भारतीय काव्यशास्त्र से अभिप्राय संस्कृत भाषा में प्रस्तुत काव्यशास्त्र से ही है। चूँकि अन्य भारतीय भाषाओं में भी जिन काव्यशास्त्र का प्रतिपादन और विवेचन किया गया है उसमें संस्कृत-काव्यशास्त्र के ही मूल सिद्धांतों को अपनाया गया है। भारतीय काव्यशामस्त्र के अंतर्गत काव्य या साहित्य को उसके विभिन्न अवयवों की व्याख्या विभिन्न संप्रदायों और उनके संस्थापक आचार्यों दवारा की गई है। यह पाठ्य-पुस्तक पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालयों के स्नातक हिंदी (प्रतिष्ठा) के तृतीय सत्रार्द्ध के पाठुयक्रम को ध्यान में रखकर बनाई गई है। अन्य विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय के विद्यार्थी भी सामग्री से लाभान्वित हो सकते हैं तथा संबंधित संकाय अध्यापकों दवारा इसमें यथोचित विस्तार किया जा सकता है।
'काव्यशास्त्र' काव्य और साहित्य का दर्शन तथा विज्ञान है। यह काव्यकृतियों के विश्लेषण के आधार पर समय-समय पर उद्भावित सिद्धान्तों की ज्ञानराशि है। काव्यशास्त्र के लिए पुराने नाम 'साहित्यशास्त्र' तथा 'अलंकारशास्त्र' हैं और साहित्य के व्यापक रचनात्मक वाइमय को समेटने पर इसे 'समीक्षाशास्त्र' भी कहा जाने लगा। संस्कृत आलोचना के अनेक अभिधानों में अलंकारशास्त्र ही नितान्त लोकप्रिय अभिधान है। इसके प्राचीन नामों में 'क्रियाकल्राप' (क्रिया काव्यग्रंथ: कल्प विधान) वात्स्यायन द्वारा निर्दिष्ट 64 कलाओं में से अन्यतम है। राजशेखर द्वारा उल्लिखित "साहित्य विद्या" नामकरण काव्य की भारतीय कल्पना के ऊपर आश्रित है, परन्तु ये नामकरण प्रसिद्ध नहीं हो सके।
युगानुरूप परिस्थितियों के अनुसार काव्य ओर साहित्य का कथ्य और शिल्प बदलता रहता है; फलतः काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों में भी निरन्तर परिवर्तन होता रहा है। भारत में भरत के सिद्धान्तों से लेकर आज तक और पश्चिम में सुकरत और उसके शिष्य प्लेटो से लेकर अद्यतन "नवआलोचना' (नियो-क्रिटिसिज्म) तक के सिद्धांतों के ऐतिहासिक अनुशीलन से यह बात साफ हो जाती है। भारत में काव्य नाटकादि कृतियों को 'लक्ष्य ग्रंथ' तथा सैद्धांतिक ग्रंथों को 'लक्षण ग्रंथ' कहा जाता है। ये लक्षण ग्रंथ सदा लक्ष्य ग्रंथ के पश्चाद्भावनी तथा अनुगामी है और "अलंकारसर्वस्व" के टीकाकार समुद्रबन्ध ने काव्यशास्त्र के अनेक सम्प्रदायों की विशिष्टता की सुन्दर विवरण प्रस्तुत किया है। काव्य के विभिन्न अंगों पर महत्व तथा बल देने से विभिन्न संप्रदायों की विभिन्न शताब्दियों में उत्पत्ति हुई। मुख्य सम्प्रदायों की संख्या छह मानी जा सकती है-
इन सम्प्रदायों ने अपने नाम के अनुसार तत्तत् (वे वे गुण) 'काव्य की आत्मा' अर्थात् मुख्य प्राण स्वीकार किया है।
(1) रस संप्रदाय के के मुख्य आचार्य भरत मुनि हैं (द्वितीय शताब्दी) जिन्होंने नाट्यरस का ही मुख्यतः: विश्लेषण किया और उस विवरण को अवान्तर आचार्यों ने काव्यरस के लिए भी प्रामाणिक माना।
(2) अलंकार संप्रदाय के प्रमुख आचार्य भामह (छठी शताब्दी का पूर्वार्), दंडी (सातवीं शताब्दी), उद्धट (आठवीं शताब्दी) तथा रुद्रट (नवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) हैं। इस मत में अलंकार ही काव्य की आत्मा माना जाता है। इस शास्त्र के इतिहास में यही संप्रदाय प्राचीनतम तथा व्यापक प्रभावपूर्ण अंगीकृत किया जाता है।
(3) रीति संप्रदाय के प्रमुख आचार्य वामन (अष्टम शताब्दी का उत्तरार्ध) हैं जिन्होंने अपने "काव्यालंकारसूत्र" में रीति को स्पष्ट शब्दों में काव्य की आत्मा माना है (रीतियत्मा काव्यस्यों। दण्डी ने भी रीति के उभय प्रकार--वैदर्भी तथा गौड़ी--की अपने "काव्यादर्श" में बड़ी मार्मिक समीक्षा की थी, परन्तु उनकी दृष्टि में काव्य में अलंकार की ही प्रमुखता रहती है।
(4) वक्रोक्ति संप्रदाय की उद्भावना का श्रेय आचार्य कुन्तक को (१०वीं शताब्दी का उत्तरार्ध) है जिन्होंने अपने "वक्रोक्तिजीवित" में "वक्रोक्ति" को काव्य की आत्मा (जीवित) स्वीकार किया है।
(5) ध्वनि संप्रदाय का प्रवर्तन आनन्दवर्धन (नवम शताब्दी का उत्तरार्ध) ने अपने युगान्तरकारी ग्रंथ "ध्वन्यालोक" में किया तथा इसका प्रतिष्ठापन अभिनव गुप्त (१०वीं शताब्दी) ने ध्वन्यालोक की लोचन टीका में किया। मम्मट (11वीं शताब्दी का उत्तराध), रुय्यक (12वीं शताब्दी का पूर्वार्ध), हैमचन्द्र (12वीं
शताब्दी का उत्तराध), पीयूषवर्ष जयदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), विश्वनाथ कविराज (14वीं शताब्दी का पूर्वांध), पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शताब्दी का मध्यकाल)--इसी संप्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य हैं।
(6) औचित्य संप्रदाय के प्रतिष्ठाता क्षेमेन्द्र (११वीं शताब्दी का मध्यकाल) ने भरत, आनन्दवर्धन आदि प्राचीन आचार्यों के मत को ग्रहण कर काव्य में औचित्य तत्व को प्रमुख तत्व अंगीकार किया तथा इसे स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित किया। अलंकारशास्त्र इस प्रकार लगभग दो सहस्र वर्षों से काव्यतत्वों की समीक्षा करता आ रहा है।
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