्त करते थे, कानून-व्यवस्था बनाए रखना और राजस्व संग्रह करना उनकी ही जिम्मेदारी थी। 1890 ईसवी में प्रतिहार राजा भोज प्रथम ने एक कालाचूरी शासक को उसकी प्रशंसनीय सैनिक सेवाओं के लिए भूमि दी थी। अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भी प्रतिहार राजा भूमि प्रदान करते थे। प्रतिहारों के अधीनस्थ गुर्जर सामन्त द्वारा जारी किए गए भूमि अनुदान में उसके अधीन क्षेत्र का उल्लेख स्वभोग-अवाप्ता- वंशपोटकाभोग के रूप में पाया जाता है। वह शासक परिवार का एक सदस्य था और उसको प्रतिहार राजा द्वारा एक क्षेत्र आबंटित किया गया था, लेकिन उसने उस क्षेत्र को प्रशासनिक अधिकारों के साथ आगे चलकर उप-आबंटित कर दिया था। लेकिन लगता है कि गैर-धार्मिक अनुदान प्रतिहारों ने बहुत कम किया था। प्रतिहारों और उनके सामन्तों की प्रशासनिक प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता सामन््तीकरण की परम्परा थी। धार्मिक अनुदान प्राप्त करने वाले अपने आबंटन के हिस्सों को दूसरे के नाम फिर से आबंटित कर देते थे। शासक कुलों के सदस्य या अन्य सामन््त उप-अनुदान अधिराज की स्वीकृति के बिना ही कर सकते थे। वे मठों और शिक्षकों को भूमि आबंटित करते थे। कुछ अनुदानों पर राज्य के अधिकारियों के हस्ताक्षर मिलने से यह पता चलता है कि प्रशासनिक व्यवस्था में राजवंशीय स्वीकृति का महत्त्व था, किन्तु यह स्वीकृति हमेशा नहीं ली जाती थी।
प्रतिहार प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत कोई विशाल केन््द्रीकृत अधिकारी तंत्र न होना उसकी एक अनूठी विशेषता थी। अनुदान से सम्बन्धित अभिलेखों के अनुसार केन्द्रीय अधिकारियों के वर्ग का नाम नियुक्त था, जो क्षेत्र सामन््तों और महासामन्तों के अधीन थे, उसका प्रशासन उप-सामन्तों के माध्यम से होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशासनिक अधिकार सामन्तों और उप-सामन्तों में बंटे हुए थे। यद्यपि अपने सामन्तों पर प्रतिहारों का नियंत्रण था, लेकिन राजनीतिक पद्धति में सामन््त व्यवस्था कौ भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। प्रतिहार राजा परमेश्वर, महाराजाधिराज जैसी उपाधियों का प्रयोग करते थे। इन उपाधियों से पता चलता है कि राजा के आधिपत्य को स्वीकार करने वाले तमाम मुखियाओं और राजकुमारों की तुलना में उसकी स्थिति श्रेष्ठ थी। पुरालेखों से पता चलता है कि माधव जो एक राज्यपाल और प्रधान सेनापति था, की चर्चा महासामन्त के रूप में की गई है। नगर राज्यपाल के रूप में पदासीन उडांमट को महासामन्ताधिपति, जिसका अर्थ सामन्तों का प्रमुख कहा गया है। ऐसा लगता है कि अधिकारियों को सामन्ती अर्थ से युक्त उपाधियाँ प्रदान करने का चलन था। प्रतिहारों के सामन्त अपने अधिराज को सैनिक सहायता प्रदान करते थे। प्रतिहारों के बहुत सारे सत्ता केन्द्र नहीं थे और कन्नौज ही उसका प्रमुख आधार था। वे गैर-धार्मिक अनुदान आमतौर पर नहीं किया करते थे। लेकिन 1036 ई. में उस राजवंश के अन्तिम शासक ने एक गैर-ब्राह्मण को एक गैर-धार्मिक अनुदान दिया था। गुर्जर प्रतिहारों के अधीन गाँव 12 तथा 84 के समूहों में विभाजित थे। प्रतिहारों के एक चालुक्य सामन्त के नौवीं शताब्दी ईसवी के एक पुरालेख में इसका वर्णन है। ऐसा जान पड़ता है कि क्षेत्रों का बंटवारा कुल के मुखियाओं के बीच 12 गाँवों की इकाइयों या उसके गुणक से मिली संख्या वाली इकाइयों के रूप में होता था।
