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प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में तमिलकम में राजनैतिक व्यवस्थाओं के स्वरूप का संक्षेप में विश्लेषण कीजिए। पूर्व-राज्य से राज्य की ओर संक्रमण कैसे हुआ?

तमिल वीर साहित्य के अध्ययन से हमें तमिलकम में मुखियातन्त्रों की प्रकृति के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि मुखियातन्त्र की संरचना और तमिल वीर साहित्यिक परम्परा का जन्म एक ही साथ तमिलकम में हुआ था। अशोक के शिलालेख जो तीसरी सदी ई.पू. के हैं, में सतियापुत अतियमान के साथ-साथ तमिल क्षेत्र में प्रमुखों, जैसे-चेर, चोल, पाण्ड्य (केरलपुटा, चोड़ा तथा पाण्ड्या) का भी वर्णन है। तमिल मुखियातन्त्र दूसरी सदी ई.पू. से ही अस्तित्व में था, जो तीसरी सदी के अन्त तक कायम था, इस बात की पुष्टि तमिल वीर साहित्यिक रचनाओं, तमिल, ब्राह्मी अभिलेखों तथा यूनानी और रोमन भूगोलशास्त्री (टाल्मी एवं टिलनी) में वर्णित तथ्यों से होती है। मुखियातंत्रों की सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया के पुरातत्त्वीय प्रमाणों से हमें पता चलता है कि पहली ई.पू. सहस्त्राब्दी के मध्य में लोहा प्रयोग करने वाली संस्कृति थी, जिसकी प्रमुख विशेषता महापाषाणी स्मारक हैं। महापाषाणी कब्रों तथा तमिल वीर काव्यों से सम्बन्धित दस्तावेज एक साथ ही पाए गए हैं। इन दोनों संस्कृतियों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। इस काल में लोग अपने जीवनयापन के लिए समान सांस्कृतिक प्रथाओं द्वारा आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। मुखियातन्त्रों की सत्ता के विभिन्न स्तरों का वर्णन कविताओं में पाया जाता है। इससे यह भी पता चलता है कि सत्ता का बाँटवारा छोटे तथा बड़े समूहों के बीच में था। इनमें से कुछ का स्वरूप सरल तथा कुछ का जटिल था। वीर कविताओं से यह भी पता चलता है कि मुखियातन्त्र तीन प्रमुख प्रणालियों-किलार, वेलिर और वेन्तार में विभाजित थे। किलार प्रमुख वेतार तथा कुरावर वंश के थे, जो आखेटक प्रमुख हुआ करते थे। इसी तरह वेलिर प्रमुख भी वेतार अथवा कुरावर आखेटक प्रमुख हुआ करते थे। कुछ किलार प्रमुखों के नियंत्रण में कृषि भूमि थी और इसी कारण वे साधनसम्पन्न भी थे। किलार खेतिहर बस्तियों में निवास करते थे।

वेलिर प्रमुखों की जो सत्ता थी, वह सबसे पुरानी थी और साथ-ही-साथ वंश परम्परा के प्रति प्रतिबद्ध भी थी। कावेरी तथा वैगाई की घाटियों के बीच एक अर्द्धशुष्क क्षेत्र था, जिसमें पारम्परिक पाँच वेल थे। इनमें से एक उरूनको बेल नाम के प्रमुख का वर्णन एक कविता में वेतारकोमन (वेतार प्रमुख) के रूप में मिलता है। प्रमुखों की लम्बी पीढ़ी में इसका स्थान उनचासवीं पीढ़ी में था। कविताओं से ही पता चलता है कि वेलिर प्रमुखों का नियंत्रण कुरिन्‍्जी और मुल्लई नामक चरागाही पहाड़ी भूक्षेत्रों पर भी था। वे वेतार, इटैयार तथा कुरेवार वंश समूहों के पहाड़ी क्षेत्रों के भी प्रमुख थे। कविताओं से पता चलता है कि ज्वार-बाजरा से सम्पन्न पहाड़ी क्षेत्र के प्रसिद्ध मुखियातन्त्र इस प्रकार थे-वेंकटमलाई, कान्तिस्मलाई, मुतिरामलाई, कुटिरामलाई, पराम्पूमलाई, पोटिभिमलाई, पयरमलाई, एलिमलाई तथा नाजिलमलाई। केरल का सर्वाधिक प्रसिद्ध पहाड़ी मुखियातन्त्र एलिमलाई था। नन्नान, वेतार प्रमुख तथा वंशक्रम के कान्तिर्मलाई के प्रमुखों से पारिवारिक सम्बन्ध थे। केरल की दक्षिणी सीमा के पोतिभिमलाई के साथ एक अन्य मुखियातन्त्र के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। कविताओं में अय की यशगाथा कुरवारपेरूमकन के रूप में की गई है। पोटीइमलाई पहाड़ी क्षेत्र का शासक एक कुरवार प्रमुख था और इस क्षेत्र में मधु, कटहल, हाथी तथा बन्दर आदि पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थे। अन्य प्रमुख को मावेल या महान वेल भी कहा जाता था और ये लोग अन्य परिवार से सम्बन्धित थे। जिस शब्द का सम्बन्ध चरवाहों से था और उसके प्रमुखों का यह भी कहना था कि वे वृस्मी कुल से भी सम्बन्ध रखते थे लेकिन इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि वे चरवाहों के प्रमुख थे। परम्पुमलाई पारी का प्रमुख था, ओरी 'कोल्लिमलाई के प्रमुख थे। काटि ओरि को मारकर उस पहाड़ी क्षेत्र का प्रमुख बन गया। इलिनी कुटिर्मलाई और पेकन का प्रमुख था।

