महाकवि तुलसीदास का समय 1532 से 1632 ई0 माना जाता है। यह काल मुगलों का शासन-काल था। तुलसी ने तीन मुगल शासकों-हुमायूं, अकबर और जहांगीर का शासन देखा था। उनके जीवन का अधिकांश समय अकबर के शासन-काल (1556-1605) में बीता। यद्यपि यूरोप के साहसी व्यापारी अपने जहाजी बेड़ो पर बैठकर भारत के विभिन्न बंदरगाहों पर उतरकर अपना विस्तार बढाने में लीन थे, परन्तु उनकी आकांक्षा केवल धन कमाने, भारत की सम्पत्ति को घर ले जाने तक सीमित थी, क्योंकि राज्य-विस्तार की आकाक्षा ने जन्म नहीं लिया था। अतः मुगलों ओर यूरोपीयनों का सीधा टकराव नहीं था, बंदरगाहों पर अधिकार को लेकर कभी-कभी छुटपुट झगड़ेहो जाते थे।
मध्यकालीन भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान इरफान हबीब का मत हे, “'तेरहवीं सदी से हिन्दुस्तान में अनुवादों और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रें में यूनान, अरब, ईरान के सम्पर्क से जो नये चिंतन की परम्परा शुरू हुई थी वह सोलहवीं सदी तक आते-आते खत्म हो गयी।
विख्यात पर्यटक वार्नियर ने अपने यात्र-वृत्तान्त में लिखा है कि यह समय हिन्दुस्तान की गहन और सार्वत्रिक अज्ञानता का युग था। इस प्रकार गोस्वामी जी का समकालीन भारतीय समाज या तो थधर्मशास्त्र का अनुगामी था या फिर साम॑ती राजतंत्र द्वारा पालित-पोषित था।
राजनीतिक दृष्टि से अकबर ने अपनी सूझबूझ, धार्मिक सहिष्णुता एवं राजनैतिक कौशल से सुदृढ़ मुगल शासन की स्थापना की, सुदृढ केन्द्रीय प्रशासन के अंतर्गत अधिकांश प्रदेशों को संयुक्त और सूत्रबद्ध कर दिया। आपस में लड़ती-झगड़ती रियासतों को प्रत्यन कर नियंत्रण में ले लिया। अपनी कूट बुद्धि की सहायता से अपने शासन को निरापद बनाने के लिए, हिन्दुओं का मन जीतने के लिए धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई, दीन-ए-इलाही नामक नये धर्म का प्रवर्तन किया।
इस सबके बावजूद जन-साधारण की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। इसके दो कारण थे-सामंती शोषण-व्यवस्था तथा प्राकृतिक प्रकोप-अकाल, सूखा आदि। भक्तिकाल के कवियों में किसी ने भी अपने समाज का ऐसा यथार्थ दारुण चित्र प्रस्तुत नहीं किया है जैसा तुलसीदास ने अपनी रचनाओं विशेषत: “कवितावली' में किया है। वह स्पष्ट कहते हैं-राजा कठोर एवं निर्दयी है, राज्य के कर्मचारी और सामंत (नवाब, ताल्लुकेदार, मंसबदार) छली-कपटी, धूर्त ओर शोषक हें, काल विपरीत हे।
कालु करालु, नृपाल कृपाल न, राजसमाजु बड़ोई छली है। परिणाम यह होता हे कि दरिद्रता बढ़ती जाती है, पापों की बाढ़ आती है, कुशासन के कारण जनता के कष्टों की सीमा नहीं रहती। अतः सर्वत्र पुण्य कार्यों, परोपकार, दान आदि का लोप हो गया है, सब दुःखी हैं। राज्य के अधिकारी एवं सम्पन्न लोग सामान्य जनता को डरा-धमका कर, आतंकित कर न्याय के फंदे में फांस कर जनता का रक्त चूसते हैं-
अपने युग के यथार्थ ओर पीडामय संसार के साक्षात् गवाह होने के नाते भक्त कवि तुलसीदास का कहना है-इस संसार का संकट मिटेगा तो केसे मिटेगा? तप तो कठिन है, ओर तीर्थाटन करके अनेक स्थानों में विचरने से भी कुछ नहीं होगा क्योंकि कलियुग में न कहीं वेराग्य है, न कहीं ज्ञान है-सब कुछ असत्य, सारहीन और फोकट का झूठ है। नट के समान अपने पेट रूपी कृत्सित पिटारे से करोड़ों तरह के इन्द्रजाल और कौतुक का ठाठ खड़ा करना व्यर्थ है। सुख पाने का एक ही साधन है, रामनाम-
