स्वतंत्रता का आशय ग्रामीण भारत के लिए शहरी भारत से बिल्कुल विपरीत था। विदेशी सत्ता ने ग्राम-शिल्प व उद्योग-धंधों का पहले ही विनाश कर दिया था और शेष कमी को जमींदारी तथा ताल्लुकेदारी व्यवस्था ने किसानों का शोषण करके पूरा किया। किसानों ने आजादी की लड़ाई में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, लेकिन आजादी के बाद भी उन्हें आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं हुए, अपितु उनसे पहले से प्राप्त स्थान भी उनसे लगातार छिनता चला गया। इसका कारण स्वतंत्र भारत की अर्थव्यवस्था में अचानक आए परिवर्तन को उपयुक्त तैयारी के बिना लागू करना था। कृषि प्रधान देश को आनन-फानन में औद्योगीकरण के मॉडल के अनुरूप बनाने का प्रयास तो भरपूर किया गया, किन्तु गांव शहरों के उपनिवेश ही बने रहे। इससे जो असंतुलन पैदा हुआ, उससे औद्योगीकरण की आवश्यकताओं को पूर्ण न कर पाने की दशा में कृषि भूमि का निरंतर हास होता चला गया, जिसके परिणाम शिल्पी व श्रमिक वर्गों के पलायन तथा विस्थापन के रूप में बड़े पैमाने पर दिखाई देने लगे।
कृषि और किसान का अस्तित्व उससे जुड़े होने के कारण पराधीन भारत में जमींदारी व्यवस्था किसानों की बदतर स्थिति के लिए उत्तरदायी थी, लेकिन आजादी के उपरांत भी इनकी स्थिति में अधिक सुधार नहीं हुआ, क्योंकि जमींदारी उन्मूलन से संबंधित कानून अधिकांश राज्यों में देर से लागू किए गए। साथ ही इन कानूनों में भी खेतिहर व भूमिहीन किसानों की उपेक्षा की गई। फणीश्वरनाथ रेणु की कर्मस्थली व रचनास्थली बिहार का “पूर्णिया' ग्राम-अंचल बना है।
जमींदारी उन्मूलन कानूनों तथा सुधारों से आजादी के बाद बदलाव आने से किसानों की स्थिति में सुधार की आशा की गयी, किन्तु स्वतंत्रता का पहला दशक केवल स्वप्न बनकर रह गया। स्वतंत्रता के बाद प्रथम दशक में नयी कहानी में टूटते परिवार, असफल विवाह, अवसाद, अहंकेन्द्रित टकराव जैसी शहरोन्मुखी संवेदना सामने आयीं। श्रीलाल शुक्ल, रेणु, नागार्जुन, अमरकान्त जैसे कथाकारों ने ग्राम विकास योजना पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ग्राम जीवन का वर्णन किया। नयी कहानी के कथाकारों ने ग्राम्य जीवन को शहरीकरण की प्रक्रिया के मध्य गांव से विस्थापित होकर शहर में बसने वाले लोगों के माध्यम से विविध स्थितियों को अपनी कहानी की विषय-वस्तु का प्रमुख आधार बनाया। स्वाधीनता के बाद के गांवों में लोक जीवन को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया, लेकिन यह प्रेमचन्द की कहानियों में भिन्नता तथा नवीनता लिए हुए है।
नयी कहानी के शिल्प में ग्राम-संवेदना में आंचलिकता को प्रमुख स्थान दिया गया। इस आंचलिकता में वस्तु-सामग्री तथा शिल्प कौशल सहित स्थानीयता, भौगोलिक-प्राकृतिक परिस्थितियां, निवासियों का चरित्र आदि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। साथ ही ग्रामीण जीवन की पद्धति, घटनाक्रम और चरित्र-व्यवहार जैसे तत्त्व भी इसमें सम्मिलित किए गए। बलवंत सिंह के “काले कोस', 'दो अकालगढ़' जैसे उपन्यास आंचलिकता के अप्रतिम तथा विशिष्ट उदाहरण हैं।
स्थानीयता आंचलिकता का अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व है कि यह स्थानीय भाषा, परिवेश, तीज-त्यौहार, रहन-सहन तथा लोक-जीवन के सूक्ष्म-निरीक्षण द्वारा साकार सामने आती है। स्थानीयता में परिवेश की वास्तविकता लोक जीवन के तत्त्व तथा पात्रों की जीवतंता समहित होती है, इसलिए ग्राम-अंचल की कहानी ठोस परिवेश की कहानी का रूप लेते हुए क्षेत्र विशेष की आंचलिकता को प्रस्तुत कर पाती है। हिन्दी कथा-साहित्य आंचलिकता के प्रारंभ का श्रेय रेणु के उपन्यास “मैला आंचल' को जाता है।
रेणु ने औद्योगीकरण की भीड़ से 'लोक-जीवन' को हटाकर उसकी सांस्कृतिक चेतना तथा उससे अनुप्राणित जीवन पद्धति को अपनी रचनाओं में उभारा। उनका प्रत्येक पात्र व्यक्ति के रूप में विशिष्ट तथा साकार रूप ग्रहण करता है।
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