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हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरी बाजरे की। अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या भारद के भोर की नीहार-न्हायी कुंई,

 हरी बिछली घास।

दोलती कलगी छरहरी बाजरे की।

अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका

अब नहीं कहता,

या भारद के भोर की नीहार-न्हायी कुंई,

टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो

नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही : ये उपमान मेले हो गये हैं।

देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।

उत्तर-प्रसंग- (1911 -1987 ई०) होीरानन्द्‌ सच्चिदानंद वात्स्यायन ने हिन्दी कविता का पोषण प्रयोगवाद से आगे बढकर नयी कविता तक बडे जोशो-खरोश के साथ किया हे। प्रयोगवाद के तो वे जन्मदाता ही कहे जाते हैं। वस्तुतः वह एक युगान्तरकारी कवि थे। अपने आपमें वह एक अकादमी थे। उनकी स्कूलिंग से कई कवि अपने को स्थापित कर पाये। प्रयोगवाद के नाम पर उन्होंने पुरानी कविता का भाषा-शैली, वस्तु, शिल्प और काव्य-विन्यास आदि लगभग सभी स्तरों पर नयेपन का समर्थन किया। सबसे पहला काम जो प्रयोगवाद में हुआ वह था परम्परागत उपमानों से विद्रोह और उनके स्थान पर नवीन उपमानो का आग्रह। गोस्वामी तुलसीदास और भक्त शिरोमणि सूरदास ने मुख, हस्त यहाँ तक कि पैर तक को कमल बनाने की इन्तेहा कर दी। उनके उपमा-रूपक में कमल और उसके पर्याय शब्दों की बहुलता तो है ही इसके साथ ही साथ उन्होंने कमल-दल, कमल-नाल और कमल की पंखुडियों तक को उपमान बनाने में संकोच नहीं किया। पुरानी धारा के कवि कमल-मुख और चन्द्र-मुख से आज तक नहीं उबरे है पर अज्ञेय को यह दकियानूसीपन स्वीकार्य नहीं। 

   अज्ञेय को अपनी प्रेमिका हरी बिछली घास में डोलती छरहरी सी एक “कलगी बाजरे की' लगती है। इस कविता ने अपने समय में एक धूम सी मचा दी। इस उपमान पर हाहाकार मच गया। पर यही कविता आज हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक मानी जाती है। प्रश्न यह है कि इसमें प्रयोग क्‍या है? प्रयोग यही है कि कवि ने प्रेमिका को कमल या चन्द्र जेसा नहीं कहा। कवि स्वयं कहता है कि मै अपनी प्रेयसी को अरुणिम सांझ के नभ की तारिका, शरद के भोर की नीहार (कोहरा, तुषार) से नहाई हुयी कुमुदिनी या चम्पे की टटकी (ताजी) कली नहीं कहता।

व्याख्या-कवि कहता है कि इस उपमान के पीछे मेरी कोई दुर्भावना नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मेरे प्यार में गहराई नहीं है और हृदय उथला हे या फिर उसमे सूनापन है। ऐसा भी नहीं हे कि मेरे प्यार मे कोई कटुता या मनोमालिन्य है। तारिका का प्रकाश, उजास और उसकी अलोकिकता, कमलिनी की निर्मलता एवं पावनता, चम्पे की कली की मादकता यह सब पुराने जमाने की बातें हैं। ये उपमान पारंपरिक जूठे, बासी और मैले हो गए हैं। इसके विपरीत नये उपमानों का प्रयोग केवल इसलिये किया गया है कि इनमे ताजगी हे, नयी धज है, अर्वाचीन क्षितिजों का संधान है, एक प्रयोगधर्मिता है और इस हेतु उपमान के चयन में सावधानी भी बरती गयी है। 

   प्रिय के सौन्दर्य को रूपायित करने वाले पुराने उपमान के देवता कूच कर गए हें अर्थात उनका महत्त्व समाप्त हो गया है। वे इतने पुराने ओर घिसे हुए हैं कि उनकी आब चली गयी हे, जैसे मुलम्मा उतर जाने पा बिना कलई का बरतन निष्प्रभ हो जाता है। पर क्‍या मेरे प्रिय! यदि इस नवीन उपमान से में तुम्हारे सौन्दर्य का बखान करूं तो क्‍या तुम अपना रूप जो कि तुम हो, नहीं पहचान पाओगी ? कवि पर प्रेयसी के रूप का जादू चढ़ा हुआ है। इस जादू से सम्मोहित होकर अपने किसी गहरे बोध से या निज प्यार के अद्भुत तेवर से मैं यदि तुम्हें कहता हूँ कि तुम-

विशेष-बिछली घास क्या? बिलकुल नया प्रतीक, नया उपमान, परन्तु यह उपमान नारी की कोमलता, सजलता ओर ताजगी के अहसास को व्यक्त करता है। इसमें सूवापन नहीं अपितु एक आर्द्रता एक नमी है, सौन्दर्य की व्यापकता है। कवि कहता है कि हमारे जेसे शहरी लोग अपने मालंच (गृह-वाटिका) पर साज-संभार के साथ जूही का जो फूल उगाते हैं और मुग्ध होते हें उन्हें उस ऐश्वर्य, सच्चे ओदार्य सृष्टि के विस्तार का बोध ही नहीं जो 'हरी बिछली घास' में हे या फिर शरद ऋतु की सांध्य-वेला में आकाश की शून्य पीठिका पर लहलहाते बाजरे की कलगी में है।

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