वनमलाई के प्रमुख का नाम कुमानन तथा मुतिरामलाई का प्रमुख सभी वेतार या कुरावर आखेटक प्रमुखों में सबसे प्रसिद्ध प्रमुख थे। कुछ जगहों पर पहाड़ी प्रमुखों को वेतुवर के नाम से जाना जाता है। लेकिन सभी वेलिर पहाड़ी क्षेत्र के प्रमुख नहीं थे, जैसे कि इलिनी, वेतारू का प्रमुख एक वेल था, जिसके नियंत्रण में नीचे की कृषि भूमि थी।

चेर, पाण्ड्य और चोल नामक तीन प्रमुख वंशों का प्रतिनिधित्व करने वाला 'वेन्तार' समूह राजनैतिक सत्ता का दूसरा वर्ग है। इन तीनों को कविताओं में मुवेन्तार अथवा मुवार नाम से भी जाना जाता है। कविताओं में ही यह भी वर्णित है कि उनके केन्द्रीय क्षेत्र क्रमश: करूर, मदुराई और उरऐमूर थे तथा परिसीमा के सामरिक स्थल क्रमश: मुचिरी, कोरकाई और पुहार थे। समुद्र के पश्चिमी घाट के कुरिन्जी क्षेत्र चेरों के नियंत्रण में थे। इसी तरह तमिलकम का दक्षिणी केन्द्रीय क्षेत्र का मूल्लई, पलाई और नेइतल भू-भाग पाण्ड्यों के नियंत्रण में था तथा मारूतम नरीवाला घाटी क्षेत्र जो कावेरी के नाम से जाना जाता था, चोलों के कब्जे में था। उस काल में भूमियों के सीमांकन की कोई स्पष्ट धारणा विकसित नहीं हुई थी और कविताओं से भी यह जानकारी प्राप्त नहीं होती कि प्रत्येक के अधिकार में वास्तव में कितना क्षेत्र था। बाहटी सीमा तक पहुँचना अधीनस्थ प्रमुखों के अधीन था। सीमा से बाहर इनका प्रभाव कम हो जाता था या फिर घटता-बढ़ता रहता था।

कविताओं में उनके पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के अनुसार चेरों को 'कनक नातन', जिसका अर्थ होता है नातुवन प्रमुख अथवा “मलाईयन' जिसका अर्थ होता है मलाई, पहाड़ी प्रमुख भी कहा गया है। एक कवि ने अपनी भावना को व्यक्त करते हुए 'चेरामन कोटाई मारपन' की प्रशंसा में एक कविता की रचना की, जिसमें वह यह जानने को उत्सुक है कि प्रमुख को वास्तव में किस प्रकार सम्बोधित किया जाए।