निःस्वार्थ भाव से भक्ति, सत्संग और स्वधर्म के पालन में तल्लीन - इस वीतरागी संत को इस बात की कितनी व्यथा हुई होगी, मन को केसा दुःसह आघात लगा होगा कि अब सब कुछ-स्वधर्म तक धन के अधीन हो गया है। यथार्थ के इस दंश और नग्न सत्य के साक्षात्कार ने उनकी चेतना को कितना झकझोरा होगा इसकी कल्पना की जा सकती हे। धन की लूट-खसोट पर अवलम्बित समाज में तुलसी अपनी हेसियत, अपनी वास्तविक स्थिति की दो टूक और निर्मम समीक्षा करते हैं-मेरा मन तो ऊँचा हे और मेरी रुचि भी ऊँची है, पर मेरा भाग्य कपाट नीचा हे। मैं लोकरीति के लायक कभी न रहा, बल्कि उलटे हमेशा स्वच्छंद और वाचाल बना रहा। इतने साथ न थे ही नहीं कि अपने स्वार्थ की पूर्ति करता, भला परमार्थ केसे कर पाता। इस पेट की भूख (जो कि बड़वाग्नि जेसे कठिन रही हे) के कारण मेरी जिंदगी जी का जंजाल हो गई हे, चूंकि न तो कोई चाकरी मिली, न खेती की, न कभी व्यापार किया ओर न कभी ध थे के रूप में भिक्षावत्ति अपनायी। आजीविका के लिए न तो कोई धंधा मिला और न कभी सीख पाया। हकीकत में हालत तो यहाँ तक पहुँच गई है कि अगर राम सहारा न दें तो अपने पितरों को भेंट चढ़ाने के लिए मेरे सिर पर बाल भी नहीं हैं-
कवितावली में तुलसी ने अपने निजी व्यक्तिगत जीवन के अभावों, निपट दरिद्रता, बेरोजगारी, भूख का जो चित्र प्रस्तुत किया है वस्तुतः वह उनका अपना ही नहीं है, उसके माधयम से जन-साधारण की दुर्दशा, गरीबी, असहायता का अंकन किया हेै।
गोस्वामी तुलसीदास अपने वर्णन में मूर्तिमत्ता के लिए प्रसिद्ध हैं। मूर्तिमत्त की इसी कला के उदाहरण के रूप में देन्य और गरीबी के चित्र तो मिलते ही हें-दरिद्रता रूपी रावण का रूपक भी बार-बार मिलता है। जिस तरह रावण का संहार आवश्यक है, उसी तरह दरिद्रता उत्पन्न करने वाले दुष्ट सामंती शासन का भी विनाश आवश्यक हे। किसानों, बनियों और कारीगरों की केसी फटेहाली और दुर्दशा थी, इसे खास तोर पर कवितावली के उत्तरकांड के अनेक पदों में दर्शाया गया है। यहाँ उदाहरण के लिए दोहे दिये जा रहे हैं-
खेत-मजदूर, किसान, व्यापारी, भाट, भिखारी, चोर, दूत ओर बाजीगर-अर्थात् आम गरीब लोग पेट के लिए ही पढ़ते हैं, पेट के लिए ही तरह-तरह के उपाय करते हैं, दुर्गम पर्वतों और जंगलों में जाकर शिकार करते हैं। ऊंच-नीच कर्म, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति सब पेट के लिए ही करते हैं-यहां तक कि बेटा-बेटी को बेच देते हैं | पेट की यह बड़वाग्नि ऐसी है जिसे भगवान राम श्याम मेघ की वर्षा करके ही शांत कर सकते हें।
किसानों की खेती नहीं होती, भिखारी को भीख नहीं मिलती, बनियों का व्यापार चौपट हो गया है और चाकरी चाहने वालों को रोजगार नहीं मिलता। जीविका से हीन जनसाधारण शोकाकुल और संतप्त अपनी छटपटाहट में एक-दूसरे से पूछते हैं-कहाँ जायें, क्या करें? वेद, पुराण और लोक सभी कहते हैं कि ऐसे संकट में समिं आपकी कपा से ही समस्या का कोई समाधान हो सकता हे।
कवितावली के अतिरिक्त रामचरित मानस के कुछ प्रसंगों में भी तत्कालीन विषम परिस्थितियों का संकेत है। देशवासियों की दीन दशा देखकर कवि करुणानिधान, दीनबंधु, गरीबनवाजु, शरणदाता राम की गुहार करता है। साथ ही रामवन गमन के समय ग्रामीण जनों की झोंपडियों और अभावग्रस्त स्थितियों का विवरण देकर वह अपने समय के सामान्य जनों के कष्टों का परिचय देता है ओर साथ ही राजपरिवार की अंतःकलह के माधयम से तत्कालीन राज-परिवारों और सामंती समाज के पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, वेमनस्थ, कलह तथा उनके फलस्वरूप जनता को मिलने वाले कष्टों का भी संकेत करता है । लगता है कि वह भी प्रजा के दुःख-देन्य का कारण एक ओर सामान्य जन का भाग्य, नियति, पूर्वजन्म के कर्मफलों में विश्वास और पुरुषार्थ हीनता मानते हैं ओर दूसरी ओर सामंती व्यवस्था और साम॑ंती मूल्य।
