आरम्भिक इतिहासकार सामंतवादी व्यवस्था के कानूनी पक्ष पर ज्यादा बल देते हैं। वे मुख्य रूप से फीफ के अधिकारों, अधीनता (दासत्व), राजकीय सेवाओं, अधिपतियों के न्याय से जोड़कर देखते हैं।
विद्वानों के अनुसार यह व्यवस्था भूमि पर आधारित थी, जिसमें विकेन्द्रीकरण, निजी लोगों के हाथों में सार्वजनिक शक्ति का जाना और एक ऐसी सैन्य व्यवस्था जिसमें सैन्य शक्ति निजी हाथों में दी गयी थी। आधुनिक इतिहासकारों ने सामंतवादी व्यवस्था को मध्ययुगीन यूरोप में आपसी संरक्षण, निष्ठा और प्रशासनिक, सैन्य या धार्मिक करार के रूप में देखा है।
सामंतवाद के प्रथम चरण में श्रम की प्रधानता थी। सारे कार्य श्रम पर आधारित थे। उत्पादन अधिशेष नहीं बचता था। उत्पादन बाजार के लिये नहीं, बल्कि निजी उपभोग के लिये किया जाता था। पहला चरण 9वीं से |]वीं शताब्दी तक माना जाता है।
कृषीय तकनीकी विकास और औजार अपर्याप्त और कम असरदार होने के कारण उत्पादन केवल जीवन-निर्वाह तक ही सीमित हो गया था। कड़ी मिट्टी होने के कारण खेतों को तीन-चार बार जोतना जरूरी हो गया था, जिसमें काफी ऊर्जा लगानी पड़ती थी। खेतों को उपजाऊ बनाने के लिये विभिन्न प्रकार के औजारों का उपयोग किया जाता था। खुरपी, हंसुआ, फावड़े और मिट्टी के ढेलों को फोड़ने वाला पटेला और खेत को गहराई से जोतने और उसमें से खर-पतवार, कंकड़-पत्थर निकालने के लिये प्रमुख औजार थे। कृत्रिम रासायनिक खाद का प्रचलन नहीं था। सीमित रूप में प्राकृतिक उर्वरकों का उपयोग होता था। खेतों को काटने और जलाने या फिर जले हुए स्थानों पर खेती करने के अलावा मिट्टी की उर्वरता कौ समस्या लगातार बनी रहती थी। किसानों के पास कौटनाशक दवाइयाँ नहीं होती थीं। वे कबूतर और पंडुक पालते थे, जो कीड़ों से फसलों की रक्षा करते थे और सीमित मात्रा में बेहतर उर्वरक उपलब्ध कराते थे। जमीन को उपजाऊ बनाने के लिये उसे परती छोड़ने की प्रथा थी, परन्तु जमीन परती छोड़ने से उसमें झाड़-झंखाड़ भी पैदा हो जाते थे।
'फसल को मौसमी मार भी झेलनी पड़ती थी। बसन््त ऋतु में खेतों में यदि ज्यादा नमी रह जाती थी, तो जुताई के लिये कम समय मिलता था और नमी रहने की स्थिति में बीज सड़॒ जाता था। बेमौसम बरसात होने पर फसलों को काटने, सुखाने और इसमें अनाज निकालने में कठिनाई होती थी।
हलों में लोहे का इस्तेमाल शुरू हो गया था, परन्तु अधिकांश भाग में पकाई हुई लकड़ी का ही उपयोग होता था, जिससे गहरी जुताई करने में कठिनाई होती थी।
कृषि क्षेत्र में धीरे-धीरे तकनीकी विकास हो रहा था। अब विषम फाल लगे भारी हल और पहिएदार मोल्डबोर्ड (ढेले तोड़ने का पटेला) जिसे एक से ज्यादा जानवर मिलकर खींचा करते थे का प्रयोग होने लगा। निश्चित रूप से कृषि के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी प्रगति का सूचक है। लोहे के फाल के उपयोग ने गहरी जुताई को सम्भव बनाया। अब मिट्टी में मौजूद खनिजों का अधिक बेहतर इस्तेमाल हो पाता था। इसके उपयोग से जंगली या वन क्षेत्र और दलदली क्षेत्रों में भी खेती किया जाना सम्भव हो गया।
भारी हल और मोल्डबोर्ड युक्त हल को खींचने के लिये चार से आठ जानवर लगाने पड़ते थे। कुछ ही किसान इन भारी हलों को खींचने के लिये एक से ज्यादा संख्या में बैल रख सकते थे। इस काल में पशुपालन को बढ़ावा मिला।
