समकालीन कविता का शिल्प-पक्ष विभिन्न रूपों में दिखाई देता है | इसके काव्य-रूप, इसकी भाषा, इसके बिम्ब और प्रतीक, छन््द आदि अधि क प्रभावशाली और अद्भुत रूप में हैं । नीचे हम इसके शिल्प पक्ष पर क्रमशः प्रकाश डाल रहे हैं-
काव्य-रूप-नये कवियों की तरह समकालीन कविता के कवियों ने प्रबन्धकाव्य के स्थान लम्बी-लम्बी कविताओं को लिखा। भवानी प्रसाद मिश्र का 'कालजयी', जगदीश गुप्त का गोपिका', जगदीश चतुर्वेदी का सूर्य-पुत्र', विनय की महाश्वेता', नरेश मेहता का महाप्रस्थान का प्रबन्ध ढाँचा प्रबन्ध काव्य का स्थानापनन है | इसी प्रकार राजकमल चौधरी की 'मुक्ति-प्रसंग” 'कंकावती”, धूमिल की 'पटकथा', “'मोचीराम', कुमारेद्ध पारसनाथ सिंह की 'मुक्ति पर्व', लीलाधर जगूड़ी की, 'इस व्यवस्था में', कमलेश की “'जरत्कास', अशोक वाजपेयी की 'जबरजोत', जगदीश चतुवैदी की 'एक लंगड़े आदमी का बयान', सौमित्र मोहन की 'लुकमान अली” ऋतुराज” की दिनचर्या”, विनोदकुमार शुक्ल की 'लगभगब जय- हिन्द', देवेन्र कुमार की खासकर उन्हीं अर्थों में, आग्नेय” की “अपने ही खिलाफ', कुमार विकल की 'एक सामरिक चुप्पी', 'बेणुगोयाल की ब्लेक मेल”, चन्द्रकान्त देवताओ की दृश्य', विष्णु खरे की "एक चीज के लिए” इस दौर की उल्लेखनीय लम्बी कविताएं हैं | इस दौर में जो नवगीत आन्दोलन चले, वे संवेदना-शिल्प की दृष्टि से पुराने गीतों से बिल्कुल अलग हैं ।
भाषा-समकालीन कविता की भाषा की शब्दावली कारतूस के समान बड़ी ही विस्फोटक है । इस प्रकार समकालीन कविता की भाषा आम आदमी की भाषा है । उसमें एक खास टोन है-
“फौजी दस्ते की तरह आँधेरे में
एक भाषा खाड़याँ बदल रही हैं
चीजों की व्यवस्था में
तुम्हारा इस तरह गायब हो जाना
मेरे लिखने की भाषा है
अब निरन्तर सुन रहा हूँ अपने भीतर खुर-खुर
भाषा को जो आपात पहुँच रहा है
मेरी मरम्मत के बहाने ।/? -लीलाधर जगूड़ी
समकालीन कविता के कवि जीवन के अनुभव को संवेदना की गहराई से किस प्रकार पकड़ते हैं, इसका एक उदाहरण देखिए-
“गीली मिट्टी की तरह हॉ-हाँ मत करो
तनो
अकड़ो
अमरबेलि की तरह मत जियो
जड़ पकड़ा ।?
समकालीन कविता के बिम्ब और प्रतीक आम आदमी की रोजमर्रा की जिन्दगी के हैं । केदारनाथ सिंह की कविता बैल' असहाय और लाचार आदमी का प्रतीक है । वह दूसरों से हॉका और चलाया जाता है-
“वह एक ऐसा जानवर है, जो दिनभर
भूसे के बारे में सोचता है
रातभर ईश्वर के बारे में /”
इसी प्रकार से श्रीकान्त वर्मा की कविता 'मगध' है-
“केवल अशोक लौट रहा है
और सब
कलिंग का पता पूछ रहे हैं
केवल अशोक सिर झुकाए है
और सब विजेता की तरह चल रहे हैं ।”
छन्द -समकालीन कविता ने मुक्त छन्द की सर्जनात्मक संभावनाओं का यथाशक्ति प्रयोग किया है । रघुवीर सहाय का इस दृष्टि से किया गया योगदान अत्यधिक प्रभावशाली रूप में हैं ; जैसे-
“बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री
ओर मुझमें कुछ दूर तक बिसटता जाता हुआ ।”
'धूमिल” ने जिस प्रकार लोक छन््दों के प्रयोग किए हैं, वे निश्चय ही अविस्मरणीय हैं, जैसे-
“अपने यहाँ संसद
तेल की वह यानी है
जिसमें आधा तेल
और आधा पानी है ।”
स्वातंत्र्योत्त हिन्दी आलोचना-स्वातन्त्रयोत्तर काल में प्रारम्भ के प्रयोगवाद और बाद की नयी कविता के आविर्भाव के द्वारा आलोचनात्मक जाग॒ति का जन्म हुआ । अपनी-अपनी मान्यताओं का वर्गीकरण तारसप्तकों के कवियों ने वक््तव्यों के द्वारा स्पष्ट किया | कुछ आलोचकों ने स्वतंत्र आलोचना ग्रन्थ लिखे । मुक्तिबोध का (नए साहित्य का सौन्दर्य), गिरिजाकुमार माथुर (नई कविता : सीमाएँ और सम्भावनाएं), धर्मवीर भारती (मानव-मूल्य और साहित्य), डॉ० नामवरसिंह (नई कविता के प्रतिमान), लक्ष्मीकान्त वर्मा (नई कविता के प्रतिमान), डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी (भाषा और संवेदना) आदि अनेक उल्लेखीय