इस प्रकार कवितावली में तुलसी ने अपने समकालीन समाज की, सामान्य जनता की दुर्दशा का अत्यंत यथार्थ एवं मार्मिक चित्रण किया है। तत्कालीन सामंती व्यवस्था और राजकीय सत्ता की कटु आलोचना भी की हे, भले ही यह आलोचना उतनी स्पष्ट ओर प्रखर न हो जितनी निराला या प्रगतिवादी कवियों ने की है। वह भक्त थे अतः उन्होंने अपने देशवासियों के ऋण के लिए केवल अपने उपास्यराम से इन दुःखों को दूर करने की प्रार्थना की हे।
भक्त और संसार से विरक्त होने के अतिरिक्त वह परम्परारगत विचारों से अपने को मुक्त करने की बजाय उनसे चिपके रहे। नाथों, सिद्धों, निम्नजाति से आये संत कवियों-कबीर, रैदास, दादू आदि के प्रति जो उनकी कट्क्तियां हैं, गोरखनाथ के प्रति झुंझलाहट और विरोध हैे-गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग। उनसे पता लगता है कि वह वर्णाश्रम व्यवस्था, जाति-पांति, छुआछूत, पर विश्वास करते थे, उन्हें पुरुषसतात्मक सामंती व्यवस्था में भी कुछ दोष नजर नहीं आ रहा था। वह समाज की दुर्दशा के लिए इस व्यवस्था के संस्थापकों और समर्थकों को दोषी न मानकर कलियुग को दोष देते हैं ओर सारी समस्याओं का समाधान रामभक्ति से मानते हैं। यह कटु यथार्थ से संघर्ष नहीं पलायन हे।जाति-पांति, छुआछूत, सवर्ण-अवर्ण के भेद को ठीक मानकर वह शूद्रों, दलितों व निम्नजाति ने लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाने की बजाय उनकी भर्त्सना करते हैं-
बादहिं सूद्र द्विषदद सन हम तुम ते कहु धाटि
जाने ब्रहम सो विप्रवर आँखि देखावहिं जाति।
वह नाथों, सिद्रों, वेरागियों की यह कहकर निन्दा करते हैं कि वे सच्चे मन से विरक्त नहीं हैं, विषम परिस्थितियों के जंजाल से निकलने, जीविका-उपार्जनज के लिए साधु वेश धारण कर लेते हैं-
नारि मुई गृहसम्पति नासी, मूड़ मुड़ाई हौंहि संन्यासी
शूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना, बैठि बरासन कहहिं पुराना।
इसके विपरीत ब्राह्मणों की पूजा को पुण्य बताते हैं-
पुन्य एक जग महूँ नहिं दूजा। मन क्रम वचन विप्र पद पूजा।
सामंती, राजतंत्र के विरुद्ध संघर्ष करने के स्थान पर वह रामराज्य की परिकल्पना करते हैं। शासन की गद्दी पर बैठने वालों को आदर्श राजा बनने का परामर्श देते हें, उन्हें दुष्कर्मों के लिए नरकवास का डर दिखाते हैं-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी
सो नृुण अवसि नरक अधिकारी।
जिस रामराज्य का वर्णन उन्होंने किया है वह केवल एक यूटोपिया है, एक कल्पना है।
नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण भी वही है जो पितृसत्तत्मक, सामंती समाज का था। कबीर की तरह वह स्त्री को माया, ठगिनी, कहते हैं। रामचरित मानस के अरण्य कांड में नारद से स्वयं राम कहते हैं-
अति दारुन दुखद माया रूपी नारि।
xx x x
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि
तातें कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जिय जानि।
वह नारी का एक ही धर्म बताते हैं-काय वचन मन पति पद प्रेमा। भले ही पति वृद्ध रोगी, नपुंसक, अंधा, बधिर, क्रोधी ही क्यों नहो।
सारांश यह कि तुलसी भले ही भक्त हों, महाकवि हों, परन्तु उनके-वर्ण व्यवस्था, पुरुषसत्तत्मऊ सामंती समाज एवं नारी-पुरुष, संबंधों के विषय में विचार रूढि्वादी व प्रतिक्रियावादी ही हें।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)

0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box