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रीतिकालीन श्रंगारेतर काव्य

श्रृगारेतर काव्य-रीतिकाल में लक्षण-लक्ष्य परम्परा से मुक्त होकर बहुत-से काव्य-ग्रन्थ लिखे गए | डॉ. भगीरथ मिश्र ने तो श्रंगारेतर रीतिकालीन काव्य में जीवन के बीच वास्तविक बातों के अनुभव और ज्ञान-संग्रह के रूप में-राजनीति, कामशास्त्र, ज्योतिष, रमण, सामुद्रिक, भोजनशास्त्र, मैत्री, संगीतशास्त्र आदि की रचनाओं की गणना भी की है ।

रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्यों में श्रृंगारेतर अनेक काव्य-ग्रंथ रचे गए | उनमें से कुछ प्रबंध, कुछ निबन्ध और कुछ मुक्तक काव्य हैं | छत्र, प्रकार पहले प्रकार के काव्य प्रबन्ध काव्य हैं। उनमें सबल सिंह का महाभारत, गुरुगोविन्द सिंह का चंडी चरित्र, लाल कवि का इस प्रकाश जोधराज का हम्मीर रासो, गुमान मिश्र का नेषध चरित्र, सूदन का सुजान चरित्र, देवीदत्त की बैताल पचीसी, चन््रशेखर का हम्मीर हठ, श्रीधर का जगनामा, पद्माकर का रामरसायन, मधुसूदन दास का रामाश्वमेध आदि उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं । दूसरे प्रकार के प्रबन्ध काव्यों को वर्णनात्मक प्रबन्ध काव्य कहा गया। उन्हें शुक्लजी ने काव्य न कहकर पद्य कहा है। तीसरे प्रकार के रचयिताओं को सूक्ति हार कहा गया है, जबकि चौथे प्रकार की रचनाओं में ज्ञानोपदेश और वैराग्यपरक पद्यों को रचा गया | पाँचवें वर्ग में भक्तकवियों को रखा गया है और छठे वर्ग में प्रशस्ति काव्य रचनाकारों को लिया गया है ।

वीरकाव्य-रीतिकालीन काव्य में और आदिकालीन काव्य के वीरकाव्य के बीच कोई मूलभूत वैचारिक अंतर नहीं है । ऐसा इसलिए कि दोनों ही कालों में सामंतों और आश्रयदाताओं की प्रशंसा के लिए ही वीरकाव्य लिखे-रचे गए | वीर काव्य के रचनाकारों में क्रमशः मानकवि रचित “राजविलास' सूदन का 'सुजानचरित', पद्माकर का 'जगद्विनोद', हिम्मत बहादुर की 'विरुदावली” और “प्रताप विरुदावली”', जोधराज का 'हम्मीररासो”, भूषण का 'शिवबावनी” और छत्रसालदशक आदि उल्लेखनीय वीरकाव्य ग्रन्थ हैं । इन सभी ग्रन्थों की भाषा ब्रजभाषा है ।

भक्तिकाव्य-रीतिबद्ध कवियों ने समान भाव से राम, कृष्ण और नरसिंह का स्मरण किया है । कहीं निर्णुण की महिमा मुक्त कंठ से गाई है | प्रतिबिम्बवाद और अद्वितवाद के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ कहा है| नाम-स्मरण पर भी बल दिया है। यह सब होते हुए भी इन्हें भक्त नहीं कहा जा सकता । इन कवियों ने अपने प्रिय विषय के अतिरिक्त भक्ति और नीति पर भी लिखा है, पर भक्त का हृदय उन्हें प्राप्त नहीं था । उनकी दृष्टि राध् की तनद्युति पर टिकी रही है, मन तक नहीं जा सकी । इन्होंने राधा और कृष्ण के जीवन के घोर श्रृंगारी और वासनात्मक चित्र उतारे हैं | भक्तों के हृदय की-सी पवित्रता, आर्द्रता, कोमलता, कातरता, दीनता और भावमग्नता इनमें सामान्यतः नहीं है | विलासोन्मुख राजनीति के पराजय के युग में जहाँ कवि जीवन के संघर्षों और घात-प्रतिधातों से सर्वधा अपरिचित था, उसकी लिखी हुई नीति की उक्तियाँ भी प्रदर्शन मात्र समझनी चाहिए । यथा-

“पतवारी माला पकरि्ड, औरु न कुछ उपाउ,

तरि संसार-पयोधि को, हरि नावै कारिनाउ। ।””

यथा-

 “दुस॒ह द॒राज ग्रजानु को क्‍यों न बढ़े दुःख बन्द,

अधिक अधेरा जग करत मिलि माल रवि चन्द ।।””

