हिन्दी में प्रगतिशील काव्य की परम्परा-इससे पहले “प्रगतिशील साहित्य का उदय' शीर्षक में हम यह बता चुके हैं कि आधुनिक युग-सन्दर्भ के आरंभिक युग में भारतेन्दु युग में प्रगतिशील काव्यधारा का स्रोत फूट चुका था| इसके बाद डिवेदी युग में इसका विकास ही नहीं हुआ, अपितु इस समय आए हुए नवजागरण की लहरों से यह प्रश्न भी तरंगित होने लगा था कि
“हम क्या थे, क्या हो गए,
क्या होंगे अभी ।
आओ बिचारें मिलकर,
ये समस्याएं सभी ।।”
प्रगतिशील कवियों ने विषय-वस्तु के महत्त्व को समझा । फिर यह अनुभव किया कि कविता तभी महान् बनती है, जब वह कवि की प्रतिबद्धता की सच्ची गहराई से प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत होकर सामने आती है | यही कारण है कि प्रगतिशील कविता के प्रमुख हस्ताक्षर नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि में से किसी की भी कविता दूसरों की कविता का अनुकरण नहीं है । एक आन्दोलनकारी के रूप में प्रगतिशीलता का भले ही अंत हो चुका है, लेकिन वह आज भी नयी कविता के रूप में विचार और शिल्प दोनों ही स्तरों पर अपनी अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष कर रही है ।
प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-प्रगतिशील कविता की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ हैं-
राष्ट्रीयामा की भावना की अभिव्यक्ति-प्रगतिवादी युग अपने युग की समस्याओं के प्रति सचेत दिखाई देता है | उसने देश और विश्व की ज्वलंत समस्याओं के प्रति दृष्टिपात किया । उसने हिरोशिमा के नाश के लिये अमेरिका को कोसा । साथ ही बंगाल के अकाल, देश के विभाजन, महंगाई, बेकारी आदि समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त किये ।
वामपंथी विचारधारा ओर राजनीति का प्रभाव-साम्यवादी विचारधारा प्रगतिवादी कविता का मूल है | रूस में साम्यवाद ने पूर्ण सफलता प्राप्त की । अतः प्रगतिवादी कवियों की आशा का केनद्ध रूस बन गया | उन्होंने लाल सेना, लाल चीन, लाल झण्डा आदि पर अनेक काव्यमय विचार व्यक्त किये । रूस की लाल सेना पर सुमन” की कविता की कतिपय पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
'युगों की सड़ी रुढ़ियों को कुचलती,
लहर की लहर से सदा ही मचलती ।
अन्धेरी निशा में मशालों-सी जलती,
चली आ रही है बढ़ती लाल सेना ।।?
उत्पीड़ित जनता से जुड़ाव-प्रगतिवादी कविता की यह भी एक विशेषता है कि उसमें शोषित और निर्धन वर्ग के प्रति सहानुभूति की भावना के दर्शन होते हैं | प्रगतिवादी कवियों ने मजदूरों और किसानों का अपनी कविता में सजीव और हृदयग्राही चित्रण किया है । निराला जी की वह तोड़ती पत्थर' कविता में पत्थर तोड़ने वाली नारी की विवशता, भय और कार्यशीलता के मार्मिक वर्णन के साथ पूँजीपतियों की विलासिता और क्रूरता का चित्रण किया है | कवि सुधीन्ध ने शोषित वर्ग की दयनीयता का चित्रण इस प्रकार किया है कि
“एक ओर समृद्धि धिरकती, पास सिसकती है कंग्राली,
एक देह पर एक न चिथड़ा, एक स्वर्ण के गहने वाली ।”
ग्राम्य-जीवन के प्रति लगाव-प्रगतिवादी कवि श्रम का उपासक है । वह संसार में प्रत्येक वस्तु को श्रम के द्वारा ही प्राप्त करना चाहता है । इसलिये उसने मजदूर और किसानों की प्रशंसा की है । किसान और श्रमिक दोनों का जीवन परिश्रम की करुण कहानी है। प्रगतिवादी कवि ने ग्राम्य-जीवन की दीनता का चित्रण करते हुए कहा है-
थयह भारत का ग्राम, स्त्यता, संस्कृति से निर्वासित ।
झाड़ फूस के विवर यही, क्या जीवन शिल्पी के घर ।॥?