1000 ई. के आसपास कृषि के क्षेत्र में तकनीकी विकास ने जानवरों का बेहतर उपयोग सम्भव बनाया। अब बैलों के स्थान पर घोड़ों का उपयोग किया जाने लगा। घोड़े तेजी से जुताई कर सकते थे। घोड़ों के लिये नाल का आविष्कार हुआ। नाल ने घोड़ों के खुरों को सुरक्षित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। पट्टों के उपयोग से अब घोड़ा अपने कंधे के सहारे बोझा खींच सकता था। पट्टों के उपयोग से एक साथ कई घोड़ों को जोता जाने लगा। घोड़े से खेत जोतने की प्रथा तेजी से बढ़ी परन्तु घोड़े काफी कीमती होते थे और इनका रखरखाव काफी खर्चीला होता था। इसे जुए पर टिकाना मुश्किल होता था। दक्षिणी फ्रांस और भूमध्यसागर में निर्बाध रूप से बैल और खच्चर खेत ही जोतते रहे।
'कृषीय उत्पादन का संयोजन और संगठन-इस चरण में सामूहिक कृषि का प्रचलन था। हल और खींचे जाने वाले जानवरों की कौमत अधिक होने के कारण एक परिवार हल-बैल का सम्पूर्ण खर्च नहीं जुटा सकता था। अतः सारे गाँव के खेत एक साथ जोते जाते थे। एक-दूसरे की जमीन को किसी सीमा के द्वारा बांधा नहीं जाता था।
जंगलों का काफी महत्त्व था। जंगलों से गाँव के लोग लकड़ी, फल, खरगोश, खरहा और अपने जानवरों के लिये चारा लाते थे।
एक परिवार को दोनों प्रकार के खेतों में हिस्सा जरूर मिलता था। एक खेत को बसन््त के आरम्भ में जोता जाता था, परन्तु उसमें फसल नहीं लगायी जाती थी। इसकी उर्वरता पुन: प्राप्त करने के लिए परती छोड़ दिया जाता था। इस परती भूमि के झाड़-झंखाड़ का उपयोग चारे के रूप में किया जाता था। खेतों की जुताई में झाड़-झंखाड़ जमीन के नीचे दब जाते थे, जो भूमि की उर्वरता बढ़ाने में सहायक होते थे।
अब खेत को तीन भागों में बाँककर तीन फसल ली जाने लगी। बीन्स, शीत ऋतु में उपजाए जाने वाला गेहूँ और ग्रीष्म ऋतु में उपजाये जाने वाला गेहूँ बोया जाने लगा।
अच्छी उत्पादकता प्राप्त करने के लिये फसल-चक्र प्रक्रिया को अपनाया गया। बीन््स और मटर की खेती करने से मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने में मदद मिली। इन फलियों से मिट्टी में नाइट्रोजन का तत्त्व बढ़ने लगा। इन फसलों को प्रोटीन युक्त पौष्टिक स्वाद मिलने लगा। पनचक्की और लोहे के बढ़ते उपयोग से खेती के कार्य में तकनीकी विकास हुआ।
कृषि उत्पादन, परिवहन व्यवस्था और वितरण की तकनीक का स्तर काफी निम्न था। जहाजों की भार वहन क्षमता में वृद्धि हुई, परन्तु उनकी संख्या अभी भी कम थी। 1280 के बाद कम्पास, क्वाड़्रैंट और समुद्री एस्ट्रोलोब ने समुद्री परिवहन को आसान बनाया।
अभी भी जीवन-निर्वाह कृषि अर्थव्यवस्था थी। पौष्टिक भोजन व चिकित्सा सुविधाओं के अभाव के कारण जीवन प्रत्याशा अभी भी कम थी।
दूसरा चरण, 11वीं एवं 14वीं शताब्दी-दूसरे चरण में कृषि उपज तथा जनसंख्या में वृद्धि हुई। सामुदायिक कृषि कार्य के स्थान पर किसान निजी तौर पर खेती करने लगे और बाजार के लिये उत्पादन किया जाने लगा। गैर-कृषीय वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि होने से अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। सामाजिक ढांचे में बदलाव आया।
जनसंख्या वृद्धि 11वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी के मध्य तक चली। 10वीं शताब्दी में कबीलाई आक्रमणों में तेजी से कमी आयी, जिससे क्षेत्र में शान्ति और सुरक्षा का वातावरण बना। सामाजिक संस्थाओं ने भी शान्ति और सुरक्षा बहाल करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। किसान परिवार में लगे कानून प्रतिबन्धों में ढील दी गयी, जिससे इस प्रक्रिया को बढ़ावा मिला। फ्रांस की जनसंख्या 120 लाख से बढ़कर 210 लाख, जर्मनी की जनसंख्या 80 लाख से बढ़कर 140 लाख और इंग्लैण्ड की जनसंख्या 22 लाख से बढ़कर 45 लाख हो गयी।
11वीं और 12वीं शताब्दी के बीच बड़े पैमाने पर खेतों को साफ कर उसे कृषि योग्य भूमि में तब्दील किया गया। स्पेन और दक्षिण फ्रांस में मरुस्थलीय क्षेत्र को सींचकर सिंचाई योग्य बनाया। छोटे-छोटे खेतों में भी खेती की जाने लगी। पशुपालन को बेहतर ढंग से संगठित और सुनियोजित किया गया।
