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'जैव-विविधता' शब्द से आप क्‍या समझते हैं?

जलवायु और प्राकृतिक विविधता के कारण पारितंत्र में व्याप्त जीवन के विविध स्वरूप को ही जैव-विविधता कहा जाता है। जैव-विविधता शब्द का उपयोग प्रकृति और इसकी जैव-सम्पदा के लिए किया जाता है। जैव-विविधता शब्द के अन्तर्गत पेड़-पौधे, जीव-जन्तुओं एवं सूक्ष्म प्राणियों से सम्बद्ध जीवन के सभी स्वरूपों को शामिल किया जाता है।

जैव-विविधता को ठीक से समझने के लिए आवश्यक है कि जैव संरचना से सम्बद्ध घटकों के संबंध में जाना जाए। जैव-विविधता मुख्यत: जैव संरचना के तीन मौलिक घटकों, यथा-पारितन्त्र, प्रजाति, आनुवंशिकी की एक-दूसरे से सोपानवत्‌ सम्बद्धता को प्रकट करती है। जैव-विविधता शब्द में जीवन के तमाम स्वरूपों को इंगित करने की क्षमता है। इस कारण जीव-जन्तु, पेड-पौधे तथा अन्य सभी जैव पदार्थों के जीवन के बीच सम्बद्धता जैब-विविधता की परिभाषा के अन्तर्गत आ जाती है। इस कारण जैव-विविधता से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि यह मानव जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है।

भारत जैसे प्राकृतिक एवं जलवायु विविधता वाले देश में जैव-विविधता अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत में लगभग 65,000 प्रजाति के जीव-जन्तु निवास करते हैं। इनमें 2546 प्रजाति की मछलियाँ हैं, 1228 प्रजाति के पक्षी, 5000 प्रजाति के चूर्ण प्रावार प्राणी, 40,000 प्रजाति के कौड़े-मकोड़े, 428 प्रजाति के सरीसृप, 372 प्रजाति के स्तनपायी और 204 प्रजाति उभयचरों की हैं। इनमें से 81 प्रजातियाँ स्तनधारियों की, 47 प्रजातियाँ पक्षियों की, 15 प्रजातियाँ सरीसृपों कौ, 3 प्रजातियाँ उभयचरों की तथा अनेक प्रजातियाँ कौड़े-मकोड़ों की लुप्तप्राय हैं।

इस प्रकार की विविधता के कारण जैव-विविधता महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत जैसे देश में यह बड़ी संख्या में लोगों की मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति करती है। आज भी अनेक समुदाय, जो प्राकृतिक अवस्था में जीवन-यापन करते हैं, पूर्णतः या आंशिक रूप से भोजन, वस्त्र, आवास, दवा, घरेलू सामान, खाद, मनोरंजन आदि के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करते हैं।

जैव-विविधता के महत्त्व को देखते हुए इसमें हो रहे तीव्र हास मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी हैं। जैब-विविधता में होने वाले हास में मुख्य कारण मानवीय हस्तक्षेप और जीव-जन्तुओं के आवासीय परिवेश का विनाश है। मनुष्य अपने आर्थिक लाभ हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक एवं अनियन्त्रित दोहन करता है। इस कारण हवा, जल, भूमि, प्रदूषण, मौसम एवं पर्यावरण में परिवर्तन होने लगे हैं। इन सबके फलस्वरूप पारितन्त्र की कई प्रजातियों का लोप हो गया है या कई लुप्तप्राय हैं।

जैव-विविधता के लाभों को देखते हुए यह आवश्यक है कि इसका संरक्षण सुनिश्चित किया जाए। हालाँकि जैव संरक्षण के कार्य भारत में प्राचीनकाल से होते आ रहे हैं। संरक्षण के ये उपाय स्थानीय ज्ञान पर आधारित होते हैं तथा यह एक सामुदायिक प्रयास का फल है। आधुनिक काल में वैज्ञानिक पद्धति से जैव-विविधता के संरक्षण के प्रयास किये जा रहे हैं। इस कार्य के सुचारु संचालन के लिए कई संगठनों का भी गठन किया गया है। भारतीय जीव सर्वेक्षण विभाग (1961 में स्थापित), भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग (1980 में स्थापित), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओसोनोग्राफी तथा कई अन्य संगठन एवं विश्वविद्यालयों के सहयोग से जीवन के विभिन्‍न स्वरूपों का सर्वेक्षण एवं दस्तावेजीकरण किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वन क्षेत्र को बढ़ाने पर जोर देना, राष्ट्रीय अभयारण्य का निर्माण, पशु एवं पक्षी विहार का निर्माण जैब-विविधता, संरक्षण में सहायक साबित होंगे।

जून, 1992 में रियो डि जेनेरिओ के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में ऐतिहासिक जैव-विविधता संधि पर विश्व के लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर कर वर्तमान विश्व में जैव-विविधता के संकट एवं उसके संरक्षण की आवश्यकता को स्वीकार किया। यह ऐतिहासिक संधि दिसम्बर, 993 से क्रियान्वित हुई। इस संधि के अन्तर्गत जैव-विविधता बनाए रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में परस्पर संसाधनों एवं तकनीकों के द्वारा सहयोग करने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया।

