राष्ट्रवाद एक भावना है, जिसका संबंध मातृभूमि, एक साझी भाषा, आदर्श, मूल्य और ऐतिहासिक परम्पराओं, मान्यताओं व रीति-रिवाजों से है। यूरोप में रोमन कैथोलिक चर्च के पतन के बाद यह 8वीं, 9वीं और 20वीं सदी का धर्म बन गया।
राष्ट्रवाद ने उदारवाद, समाजवाद और साम्यवाद का दामन पकड़ा और विजय प्राप्त की। 15वीं व 17वीं शताब्दी में ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैण्ड में फिर संयुक्त राज्य अमेरिका व लैटिन अमेरिका आदि में राष्ट्रवाद का उदय हुआ तथा इटली व जर्मनी के राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। इन देशों के निर्माता गैरीबाल्डी, कावूर तथा बिस्मार्क की गणना विश्व इतिहास के महान व्यक्तियों में की जाती है।
राष्ट्रवाद के उदय ने प्रथम विश्व-युद्ध में टर्की के साम्राज्य और खिलाफत को, आस्ट्रिया, हंगरी की साम्राज्यवादी धारणा व सम्राट् कहलाने की धारणाओं को नष्ट कर दिया। द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैंड व पुर्तगाल और बेल्जियम आदि के साम्राज्य का पतन, तथा नब्बे के दशक में सोवियत रूस के विघटन ने राष्ट्रवाद के शक्तिशाली रूप को प्रदर्शित किया तथा यूगोस्लाविया और चेकोस्लोविया के विघटन, फिलीस्तीन के विभाजन, भारत के विभाजन और पाकिस्तान से बंगलादेश के विभाजन ने स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रवाद एक शक्तिशाली भावना है। वर्तमान में भूमण्डलीकरण तथा मार्क्सवादी विचारों ने राष्ट्रवाद को चुनौती दी है तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों व बहुद्देशीय निगमों आदि ने भी इसके प्रभाव को कम किया है। परन्तु राज्यों की संप्रभुता के कारण राष्ट्रवादी भावना अब भी सर्वोपरि है।
राष्ट्रवाद क्या है?
गेलयर के अनुसार-राष्ट्रवाद प्रमुख रूप से एक राजनीतिक सिद्धांत है, जिसके राजनीतिक इकाई और राष्ट्रीय इकाई में अनुरूपता होनी चाहिए। इसका संबंध एक स्वदेश, एक भाषा, एक आदर्श, जातिगत मूल्यों, परम्पराओं, रीति-रिवाज, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक धारणाओं से जुड़ा होता है।
बेंथम के अनुसार राष्ट्रवाद के लिए आर्थिक, सैनिक और सांस्कृतिक कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी होते हैं। जब राज्य एक भाषा और संस्कृति थोपने में सफल होता है, तो राष्ट्रवाद का जन्म होता है तथा समूह के प्रति आस्था और जुड़ाव की भावना इसको सशक्त बनाती है।
इसके प्रमुख दृष्टिकोण निम्नलिखित हैं:
1. मानवताबादी-इसके अनुसार राष्ट्रवाद में समान भाषा व ऐतिहासिक परम्परा होती है।
2. विस्तारवादी-इसमें राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक बंधन में बांधने का साधन माना जाता है, परन्तु यह साम्राज्यवादी विस्तार का साधन बन गया है।
ये दोनों उदारवादी दृष्टिकोण माने जाते हैं।
3. मार्क्सवादी
4. फासीवादी दृष्टिकोण
5, साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण
6. धार्मिक या जातिवादी या यथार्थवादी दृष्टिकोण
मानवतावादी दृष्टिकोण, एक समान भाषा और ऐतिहासिक परम्परा पर आधारित होता है। इटली के मेजिनी ने इसी पर बल दिया था।
विस्तारवादी दृष्टिकोण-राष्ट्र के विस्तारवादी दृष्टिकोण के समर्थक विकसित और सभ्य देशों के विस्तार को अविकसित देशों के विकास और सभ्यता व सांस्कृतिक उत्थान के लिए आवश्यक मानते थे। वे इसे White men’s Burden का रूप देते थे। किपलिंग का
Take Whitemen’s Burden
Send the best you breed
To serve your coptive’s need
हे सभ्य देशवासियों तुम सभ्य और सुन्दर होने के कारण बोझा उठाओ और सबसे उत्तम व्यक्तियों को अपने अधीन देशों की आवश्यकता पूर्ति करने के लिए उन्हें अपने अधीन देश में भेजो जिससे कि वह एकरूपीय संस्कृतिक व राजनीतिक बंधन में बंध सकें। उल्लेखनीय है कि पहले राष्ट्रवाद को एकरूपीय समूह को सांस्कृतिक बंधन में बांधने का साधन माना जाता था वही अब अपने आपमें एक लक्ष्य और साम्राज्यवादी विस्तार का साधन बन गया। यह यूरोप के देशों के हाथों में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अविकसित देशों को जीतने का एक शक्तिशाली औजार बन गया।
मार्क्सवादी दृष्टिकोण-मार्क्स के अनुसार-सम्पन्न और प्रभुतासंपन्न वर्ग तथा सर्वहारा वर्ग का संघर्ष ही इतिहास है। उसके अनुसार राज्य राष्ट्रीयता का नहीं, बल्कि वर्गविहीन समाज का प्रतिनिधित्व करता है। अत: राष्ट्रवाद बुर्जुआ हितों की अभिव्यक्ति है। मार्क्स के अनुसार यूनानी व रोमन राज्य दासों के शोषण पर, मध्यवर्गीय राज्य सामन्तों द्वारा कृषक दासों और वर्तमान पूँजीवादी-उदारवादी राज्य मजदूरों के शोषण पर आधारित हैं। उसके अनुसार सर्वहारा वर्ग और मजदूरों का कोई राष्ट्र या देश नहीं होता। अत: सर्वहारा वर्ग के हित में राज्य की समाप्ति आवश्यक है।
लेनिन के अनुसार सोवियत संघ साम्राज्यवादी देशों के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग का साथी है। स्टालिन ने सोवियत राज्य के अन्दर विभिन्न राज्यों को स्वायत्तता दी और विधान बनाने व भाषा और संस्कृति के विकास करने का अधिकार दिया। उन्हें केन्द्रीय स्तर पर भी समानता प्रदान की तथा साम्यवादी दल ने सोवियत यूनियन में एकता उत्पन्न करके और देश में समाजवादी नीति अपना कर विश्व क्रांति का अगुआ बनने का प्रयास किया।
परन्तु चीन में साम्यवाद के उदय और स्टालिन की मृत्यु से इस नीति को धक्का लगा। 1990 के दशक में सोवियत संघ और यूगोस्लाविया के टूटने से यह प्रमाणित हो गया कि जातीय, धार्मिक और अन्य पहचानें “वर्गीय निष्ठाओं' की तुलना में अधिक प्रभुत्वशाली हैं।
मार्क्सवादी सिद्धांत बुर्जआ व पूँजीवादी वर्ग को शत्रु मानता है। वह राष्ट्रवाद, विदेशी साम्राज्यवाद और औपनिवेशक शासकों को शत्रु मानता है। परन्तु राष्ट्रवाद जहाँ संस्कृति को प्राथमिकता देता है, वहीं मार्क्सवाद में प्रत्येक घटना के पीछे आर्थिक कारण होता है। इसके अन्तर्गत जाति, भाषा, धर्म और एकता व क्षेत्रीयता को नजरअंदाज किया जाता है।
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