अब खेती निजी तौर पर भी की जाने लगी। इस तरह कृषि क्षेत्र में व्यक्तिवादिता को बढ़ावा मिला। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को आजादी का अहसास होने लगा। नये प्रकार की काश्तकारी व्यवस्थाएँ, भूमि कर या लगान और कटाई पर आधारित हो गयी। सालाना लगान या तो निश्चित होता था या फिर उपज पर आधारित होता था।
कृषि क्षेत्र में तकनीकी विकास और आविष्कारों किसानों की उत्पादकता बढ़ा दी। अब कम से कम लोग खेती में संलग्न रहकर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर सकते थे और ज्यादा से ज्यादा लोग गैर-कृषि कार्यों में लग सकते थे।
शहर में गैर-कृषि कार्यों में लगे लोग व्यापारी, शिल्पी, महाजन, चिकित्सक, वकील आदि धनी थे और इनकी सामाजिक स्थिति भी मजबूत हो गयी। ये आर्थिक स्तर पर एक प्रभावशाली और शक्तिशाली शहरी समुदाय के रूप में उभरकर सामने आये। महाजनी करने वाले लोग कुलीन वर्ग तथा उच्चस्थ पुजारियों को भी वित्तीय संकट के समय धन से मदद करते थे। यह कार्य यहूदियों द्वारा किया जाता था, क्योंकि इस पर ईसाई धर्म की तरह किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। अधिशेष की वृद्धि ने लम्बी दूरी का व्यापार शुरू किया।
सामन््ती युग के दौरान उपभोग के लिये कर्ज लिये जाते थे। ईसाई धर्म के अनुसार उपभोग हेतु लिये जाने वाले कर्ज पर ब्याज नहीं लिया जा सकता था और आर्थिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी कर्ज नहीं लिया जा सकता था।
अभिजात वर्ग अपने अतिरिक्त लाभ को अपने शौर्य प्रदर्शन करने में उपहारों, भीखों और ईसाईयत के नाम पर दान कर देते थे। यह धन गैर-सृजनात्मक आर्थिक विकास कार्यों में लगता था। उच्चस्थ पादरी वर्ग चर्च बनाने, चर्च की मरम्मत करने तथा विलासितापूर्ण जीवनयापन करने के लिये धन खर्च करते थे। हालाँकि चर्च की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा गरीबों के जीवनयापन के लिये होता था।
चर्च और कुलीन वर्ग विलासिता की वस्तुओं को खरीदने के लिये मुद्रा खर्च करते थे। सिक्कों का प्रचलन सीमित मात्रा में होता था। वेनिस, फ्लोरेंस, फ्लैंडर्स, इंग्लैण्ड, फ्रांस और बोहेमिया में 12वीं शताब्दी में चाँदी के सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ।
अर्थव्यवस्था के विकास से कृषकों का स्तरीकरण हुआ और पूरे समाज में असमानता का विकास हुआ। नई कृषि योग्य भूमि बनाने वाले किसानों को रियायतें और स्वतंत्रता दी गयी। अब मजदूरों को अधिपतियों के यहाँ काम करना जरूरी नहीं था। नियमित शुल्क देकर काम से छुटकारा पाया जा सकता था। सेवाओं के बदले में नकदी दी जाने लगी। अब मजदूर खेती के अलावा अन्य कार्य भी कर सकते थे और अधिपति इन शुल्कों का उपयोग मजदूरों की मजदूरी भुगतान में प्रयोग था। छोटे किसानों की आर्थिक निर्भरता बढ़ी और उनकी आर्थिक स्थिति खराब हुई।
बड़े किसान के अलावा कई नागरिक शक्तिशाली अधिपतियों और बड़े शहरों के गिरजाघर, छोटे और मंझोले किसान आदि नाइट वर्ग के बल पर अमीर बने, जिन्होंने कर्ज में डूबकर अपनी जमीन बेच दी थी। अधिपतियों के स्तरीकरण और विभाजन इस काल की प्रमुख विशेषता थी। अभिजात वर्ग में नाइट और लॉर्ड या मिलिटेस और बेलाटौर्स का विभेदीकरण बढ़ा, जिनकी वे सेवा करते थे। साथ ही साधारण और छोटे अधिपतियों के बीच भी काफी भेद बढ़ गया। सामन्ती वर्ग विशेषाधिकारों पर ही आश्रित होता चला गया।
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