शोषक सत्त का विरोध-प्रगतिवादी कवियों ने जहां अपने शब्दों में शोषित वर्ग के प्रति सहृदयता प्रकट की है, वहीं दूसरी ओर शोषक वर्ग के प्रति घ्रणा व्यक्त की है | शोषक वर्ग में जमीदार, उद्योगपति व मिल-मालिक आते हैं | यह वर्ग मजदूरों और किसानों की खून-पसीने की कमाई से विलासिता और वैभव का जीवन व्यतीत करता है । बेचारे मजदूरों के बच्चों को दूध की बूंद तक नहीं मिलती और पूंजीपतियों के कुत्ते दूध का पान करते हैं | पूंजीपति वर्ग की इस प्रकृति की भर्त्सना करते हुए कविवर 'दिनकर' ने कहा-
श्वानों को मिलता दूध, वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं ।
माँ की हड़डी से चिपट, टिट्॒र जाड़ों की यत बिताते हैं ।
युवती की लज्जा बसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं ।
मालिक जब तेल फुलेलों पर, पानी-सा द्वव्य बहाते हैं ।!
सामाजिक परिवर्तन पर बल-साम्यवाद में क्रांति को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है । अतः प्रगतिवादी कवि समाज, राजनीतिक और आधिक जीवन में शने:-शनेः परिवर्तन के पक्ष में नहीं है | वह क्रान्ति की हिंसावृत्ति में विश्वास करता है। प्रगतिवादी कवि की लेखनी समाज के निर्धन वर्ग की दयनीय दशा को देखकर यह कामना करती है कि कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,जिससे उथल-पुथल मच जावे ।/”
प्रगतिवादी साहित्यकार ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानता । वह तो द्न्द् के कारण इस सृष्टि का विकास मानता है | उसकी मान्यता है कि इस विकास के क्रम में जो अधिक समझदार होता है, वह बच जाता है । वह धर्म-अधर्म, आचार-विचार, स्वर्ग-नरक इत्यादि की चिन्ता नहीं करता । इसके लिए न कोई ब्राह्मण है, न ईसाई, न यहूदी । इन सभी का मूल्यांकन कवि जनहित में उनकी उपयोगिता के अनुसार करने लगता है।
सभ्य, शिष्ट और संस्कृत लगते मनको केवल कुत्सित
धर्म, नीति औ! सदाचार का मल्यांकन है जनहित ।
वह मानव को मानव के रूप में देखना चाहता है । यदि अन्धविश्वास एवं मिथ्या परम्पराएँ उसके रास्ते में आती हैं; तो वह उनका ध्वंस करता हुआ आगे बढ़ जाता है ।
प्रगतिवादी कविता ने मजदूर एवं किसान की तरह नारी को भी शोषित माना है । उन्होंने देखा कि नारी का अपना स्वयं का कोई महत्त्व नहीं है । वह देव के रूप में नहीं, अपितु दासी के रूप में है। वह पुरुष की आज्ञा की अवहेलना करके एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती है । वह पुरुष की विलासिता की एक जीवित प्रतिमा है । नारी की एक ऐसी दयनीय दशा को देखकर प्रगतिवादी कवि पंत की आत्मा नारी स्वातंत्र्य के लिये पुकार उटी-
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी ग्रतिष्ठित ।
उसे पूर्ण स्वाधीन करे, वह रहे न नर पर अवस्ित /।॥”
श्रम एवं ग्राम्य जीवन के चित्रण की भावना-प्रगतिवादी कविता में समाज के नव-निर्माण का स्वर मुखरित हुआ है । वह ऐसे सामाजिक जीवन को साकार रूप देना चाहता है, जिसमें नये आदर्श, नई रीति, नई भावनायें और नई आकांक्षायें हों । उसका समस्त रंग नया हो । यथा
“नव छबि, नव रंग, नव मधु से ।
मुकलित, पुलकित हो मानव जीवन ।।”
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