भारत में अन्तर्राष्ट्रीय जैब-विविधता कानूनों की पर्याप्त जानकारी के अभाव में हमारी निष्क्रियता के कारण अन्य देशों के वैज्ञानिक हमारी मूल सम्पदा, जैसे-नीम, हल्दी, बासमती जैसी वस्तुओं को पेटेण्ट कराने में सक्षम हैं। इसके तहत भारत सरकार द्वारा 1998 में जैब विविधता अधिनियम का प्रारूप तैयार किया गया। इसके अनुसार एक नेशनल बायोडाइवर्सिटी अथॉरिटी की स्थापना का प्रस्ताव है, जो जैव संरक्षण की समीक्षा एवं समुचित कार्यवाही पर ध्यान देगा।

कुल मिलाकर जैव-विविधता मानव-जाति के अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है। इस विविधता में मनुष्य द्वारा अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों के अनियन्त्रित दोहन से संकट उत्पन्न हो गया है, जिसे हर कीमत पर बचाना आवश्यक है।

जलवायु और प्रकृति के स्वरूप में व्याप्त विविधता के कारण पारितन्त्र में व्याप्त जीवन के विभिन्‍न स्वरूपों को ही जैव-विविधता कहते हैं। पेड-पौधे, जीव-जन्तु एवं सूक्ष्म प्राणियों के सम्मिलित जीवन को जैव-विविधता के अन्तर्गत देखा जाता है। जैव-विविधता मुख्य रूप से जैव संरचना के तीन मौलिक घटकों, जैसे-पारितन्त्र, प्रजाति, आनुवंशिकी की एक-दूसरे से सोपानवत सम्बद्धता को प्रकट करता है। इन्हीं कारणों से जैव-विविधता का महत्त्व मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है।

जैव-विविधता भारत जैसे देशों में अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत जैसे देशों में एक विशाल जनसमूह अपनी आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति जैव-विविधता से ही करता है। पारम्परिक समुदाय अर्थात वनों में रहने वाले लोग अपने भोजन, वस्त्र, आवास, दवा, घरेलू सामान, खाद, मनोरंजन जैसी दैनिक जरूरतों के लिए अपने आस-पास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर करते हैं। जैव-विविधता का बना रहना खाद्य श्रृंखला के लिए अति आवश्यक है, क्योंकि खाद्य श्रृंखला के लिए प्रत्येक प्रजाति किसी दूसरी प्रजाति पर निर्भर करती है। अतः: किसी प्रकार के भी व्यवधान इस विविधता में आने पर पूरी श्रृंखला में अव्यवस्था पैदा हो जाएगी। इस कारण जैव-विविधता का संरक्षण पृथ्वी पर जीवों के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है। जैव-विविधता के प्रत्यक्ष उपयोग एवं उत्पादन सम्बन्धी लाभों, यथा-खाद्यान्‍्न, शाक-सब्जियाँ, फल, पेड्-पौधे, दवा, इमारती लकड़ी, तेल, वन्य उत्पाद, अण्डा आदि के साथ-साथ गैर-उपभोग सम्बन्धी लाभ भी अति महत्त्वपूर्ण हैं। जैव-तकनीकी, जल एवं पोषक तत्त्व चक्र नियन्त्रण, मौसम पर नियन्त्रण, कार्बन स्थिरीकरण आदि के लिए कच्चा माल प्रदान कराने में जैव-विविधता की भूमिका उल्लेखनीय है। 

विकासशील एवं अविकसित देशों में 80 प्रतिशत जनता अपने प्राथमिक उपचार के लिए प्राकृतिक दवाओं पर निर्भर करती है। भारत में जो दो चिकित्सा पद्धति-आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा-प्रकृतिप्रदत्त उपादनों पर ही निर्भर करती हैं। आयुर्वेद की अधिकांश दवाएँ पेड-पौधों और जीव-जन्तुओं एवं खनिज लवणों से प्राप्त होती हैं। अब तक ज्ञात लगभग 20000 प्रजातियों के पेड-पौधों का उपयोग दवा के लिए होता है। इसके साथ ही पश्चिमी चिकित्सा पद्धति अर्थात एलोपैथी में प्रयुक्त होने वाली एक-चौथाई दवाएँ पेड-पौधों से ही निर्मित होती हैं।

इसके अतिरिक्त आनुवंशिक विविधता के कारण ही फसलों एवं मवेशियों की नयी-नयी संकर प्रजातियों को विकसित कर पाना सम्भव हुआ है। नई संकर प्रजाति की फसलों के विकास के कारण ही तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना सम्भव हो सका। 

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैव-विविधता एक ऐसा बहुठपयोगी संसाधन है, जिसके बगैर मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

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