उसके पास “मारूतम प्रदेश' होने के कारण उसे “नातन' कहा जाए, या उसके पास “कुरिन्जी' प्रदेश होने के कारण उसे “उरा' कहा जाए या फिर उसके पास तटीय प्रदेश होने के कारण 'चेरापन' कहा जाए। इन बातों से इस तथ्य का पता चलता है कि चेरों का क्षेत्र अनेक पारिस्थितिकीय क्षेत्रों का मिश्रित रूप था, जहाँ पहाड़ और वन अधिक मात्रा में पाए जाते थे। इसी कारण चेरों का संसाधन आधार भी विविधतापूर्ण था और वन सम्पत्ति मुख्य संसाधन थे। इसी तरह एक कविता में चेरन चेंकुट्टुबन के पहाड़ी उत्पाद (मलाईतरम) तथा समुद्रीय उत्पाद (कट-अर्ररअरम) और स्वर्ण का वर्णन है, जो नौकाओं द्वारा तटों पर लाया जाता था। पाण्ड्यों का भू-भाग भी मिश्रित पारिस्थितिकीय क्षेत्र था, जिसके अधिकांश भागों में चरागाह तथा तटीय भू-भाग था। एक पाण्ड्य समूह का प्रमुख स्वयं को अनेक संसाधनों के देश (यानार मय्यार कोमान) का प्रमुख मानता था। चोल जो कविताओं में “काविरि किलामन' के नाम से जाना जाता है, की भूमि “कावेरी' के मुहाने डेल्टा में थी और यह भूमि धान और गन्ने से सम्पन्न थी।

“वेन्तार' श्रेणी के जो प्रमुख थे, वे संसाधनों को भेंटों और भुगतान के रूप में प्राप्त करते थे। ऐसी मान्यता है कि प्रारम्भ में वसूली का तरीका लूटपाट था। अधीनीकरण की प्रक्रिया में ऐसा प्रतीत होता है कि तीन विभिन्न प्रक्रियाओं को प्रयोग में लाया जाता था-अधीनता, निष्कासन और वैवाहिक सम्बन्ध। कविताओं में वर्णित आलेख से यह ज्ञात होता है कि इन विधियों का प्रयोग वेन्तार क्षेत्र के विस्तार के लिए किया जाता था। कविता में ही वर्णित उल्लेख के अनुसार मान्जिनमलाई का प्रमुख वेल्लुवन चेरों के अधीन था और उसे सैनिक सहायता प्रदान करने का दायित्व सौंपा गया था। इसी प्रकार पसारमलाई और वेलारू के प्रमुख भी चेर के अधीन थे। इसी प्रकार नलई का किलावन जो नाकन था, उसे नाम्जी नेतुनसिलियन को सैनिक सहायता देने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और वह पाण्ड्यों के अधीन था। कुछ कविताओं में इनाती (सेनापति) विरुनकुट्टवन, इनाती तिरुम्किल्‍ली तथा इनाती तिरुकान्नान की चोलों के इनाती के रूप में प्रशंसा मिलती है। “पन्नम' चिरकुटी के किलान तथा अरूवन्ताई, अय्यार को सैनिक सहायता देने का दायित्व दिया गया था। वे भेंट देने के लिए भी मजबूर थे। वे चोलों के अधीन थे। कभी-कभी छोटे-छोटे समूहों के प्रमुख जो सीमान्त पर निवास करते थे, वेन्तार वंशों जैसे चेर एवं पाण्ड्य के अधीन रहने के लिए विवश होते थे। काव्यों में यह भी वर्णित है कि अधीनस्थ प्रमुख वेन्तार अपने संसाधनों का एक भाग भेंट (तिरई या कोल) के रूप में अदा करते थे तथा तभी वे निडर रहते थे। चेरामन चेलवाकाटुन्कों बहुत-से मन्नारों से तिराई प्राप्त करता था। लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि वेन्तार को अक्सर तिरई वसूलने के लिए बहुत-से प्रमुखों की बस्तियों पर हमला करना पड़ता था। चोलों के विषय में तो यह प्रकट ही है कि वह वेन्तार कुटिमक्कल से धान (पुरावु) वसूली करता था। कविताओं में इसी कारण तीनों वेन्तारों को इरेवन अर्थात्‌ निचोड़ने वाला कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि वेन्तार लोगों से उनके क्षेत्रों की संसाधन क्षमता के अनुसार जमकर वसूली करते थे, जिसे 'कर' कहा जाता था।