गुर्जर प्रतिहारों का पतन दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हो गया था। महाडावलों और कालाचूरियों का नियंत्रण उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों पर हो गया था। मध्य भारत के पूर्वी भाग पर त्रिपुरी के कालाचूरियों और जेजाकामुक्ति के चंदेलों का शासन था। कालाचूरी बाद में तीन भागों में बंट गए-(1) त्रिपुरा के; (2) रतनपुरा के; (3) गोरखपुर के। राजस्थान, गुजरात और मालवा के क्षेत्र विभिन्न राजपूत शासक कुलों अर्थात चहामानाओं के अधीन थे, जो पाँच समूहों में विभाजित हो गए थे-(1) ब्रोच (2) जवालीपुरा (3) शाकम्भरी (4) नादुला और (5) रणथम्भौर।
बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में चहामानों के महत्त्वपूर्ण शासक कुल ब्रोच और रणथम्भौर के थे। गुहिलों ने मेवाड़ पर तेरहवीं शताब्दी ई. में कब्जा कर लिया था। तोमरों का नियंत्रण अजमेर और दिल्ली पर था। परमारों के अधीन मालवा था और बारहवीं शताब्दी ई. में वे अनेक शाखाओं में विभाजित हो गए थे, जिनमें मालवा, आबू, मिनमाल और किराडू थे। लेकिन 1062 ई. में आबू परमारों को भीम चालुक्यों ने अपने अधीन कर लिया और आबू की तरह परमार चालुक्यों के सामन्त बने रहे। गुजरात चालुक्यों के अधीन हो गया। लेकिन बारहवीं शताब्दी ई. में उनके सामन्तों में बघेल एक महत्त्वपूर्ण राजनैतिक शक्ति बन गए थे।
शिलाओं या तांबे पर अंकित अनुदानों तथा लेखापद्धति ऐसे दस्तावेजों से प्राप्त जानकारी के अनुसार अधिकारियों और सामन्तों की सेवाओं के लिए उनको अनुदान स्वरूप भूमि देने की परिपाटी थी। ऐसा लगता है कि गाँवों से एकत्रित करों से चहामाना, गहाड़ावाला, चंदेल और कालाचूरी अधिकारियों तथा प्रशासनिक कार्मिकों को पारिश्रमिक दिया जाता था। बारहवीं शताब्दी ई. में गहाड़ीवाला अधिकारी अपने निजी इस्तेमाल के लिए गाँवों से उगाही करते थे। चहामाना के शासनकाल में गाँवों से सैनिक कर्मियों, जिन्हें बालाधिपति कहा जाता था, के भरण-पोषण के लिए कर वसूल किए जाते थे। निश्चित उगाही के द्वारा ही इस काल में विभिन्न प्रशासनिक कर्मियों को वेतन दिया जाता था। पुरोहितों, सचिवों, प्रतिहारों और महामात्यों आदि जैसे अधिकारियों को भी शासन प्रणाली में उनकी विशेष सेवाओं के बदले में भुगतान भूमि अनुदानों के रूप में दिए जाते थे। लेकिन हर प्रकार के सैनिक, न्यायिक और प्रशासनिक उत्तरदायित्व सामन्तों को सौंपे जाते थे, चाहे वे शासक कुल के हों अथवा नहीं। पुरालेखों में अनेक प्रकार के सामन््तों का उल्लेख है। उदाहरण के लिए, राजा, राजराजरनका, रानक, राजपुत्र, ठाकुर, सामन्त, महासामन्त, मांडलिक आदि। उनकी सेवाओं के बदले उनको भुगतान ग्राम अनुदान के रूप में किए जाते थे।