संतकाव्य-रामानंद की शिष्य परम्परा सगुणधारा और निर्गुणधारा में प्रवाहित हुई । निर्गुणोपासना रीतिकाल में अनेक मतों और पंथों के द्वारा आगे बढ़ी । पारी साहब या यार मुहम्मद ने हिन्दू-मुस्लिम एक्य पर बल देते हुए 1700 ई. के आस-पास योग, अध्यात्म को महत्त्व और प्रचार दिया। विहार के संत दरिया साहब ने दरिया सागर” नामक ग्रंथ का संग्रह किया । जगजीवनदास जो दादू दयाल की शिष्य परम्परा में रहे संतमत का प्रचार-प्रसार किया | पलटू साहब ने चमत्कारपूर्ण शैली में जीव-ब्रह्म की व्याख्या विभिन्‍न छंदों के द्वारा की । शिव नारायण और तुलसी साहब ने भक्ति और वैराग्य का उपदेश दिया । गुरु तेगबहादुर ने आदिग्रन्थ” में अनेक संतों और भक्तों की वाणियों को संकलित किया। बाबा चरणीदास, बूला साहब, दया बाई और सहजोबाई आदि संतमत और संतकाव्य के रचयिता हैं ।

सूफी काव्य-भक्तिकालीन सूफी काव्यधारा रीतिकाल में भी प्रवाहित होती रही । इस धारा के कवियों के संक्षिप्तोल्लेख इस प्रकार है- कासिम शाह-कासिम शाह ने सन्‌ 1736 ई. में अपने काव्य ग्रंथ हंस जवाहर” में शहजादा हंस और शहजादी की काल्पनिक प्रेम-कहानी का चित्रण अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं में किया ।

नूर मुहम्भद-इनका समय अठारहवीं शताब्दी रहा है । इन्होंने सन्‌ 1744 ई० में इन्द्रावती” नामक प्रेमाख्यानक काव्य की रचना की । अनुराग-बॉँसुरी” इनका दूसरा काव्य-ग्रन्थ सन्‌ 1764 ई. में लिखा गया | इन दोनों ही काव्य-ग्रन्थों की भाषा परिनिष्ठित अवधी भाषा तो है, लेकिन उसमें संस्कृत और ब्रज के भी शब्द प्रयुक्त हुए हैं | शुक्ल इन्हें सूफी काव्य-परम्परा की अंतिम कड़ी मानते हैं । 

रामकाव्य-रीतिकाल में रामकाव्य धुँधला गया | गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी “गोविन्द रामायण” में रामकथा का ओजपूर्ण चित्रण किया है । भगवन्तराय खींची ने सन्‌ 1760 ई. में 'हनुमत्यचौसी' हनुमानजी के सम्बन्ध में पच्चीस कवित्तों की रचना की । जनकराज किशोरी शरण ने 1800 ई० में राम-भक्ति की रसिकोपासना से सम्बन्धित काव्य-रचना की | नवलसिंह कायस्थ ने सन्‌ 1816-67 ई.में ब्रजभाषा में कई रामकार््यों की रचनाएं की । रीवां नरेश विश्वनाथ सिंह ने बत्तीस ग्रन्थों की रचना करके रामभक्ति का चित्र प्रस्तुत किया । ये ही रीतिकाल के अंतिम रामकाव्य के रचयिता हैं । 

कृष्णकाव्य-रीतिकाल का कृष्णकाव्य कृष्ण की लीलाओं पर आधारित है । ये काव्य प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य दोनों ही रूपों में हैं । निंबार्क और गौड़ीय सम्प्रदायों के प्रभाव से अनेक भक्त कवियों ने कृष्ण और राधा के युग लोकसत्तापरक काव्यों की रचनाएं कीं | गुमान मिश्र, ब्रजवासीदास, मंचित, आदि इस प्रभाव से प्रभावित कवि हैं ।

नीतिकाव्य-रीतिमुक्त कवियों में वीररसावतार भूषण, भक्त शिरोमणि रसखान, नागरीदास, अलबेलि अली तथा नीति कवि गिरिधर कविराय तथा सम्मन आदि अधिक प्रसिद्ध हैं | भूषण ने हिन्दुत्व एवं राष्ट्रीयता की भावना को सशक्त रूप में अभिव्यक्त किया | रसखान के सवैये हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि हैं | गिरिधर कविराय की कुण्डलियां तथा सम्मन के नीति-विषयक दोहे भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। सम्मन के नीति सम्बन्धी कुछ दोहे दृष्टव्य हैं-

निकट रहे आदर पढे, द्ूरि रहे दुख होय।

सम्पन या संसार में, प्रीति करो जनि कोय।।

सम्मन चहो सुख देह को छाड़ी ये यारि।

चोरी, चुगली, जामिनी और पराईं नारि ।।

सम्मन मीठी बात स्रों, होत सबे सुख पूर।

जेहि नहीं सीखो बोलिबो, तेहि सीखी सब धूर।।

वैराग्य-तत्त्वज्ञानपरक काव्य-रीतिकाल में वैराग्य और तत्त्वज्ञान को भी महत्त्व दिया गया था । यह इसलिए कि यह अतिशय श्रंगारिकता का मनोवैज्ञानिक परिणाम था। काव्यरूप की दृष्टि से रीतिकालीन कविता मुक्तक प्रधान है । मुक्तकों में जिस प्रकार भक्ति, वीर, नीति-वैराग्य आदि काव्यों की एक लम्बी परम्परा प्राप्त होती है, उसकी अगली कड़ी रीतिकालीन मुक्तकों में भी दिखाई देती है ।

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