वेन्तार आदान-प्रदान के सम्बन्धों से प्राप्त संसाधनों के कारण स्वर्ण और अमूल्य वस्तुओं के मालिक थे। लेकिन यह बात स्पष्ट नहीं है कि वे विनिमय प्रक्रिया में किस तरह शामिल हुए। कविता से पता चलता है कि वेन्तार का प्रमुख काम संसाधन जुटाना तथा उसका प्रयोग सामाजिक सम्बन्धों के निर्धारक प्रतिमान के अनुसार पुनर्वितरित करने का था। लूटपाट करना उनके लिए अनिवार्य था, क्योंकि उनका पुनर्वितरण तंत्र बहुत ही विस्तृत और जटिल था। बहुत बड़ी संख्या में उनके नातेदार (किलाइनार), विद्वान चारण (पुलावर), योद्धा प्रमुख (मारावार, किलार एवं मन्नार), योद्धा लोग (मारावार), भाट (पनार एवं पोरूनार) , जादू-टोना तथा धार्मिक कार्यकर्त्ता आदि उन पर आश्रित थे। वेतची (पशुओं के लिए हमला), करनताई (पशुओं की वसूली), वनजी (प्रमुखों द्वारा हमला), कांगी (प्रमुख द्वारा हमलों का प्रतिरोध) तथा तुमपाई (हमले के लिए तैयारी) आदि के विषय में जो कविताओं में प्रतीकात्मक वर्णन है, उससे पता चलता है कि लूटपाट एक सामान्य घटना थी, और यह एक संस्था का रूप ले चुकी थी। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि वेन्तार के पास अपनी कोई सेना या योद्धा थे, लेकिन उनके पास लड़ाकू वंश के पर्याप्त लोग थे। आवश्यकता पड़ने पर नगाड़ा बजाकर इन्हें युद्ध के लिए तुरन्त जुटा लिया जाता था। इनाती शब्द का प्रयोग चारणों द्वारा काव्यात्मक विधा के रूप में किया गया है। प्रमुखों का एकमात्र वंशानुक्रम चेर थे, जिनकी प्रशंसा में “पाटिरूप्पटटु' गीतों का संग्रह लिखा गया था। इससे चेर वंशानुक्रम की प्रमुखता स्पष्ट होती है।

अवाइयम (सभा) कविताओं में वर्णित एकमात्र राजनैतिक संस्था है। यह वेन्तार की एक सहायक समिति के रूप में कार्य करती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समिति के सदस्य मुख्य रूप में योद्धा प्रमुख तथा पुलावर (विद्वान चारण) होते थे। लेकिन कविताओं में वास्तविकता से अलग भी राजनीतिक प्रणाली की संस्थापित प्रक्रिया के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। जैसे कि कविताओं ने मुवेन्तर की प्राचीन तमिलकम के तीन मुकुट वाले राजाओं के रूप में वर्णन किया था। इसी तरह कवियों ने चेरों की प्रशंसा सात किरीटों की माला धारण किए हुए के रूप में की थी। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वेन्तार की प्रशंसा प्राय: वेल्वी (वैदिक बलि) याजकों के रूप में की गई है। उनका वर्णन युद्ध की देवी कोररावई एवं मुरुणगन के उपासक के रूप में भी किया गया हैं। कविताओं में इनकी तुलना वैदिक देवताओं, जैसे-सूर्य, अग्नि, मारुत, पंचभूत, नक्षत्रों तथा नवग्रहों के समान की जाती है। ये तुलनाएँ हमें इतिहास-पुराण परम्परा के लोकपाल सिद्धान्तों की याद दिलाते हैं। चेरों की ये विशेषताएँ वैदिक ब्राह्मणवाद के गहरे प्रभाव की प्रतीक हैं, लेकिन इसी तरह वेंटार के सन्दर्भ में बौद्ध विचारों का भी प्रभाव परिलक्षित होता है।

कविताओं में वर्णित वेन्तारों की छवि वास्तविकता से बहुत अलग है। इतना निश्चित है कि उनके अधिकारों में सभी तमिलकम नहीं थे और कर प्राप्त करने वाले प्रमुख अतियामान जैसे दूसरे प्रमुख भी थे, जो वेन्तार के ही स्तर के बराबर थे। एक कविता में नेतुमान अन्जी की प्रशंसा में सभी खेतिहर बस्तियों के प्रमुखों को चेतावनी दी गई थी कि यदि उन्हें अपने 'उर' को अपने साथ रखना है, तो वे जल्द-से-जल्द तिरई लेकर पहुंचें। बहुत-से पहाड़ी प्रमुखों ने वेन्‍्तार का जमकर विरोध भी किया था। परम्पुमलाई का 'पारी' इसका एक अच्छा उदाहरण है। उसने वेन्तार का सामना डटकर किया था। यह अलग बात है कि वह युद्ध में हार गया था और मारा भी गया था। इसका अर्थ यह है कि “वेन्तार' भी प्रमुख थे, लेकिन तुलनात्मक रूप में थोड़े ऊँचे थे। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उस काल का राजनैतिक स्तर राज्य व्यवस्था से भिन्न था।

