प्रसंग-संत कबीरदास भक्तिकाल की निर्गुण-ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके द्वारा रचित पद 'संतो देखत जग कैराना' “हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में सकलित है। इस पद में संत कबीर अपनी लगंत के साधुओं को इस संसार के पागलपन की बातें समझाते हुए कहते हैं-
व्याख्या-हे साधो! देखो तो सही, यह संसार कैसा पागल हो गया है। यदि यहां सत्य बात कहें तो सांसारिक लोग सत्य का विरोध करते हैं ओर मारने दौड़ते हें, परन्तु झूठी बातों का विश्वास कर लेते हैं। इन लोगों को सत्य-असत्य का सही ज्ञान नहीं हे। हिन्दू समाज के लोग राम की पूजा करते हैं और राम को अपना बताते हैं। इसी प्रकार मुसलमान लोग रहमान (अल्लाह) को अपना बताते हैं। ये हिन्दू ओर मुसलमान राम ओर रहमान की कट्टरता के समर्थक हैं और धर्म के नाम पर आपस में लड़ते रहते हैं। इन दोनों में से कोई भी ईश्वर की सत्ता के रहस्य को नहीं जानता। कबीर का कहना हे कि इस संसार में मुझे अनेक लोग ऐसे मिले, जो नियमों का पालन करने वाले थे और धार्मिक अनुष्ठान भी करते थे तथा प्रात: शीघ्र उठकर स्नान भी करते थे। इन लोगों का भी ज्ञान थोथा ही निकला। ये लोग आत्म तत्व को छोड़कर पत्थर से बनी मूर्तियों की पूजा करते हैं। इन लोगों को अपने ऊपर विशेष घमंड हे ओर आसन लगाकर भी घमण्ड को नहीं त्याग पाए। इन लोगों ने तीर्थ ओर ब्रतों का त्याग कर दिया और ये पीपल के वृक्ष ओर मूर्ति-पूजा के कार्यों में व्यस्त हो गए। ये हिन्दू लोग अपने गले में माला पहनते हैं तथा सिर पर टोपी धारण करते हैं। माथे पर तिलक लगाते हैं और छापे शरीर पर बनाते हैं। साखी और सबद का गायन भुला दिया है ओर अपनी आत्मा के रहस्य को ही नहीं जानते हैं। इन लोगों को सांसारिक माया का बहुत अभिमान हे ओर घर-घर जाकर मंत्रा-यंत्रा देते फिरते हैं। इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने वाले शिष्य और उनके गुरु दोनों ही अज्ञान के सागर में डूबे हुए है, इन्हें अपने अंत काल में पछताना पड़ेगा, इसी प्रकार इस्लाम धर्म के अनुयायी अनेक पीर, ओलिया, फकौर भी आत्मतत्त्तव के ज्ञान से रहित पाए गए, जो नियमपूर्वक पवित्रा कुरान का पाठ करते हें, वे भी अल्लाह को सिर झुकाते हैं तथा अपने शिष्यों को कब पर दीया जलाने की बात बतलाते हें। वे भी खुदा के बारे में कुछ नहीं जानते। कबीर के अनुसार हिन्दू ओर मुसलमान दोनों ही धार्मिक आउम्बरों में लिप्त हैं और ईश्वर की परम सत्तत्ता से अपरिचित हैं।
मिथ्याभिमान के परिणामस्वरूप अब तो यह स्थिति हो गई है कि हिन्दुओं में दया और मुसलमानों में महर का भाव नहीं रह गया हे। उनके स्वभाव और व्यवहार में कठोरता का भाव आ गया है। दोनों के घर विषय-वासनाओं की आग में झुलस रहे हैं। कोई जिबह कर और झटका मारकर अपनी वासनाओं की संतुष्टि करता है ओर इस प्रकार हंसते-चलते अपना जीवन व्यतीत करते हैं और अपने को सयाना अथवा चतुर कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसे तथाकथित लोग हमारा उपहास करते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि इनमें कोई भी प्रभु के प्रेम का सच्चा दिवाना नहीं हे। दूसरे शब्दों में, प्रभु के प्रति इनका प्रेम कृत्रिमता से युक्त है।
काव्य-सौष्ठव-प्रस्तुत पद में कबीर की आम बोल-चाल की सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है। तद््भव शब्दों की बहुलता के साथ-साथ उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग है। 'पीपर-पाथर पूजन लगे', “गुरुवा सहित शिष्य सब बूड़े' में अनुप्रास सहज रूप से दर्शनीय है। चित्रात्मकता के साथ-साथ कबीर ने मानव धर्म का प्रतिपादन किया है। हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक आउम्बरों का विरोध किया गया है और बताया गया है कि आत्म-तत्त्व के ज्ञान के लिए किसी भी धार्मिक आडम्बर की आवश्यकता नहीं हे।
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