ग्रन्थ हैं। नई कहानी का प्रतिपादन करने के लिए भी कई ग्रन्थ प्रकाशित हुए, जिनमें डॉ० देवकीनन्दन अवस्थी द्वारा सम्पादित (नई कहानी, सन्दर्भ औरप्रकृति) तथा नामवरसिंह की (कहानी और कहानी) दोनों ग्रन्थ सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए ।
आलोचना के रूप की प्रबलता संभवतः यथा सर्वाधिक स्वातन्त्रोत्तर काल में रही | शोध स्तर की आलोचना को दो वर्गों में रखा जा सकता है| पी०एच०डी० तथा डी“लिटू के लिए प्रस्तुत प्रबन्ध एवं एम०फिल० के लिए प्रस्तुत किए गए लघु प्रबन्ध | इस पद्धति में भावी अध्ययन की संभावनाओं पर बल तथा खोजी हुई सामग्री में सामंजस्य बैठाना आदि कार्य किया जाता है । आलोचना की इस प्रबल पद्धति की कल्पना असम्भव है | सन् 1850 में केवल 50 व्यक्तियों ने उपाधियाँ अर्जित की, परन्तु इस समय उनकी संख्या 5000 के लगभग है । सन् 1979 तक डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल (शोधसन्दर्भ सन् 1980) की गणना के अनुसार 4500 पार कर चुकी थी | इसके अतिरिक्त लघु प्रबन्धों की संख्या भी कई सौ होनी चाहिए ।
नागरी प्रचारिणी सभा की 17 खण्डों में हिन्दी साहित्य के बुहत इतिहास के प्रकाशन की योजना इतिहास-लेखन के क्षेत्र में आलोचना की एक उपलब्धि है। डॉ० राजबली पाण्डेय द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य की पीठिका', राहुल सांस्कृत्यायन द्वारा सम्पादित हिन्दी का लोक साहित्य”, डॉ० नगेन्द्र द्वारा सम्पादित 'रीतिबद्धकाल', डॉ० धीरेन्ध वर्मा द्वारा सम्पादित हिन्दी भाषा का विकास', लक्ष्मीनारायण सुधांशु द्वारा सम्पादित 'समालोचना निबन्ध पत्रकारिता', परशुराम चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित 'भक्तिकाल' तथा डॉ० अंचल एवं डॉ० काशिकेय द्वारा सम्पादित उत्कर्षकाल”' आदि सात खण्ड अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ० नगेन्ध द्वारा सम्पादित और नेशनल पब्लिशिंग हाउस, देहली द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास” इतिहास-लेखन की एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हैं ।
हिन्दी आलोचना की वर्तमान स्थिति-जिस भाषा और साहित्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ० नगेन्ध जैसे समर्थ समालोचक हों, जिस भाषा को इतने बड़े देश और इतनी बड़ी जनसंख्या की राष्ट्रीय भाषा होने का गौरव प्राप्त हो, जिस भाषा में साहित्य पर 5000 के लगभग शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किए जा चुके हों, जिस भाषा और साहित्य की सभी विधाओं में अनेका नेक उत्कृष्ट कोटि के ग्रन्थ प्रस्तुत किए जा चुके हों, जिस भाषा में एक हजार वर्षों से साहित्य सृजन हो रहा हो तथा जिसके पठन-पाठन को विदेशों में भी मान्यता प्राप्त हो, उस क्षेत्र में आलोचना के मानदण्डों की कमी होना सम्भव नहीं है। परन्तु उन मानदण्डों को प्रकट करने वाले व्यक्ति की प्रतीक्षा है। डॉ० नगेन्द्र ने लिखा है-हिन्दी में प्राचान और नवीन काव्य और काव्यशास्त्र में इतनी सामग्री विद्यमान है कि उसके आधार पर हिन्दी के अपने काव्यशास्त्र के अस्तिव की परिकल्पना असंगत नहीं कही जा सकती | हिन्दी के पास मूल धन अवश्य विद्यमान है, जिसके आधार पर अच्छे काव्यशास्त्र का निर्माण किया जा सकता है, जो संस्कृत और अंग्रेजी का उपजीवी न होकर हिन्दी की अपनी सम्पत्ति हत्तेगी ।” हिन्दी भाषा की समस्त क्षमता तथा महत्त्व उसी काव्यशास्त्र के द्वारा प्रकट हो सकता है | हिन्दी के स्वतन्त्र काव्यशास्त्र के सूत्र अलंकार, रस, रीति, वक्रोति, ध्वनि औचित्य आदि हिन्दी आलोच्य ग्रन्थों में विद्यमान हैं । डॉ० भगीरथ मिश्र ने लिखा है -“संस्कृत से प्राप्त समस्त लक्षणों और तत्त्वों को सामने रखकर भी काव्य की उस व्यापक तथा गम्भीर महत्ता को हयंगम नहीं कर पाते, जो केवल उसी साहित्य की धरोहर है। अतः हमें आज की स्थिति से नए सिद्धान्त स्थिर करने चाहिए, जो काव्य और साहित्य के समस्त महत्त्व को प्रकट कर सकें । ”
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