प्रारम्भिक भारत में राज्य के संक्रमण सम्बन्धी हमें जो भी जानकारी प्राप्त हुई है, वह विद्वानों के वर्षों के अध्ययन और शोध पर आध परित है। उस समय के राज्य की गृढ़ और जटिल संरचनाओं की जानकारी हमें इसके अध्ययन से प्राप्त होती है। सैद्धान्तिक रूप में राज्य कोई सार्वभौम अथवा सर्वव्यापी संस्था नहीं है, जो किसी भी ऐतिहासिक काल के समाज में पाई जाती हो। राज्य मात्र विभेदपूर्ण अर्थव्यवस्था व स्तरीय राज्य समाज में पाई जाती है। इसके फलस्वरूप निम्नलिखित अवधारणाओं का विकास हुआ है-

अस्तरीकृत समाज पूर्व राज्य समाज है, राज्य का जन्म बाहर से नहीं हुआ है, राज्य अनिवार्य रूप से स्वत: ही अस्तित्व में आया है, राज्य न तो विलीन होता है और न ही प्रत्यारोपित। गौण राज्य संरचना की अवधारणा भी गलत है। अब सबसे महत्त्वपूर्ण विचारणीय बात यह है कि राज्य की उपस्थिति या अनुपस्थिति के विषय में पूर्वानुमान क्या सामाजिक संरचना की प्रकृति से निर्धारित होता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से वर्गीकृत समाजों में राजनैतिक प्रक्रियाओं के संस्थागत प्रतिफल के रूप में राजशाही और साम्राज्य के रूप में राज्य उत्पन्न हुए थे। इसी कारण प्राचीन काल के राज्य वंशानुगत शासन या राजतंत्र के प्रतिरूप थे और अगर हम राज्य संरचना के इतिहास का अध्ययन करें, तो हमें पता चलता है कि कबीलाई तंत्र राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया है।

यह सर्वमान्य बात है कि उत्तर भारत में राज्य के पहले के राज्य में जो संक्रमण हुआ था, वह सहस्राब्दी ई.पू. में हुआ था। यह परिवर्तन दक्षिण भारत में बहुत बाद में छठी सदी ईसवी में हुआ था। विजय सिद्धान्त के अध्ययन से यह पता चलता है कि आरयों को जब विजय प्राप्त हो गई और जब उनका अधिकार स्थानीय मूल समाज पर स्थापित हो गया तब राज्य अस्तित्व में आया। अगर हम आंतरिक स्तरीकरण के सिद्धान्तों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि जातीय संरचना भी स्तरीकरण की ही प्रणाली है और इसके शासक वर्ग क्षत्रिय थे और “विश' खेतिहर थे। जहाँ तक उत्तर भारत में राज्यों के उदय का प्रश्न है, वहाँ राज्यों का जन्म समाज में क्षत्रियों को ऊँचा स्थान प्राप्त होने के कारण हुआ। इस कारण राज्य प्रणाली में संक्रमण के लिए स्तरीकरण एक महत्त्वपूर्ण घटना है। दक्षिण भारत में सामाजिक स्तरीकरण और संरचना की प्रकृति अलग प्रकार की थी। जब स्तरीकरण में मतभेद और तनाव पैदा होते हैं, तब उनके समाधान और नियंत्रण के लिए “शक्ति' की आवश्यकता होती है। राज्य की उत्पत्ति के पीछे कृषि अर्थव्यवस्था भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है। इसके अतिरिक्त राज्य की संरचना के विकास में जनसंख्या वृद्धि और सामाजिक सीमाबद्धता के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता। राज्य संरचना का दूसरा महत्त्वपूर्ण घटक सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता है। इसी तरह राज्य की उत्पत्ति में व्यापार तथा नगरीय केन्द्रों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। राजनैतिक प्रणाली के अन्तर्गत एक क्षेत्र पर राजनैतिक शक्ति का अधिकार होता है, जिसके कार्यों का संचालन वह अपने अधिकारियों के द्वारा करवाती है। राज्य को विभिन्न प्रबंधन कार्यों का सम्पादन करना होता है जिसके लिए संसाधनों की आवश्यकता होती है। इन संसाधनों के लिए राज्य को राजस्व का संकलन करना होता है। इस प्रकार, उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक तथा आर्थिक विभेदीकरण राज्य संरचना प्रक्रिया के साथ अनिवार्य रूप से संलग्न है।

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