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रीतिबद्ध काव्य

रीतिबद्ध काव्य वह काव्य है जो संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रतिपादित काव्यांगों के आधार पर लक्षण ग्रंथों के रूप में लिखा गया अर्थात रस, अलंकार, नायिक-भेद, गुण.न्रैललि वक्रोक्ति आदि काव्य सिद्धांतों को ध्यान में रखकर काव्य रचना करने वाले कवि ही रीतिबद्ध कहलाए । रीतिबद्ध काव्य लक्षणयुक्त काव्य था । इसमेलक्षणोदाहरण की प्रवृति प्रमुख थी । चूंकि रीति ग्रंथों की रचना कारव्यशास्ीय नियमों में बंधकर की गयी, इसलिए इसे शास्त्रीय काव्य की संज्ञा भी दी जाती है । डो नगेंट्र ने भी इन ग्रंथों के रचयिताओं को 'रीतिकार' कहा है । इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कवि कर्म और आचार्य कर्म दो परस्पर विरोधी कार्य हैं। कवि के लिए जहां भाव प्रवण, सरल द्वदाय की आवश्यकता होती है वहीं आचार्य कर्म के लिए प्रौठढ मस्तिष्क , विवेचन, विजल्लेषण की शक्तिकी अपेक्षा हुआ करती है वास्तव में आचार्य कर्म तो इन्हे परम्परावश निभाना पड़ा। उस समय ऐसी परम्परा चल पड़ी थी कि कोई भी कवि रीतिशास्त्र के ज्ञान के बिना राजदरबार में सम्मान नहीं पा सकता था । इसी कारण इन कवियों ने राजदरबारों में आश्रय ग्रहण किया और जीवनयापन हेतु धन प्रास करने के लिए लक्षण-लक्ष्य ग्रंथों का निर्माण किया । इस क्षेत्र में इनका योगदान इस रूप में है कि इन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में वर्णित काव्यांगों को लोक भाषा ( ब्रज ) में सरल रूप में प्रस्तुत किया। रीतिबद्ध आचार्य कवियों ने किसी नए काव्यशास्त्रीय सिद्धांत की स्थापना नहीं की | इसी कारण इनके लक्षण ग्रंथों में मालिकता का अभाव है | ये एक अनुवादक के रूप में सामने आए हैं। रीतिबद्ध कवि आचार्यों में केशवदास , चिंतामणि, मतिराम, देव ,पदमाकर आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ॥फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ये कवि दरबार में मात्र सम्मान और धन पाने हेतु ही रचना करते थे। बल्कि ये रचनाकार कवि हृदय भी रखते थे, परंतु समय की मांग के अनुसार एक बंधी बंधाई लीक पर इन्हे काव्य रचना करनी पड़ी,रीतिकालीन कवि और कलाकार सामाजिक चेतना से शून्य नहीं थे, किंतु विवश थे | आचार्य शुक्ल का “ काव्य धारा बंधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी “ कथन उनकी काव्य रचना की इसी विवशता को प्रकट करता है । डॉ नगेंद्र भी रीतिकवियों की काव्य-सृष्टि के विषय में लिखते हैं-- रीतिकाल के कवि वे व्यक्ति थे जिनको प्राय: साहित्यिक अभिरूचि पैतृक परम्परा के रूप में प्रास थी - काव्य परिशीलन और सृजन इनका शगल नहीं था, स्थायी कर्तव्य कर्म था | ये कवि कविता को ललित कला के पर्याय रूप में ग्रहण कर काव्य रचना करते थे ।राजाओं का आश्रय तो ये कवि केवल आर्थिक सहायता के लिए ग्रहणकरते थे जिससे इनकी काव्य- साधना बिना किसी बाधाके निरंतर चलती रहे ।

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