पुरालेखों में वर्णित आलेखों के अनुसार भूमि अनुदान शुरू में पुजारियों को दिए जाते थे, लेकिन बाद में यह परिपाटी विस्तृत हो गई और गैर-पुजारियों जैसे कि अधिकारियों तथा सामन्तों को भी यह दिया जाने लगा। राजस्थान और गुजरात के राजपूत राजनीतिक पद्धति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि आमतौर पर शासक परिवार को ही अनुदान दिए जाते थे, लेकिन कुछ क्षेत्रों में शासक कुल के बाहर के लोगों को भी अनुदान दिए जाते थे। सामन्तों की जिम्मेदारी यह थी कि वे अधिराज को सैनिक सहायता उपलब्ध कराएं। चंदेलों और गहाड़ीवालों के सैनिककर्मियों को राठत कहा जाता था, लेकिन चहामानाओं और चालुक्यों के अधीन बे राजपुत्र कहे जाते थे। उत्तर भारत के सामन््त रानक और ठाकुर आदि उपाधियां धारण करते थे।
'कमंडक नीतिशास्त्र के आधार पर अग्निपुराण के अनुसार सामन्तों को यह सलाह दी गई है कि उन्हें युद्ध में अपने अधिराज की सहायता के लिए जनता की भावनाओं को शांत करना चाहिए तथा उनके सहयोगियों और सहायकों को लामबंद करना चाहिए तथा शत्रुओं और मित्रों के बीच भेद करना चाहिए। उनसे यह भी कहा गया है कि उन्हें जनता की रक्षा एक दुर्ग की तरह करनी चाहिए, जो अधिराज द्वारा सौंपी गई, उनकी जिम्मेदारी है। दूसरी तरफ राजा को यह भी सलाह दी गई है कि वह अपने अधीनस्थों से सतर्क रहें, जिनके विद्रोह का खतरा होता है। इस प्रकार अग्निपुराण राजाओं को विद्रोही सामन््तों को समाप्त करने की सलाह देता है।
गुजरात की स्थिति पर बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ई. के 'लेखापद्धति' में चर्चा की गई है। इस विधि सम्बन्धी ग्रन्थ में सामन्तों के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है, लेकिन सामन्तों के उत्तरदायित्व के मामले में पुरालेख स्पष्ट नहीं हैं। लेखापद्धति में उल्लिखित पट्टलों या राजाओं और उसके महामात्य का वर्णन है। मेरूटुंगा की “प्रबन्ध चिंतामणी' में परमार भोज और चालुक्य भीम के काल का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि क्षेत्र का स्वामी गाँव दान करता है, गाँव का स्वामी खेत का दान करता है और खेत का स्वामी सब्जियाँ दान करता है। हर संतुष्ट व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का दान करता है। राजस्व संकलन के लिए अनुदान पाने वालों को राजा की ओर से अधिकारपत्र दिए जाते थे, जिसके कारण वह गाँव का स्वामी बन जाता था। मनसारा राजा को एक श्रेणीबद्ध संरचना में रखती है, जो नौ वर्गों से निर्मित थी-चक्रवर्तिन, महाराजा, महेन्द्र, पार्सनिका, पृट्टाधर, मंडलेश आदि। भट्ट भुवनदेव के 'अपराजिताप्रच्छ' में नौ प्रकार के शासकों का वर्णन है-महीपति, राजा, नराधिप, महामंडलेश्वर, मांडलिक, महासामन्त, सामन्त आदि। गैर-धार्मिक अनुदानों की तुलना में धार्मिक अनुदानों की संख्या अधिक थी।
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