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अलंकार सम्प्रदाय के विकास पर प्रकाश डालिए।

भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में रस के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण संप्रदाय 'अलंकार-संप्रदाय है। अलंकार का सामान्य अर्थ है- 'आभूषण; किन्तु काव्य के क्षेत्र में इसका विशेष रूढ़ि अर्थ है। १) 'अलंकरोतीति अलंकार; (जो काव्य का अलंकृत करे, वही अलंकार है।) २) अलंक्रियतेनेन इति अलंकार: (जिसके द्वारा अलंकृत किया जाता है वह अलंकार है।) ये लक्षण अपर्याप्त हैं क्योंकि केवल अलंकार ही काव्य की शोभा नहीं बढ़ाते- रस, ध्वनि, गुण, रीति इत्यादि भी काव्य की शोभा बढ़ाते हैं। अलंकारों का सर्वप्रथम निरूपण किसने किया, इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। भरत के नाट्यशास्त्र में केवल चार अलंकारों का उल्लेख मिलता है- उपमा, रूपक, दीपक, और यमक, किन्तु अभी अलंकार-सिध्दांत का जन्म नहीं हुआ था। अलंकार-सिध्दांत का प्रवर्तक भामह (छठी शती ई.) को माना जाता है जिनका प्रसिध्द ग्रन्थ काव्यालंकार है। भामह का अनुसरण दण्डी ने किया। फिर भामह और दण्डी दोनों का उद्धट ने। इन तीनों आचार्यों के अतिरिक्त रूय्यक, रीतिवादी आचार्य वामन, वक्रोक्तिवादी कुन्तक इसी तरह किसी न किसी रूप में मम्मट, जयदेव, आचार्य केशव (हिंदी) इत्यादि प्रमुख आचार्यो ने अलंकार को काव्य का एक आवश्यक तत्व स्वीकार किया।

· भामह ने अलंकार को काव्य का एक आवश्यक आभूषक तत्व मानते हुए कहा है-न कान्तमपि विभूषणं विभाति वनिता मुखम्‌।अर्थात्‌ बिना अलंकारों के काव्य उसी प्रकार शोभित नहीं हो सकता जिस प्रकार किसी सुन्दर स्त्री का मुख बिना अलंकारों के शोभा नहीं पाता। भामह ने ३५ अलंकारों को निर्दिष्ट किया है, जिनमें उपमा, रूपक, श्लेष इत्यादि प्रधान अलंकार है।

· दज्डी ने सर्वप्रथम अलंकार शब्द को परिभाषित किया कि काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं- काव्यशोभाकरान्‌ धर्मान्‌ अलंकारन्‌ प्रचक्षते।इन्होंने ३६ अलंकारों का विवेचन करते हुए अतिशयोक्ति को पृथक अलंकार निरूपित किया है।

· वामन ने गुण को काव्य में नित्य और अलंकार को अनित्य स्थान दिया। काव्यशोभाया: कर्तारों धर्मा गुणा:। उनके कथनानुसार गुण यदि काव्य के शोभा कारक धर्म हैं तो अलंकार उस शोभा के वर्धक हैं। इस प्रकार वामन की इष्टि में अलंकार का महत्त्व गुणों की अपेक्षा कम हो गया।

· आनन्दवर्धन ने अलंकार का नूतन लक्षण प्रस्तुत करते हुए इसका महत्त्व और भी कम कर दिया आनन्दवर्धन ने कहा हैं अंगाश्रितास्त्वलंकारा: मन्‍तव्या: कटकादिवत। अर्थात्‌ अलंकार शब्द और अर्थ के आश्रित रहकर कटक,कुण्डल आदि के समान (शब्दार्थ-रूप शरीर के शोभाजनक है। अतः इनके अतंगत 'ध्वनि' को समाविष्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि 'ध्वनि' विशुध्द रूप से आंतरिक तत्व है।

· मम्मट ने काव्य-लक्षण में अनलंकृति पुनः क्वापि कहा है। उनके अनुसार गुण रस के नित्य धर्म है, अलंकार शब्दार्थ के अस्थिर धर्म। गुण रस के साश्रात्‌ एवं नित्य रूप से उत्कर्षक हैं, पर अलंकार शब्दार्थ की शोभा के माध्यम से ही रस के उत्कर्षक हैं, और वह भी अनित्य रूप से।

· जयदेव की अलंकार के संबंध में धारणा पूर्वाग्रह की सीमा को छूती प्रतित होती है। वे कहते हैं-

अंगीकरोति य: काव्य॑ शब्दार्थावनलंकृति।

असां न मन्यते कस्मादनुषणमनल्ल कृती।।

अर्थात्‌ जो व्यक्ति बिना अलंकारों के काव्य का अस्तित्व स्वीकार करता है वह ऐसा क्यों नहीं मान लेता कि अग्नि भी बिना उष्णाता के हो सकती है।

केशवदास इन संस्कृत आचार्यों के परवर्ती काल में हिन्दी में बहुत से ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने अलंकार- सम्प्रदाय का समर्थन किया, जिनमें केशवदास ने अलंकार को परिभाषित करते हुए कहा हैं-

जदपि सुजाति सुत्नच्छनी, सुवरन, सरस सुवृत।

भूषण बिना न बिराजई, कविता वनिता मित्त।।

इस प्रकार हमने देखा कि अलंकारवादियों का अलंकार अब काव्य का अनिवार्य तत्व न रहकर शब्दार्थ की शोभा के माध्यम से रस का उपकारक बन गया और वह भी नित्य रूप से नहीं। मम्मट का 'अनलंक्ति पुनः क्वापि' कथन इसी अवहेलना का घोतक है। इस प्रकार अलंकार को 'काव्य की आत्मा'मानने का प्रश्न आनन्दवर्धन, मम्मट आदि आचार्यों के मत में तो उत्पन्न ही नहीं होता। भामह, दण्डी और उद्धट के मत में भी अलंकार को काव्य की आत्मा नहीं मान सकते, क्योंकि उनके मत में भी अलंकार काव्य का अनिवार्य साधन मात्र है। आनन्दवर्धन का यह कथन कि अलंकारों को रस के अंग रूप में ही स्थान दिया जाए, प्रधान रूप में कभी नहीं। 

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