प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का समर्थन मुख्य रूप से थॉमस हॉब्स (लेवियाथन 1651), जॉन लॉक (टू ट्रिटीज ऑन गवर्नमेंट 1690) और जे. जे. रूसो (द सोशल कॉन्ट्रैक्ट 1762) ने किया। इन समझौतावादियों ने सामाजिक-समझौता सिद्धांत के प्रतिपादन के दौरान यह विचार दिया कि प्राकृतिक-अवस्था मे प्रत्येक व्यक्ति के पास प्राकृतिक अधिकार थे और ये अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को इंसान होने की वजह से दिए गये थे। इसलिए समझौतावादियों ने यह घोषित किया कि ये अधिकार अविच्छेद्य, अगोचर और अपरिहार्य हैं। प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत की विभिन्न आधारों पर आलोचना की जाती है। अधिकार केवल इस आधार पर प्राकृतिक नहीं हो सकते कि वे प्राकृतिक अवस्था में व्यक्तियों को प्राप्त थे। समाज की उत्पत्ति के पूर्व वे कभी भी अधिकार नहीं हो सकते। समाजपूर्व अवस्था में अधिकारों कि उपस्थिति की अवधारणा अपने आप में विरोधाभाषी है। यदि प्राकृतिक-अवस्था में कुछ भी उपस्थित था तो वह था शारीरिक-बल, न कि अधिकार। कुछ प्राधिकारियों के द्वारा अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें पूर्वानुमानित कर लिया गया है। प्राकृतिक-अवस्था में राज्य उपस्थित नहीं था और राज्य की अनुपस्थिति में कैसे कोई व्यक्ति अधिकारों की उपस्थिति की कल्पना कर सकता था। आखिर प्राकृतिक-अवस्था में लोगों के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा ? समझौतावादियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। यह अवधारणा कि प्राकृतिक-अवस्था में अधिकारों की उपस्थिति थी, अधिकारों को समाज के नियंत्रण से बाहर और निरपेक्ष बना देती है। बेन्थम के अनुसार, प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत 'शब्दाडम्बरपूर्ण बकवास' हैं। लास्की ने भी प्राकृतिक अधिकारों के सम्पूर्ण विचार को अस्वीकार कर दिया है। प्राकृतिक अधिकार के रूप में अधिकारों की अवधारणा झूठी मान्यताओं पर आधारित है।
बर्क ने अधिक अर्थपूर्ण बात की ओर इशारा किया है कि हम एक ही समय में अधिकारों के नागरिक और गैरनागरिक स्वरूप का लाभ नहीं ले सकते हैं। तात्विक रूप में प्राकृतिक अधिकार जितने उत्तम हैं, अभ्यास के रूप में इन्हें पहचानना उतना ही कठिन है। अधिकार इस अर्थ में प्राकृतिक हैं कि वे एक ऐसी परिस्थिति हैं जिनमें व्यक्ति को स्वयं को अहसास करने की आवश्यकता होती है। लास्की के द्वारा अधिकारों के महत्व की अनुभूति का पता तब चलता है जब वह कहता है कि अधिकार इस अर्थ में प्राकृतिक नहीं हैं कि उन्हें स्थायी और अपरिवर्तनीय सूची में संकलित किया जा सकता है, बल्कि वे इस अर्थ में प्राकृतिक हैं कि नागरिक जीवन की सीमितताओं में तथ्य अपनी मान्यता की मांग करते हैं।
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