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साहित्यिक अनुवाद का क्या महत्त्व है?

 अनुवाद मानव सभ्यता के साथ ही विकसित एक ऐसी तकनीक है जिसका आविष्कार मनुष्य ने बहुभाषिक स्थिति की विडम्बनाओं से बचने के लिए किया था । वर्तमान युग ‘अनुवाद का युग है। वर्तमान युग में अनुवाद की माँग और कार्य-क्षेत्र में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। इससे विभिन्न भाषाओं के बीच की दूरी कम हो रही है। प्रांतीय भाषाओं में रचित साहित्य को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय महत्त्व भी मिल रहा है। इससे एक भाषा की सामग्री से एकाधिक भाषाओं के पाठक लाभान्वित होते हैं। साहित्यानुवाद की महत्ता विभिन्न संदर्भ लिए हुए है, इसे निम्न प्रकार से समझा जा सकता है

• राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता के पल्लवन में साहित्यानुवाद की सार्थक भूमिका है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विभिन्न भाषा-भाषियों में व्याप्त अनेकताओं के बीच प्रवाहित एकता की धारा की समझ के विकास में अनुवाद की सर्वाधिक उपादेयता है। साहित्यानुवाद, भारतीय जनमानस में एकता और समानता की उच्च भावना का संचार करता है। भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य की परंपरा इस तथ्य का उद्घाटन करती है कि सभी भाषाओं में मूलतः भावात्मक एकता ही है।

उत्तर भारत में जहाँ गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस लिखी वहीं तमिल में कंबन, मलयालम में एषुत्तच्छन, बंगाल में कृत्तिवास, असमिया में शंकरदेव, ओड़िया में बलरामदास, मराठी में एकनाथ आदि ने रामकाव्य की रचना की । निर्गुण ब्रह्म की उपासना का हिंदी में कबीर, पंजाबी में नानकदेव, मराठी में ज्ञानेश्वर, नामदेव, कश्मीरी में लल्लेश्वरी, सिंधी में सामी और तेलुगु में वेमना ने जनमानस को संदेश दिया।

• किसी भी भाषा की श्रेष्ठ/महान साहित्यिक कृतियों के प्रति विश्व-मानव की जिज्ञासा अन्य भाषा-भाषियों को साहित्यिक अनुवाद करने की प्रेरणा का आधार बनती हैं। साहित्यानुवादक अन्य भाषाओं में उपलब्ध महान साहित्यिक कृतियों को अपनी भाषा के पाठकों तक पहुँचाना चाहता है ताकि वे भी उत्तम कृतियों के पठन-वाचन का आनंद ले सकें, उनका आस्वादन कर सकें।

इसी कारण शेक्सपीयर, टॉलस्टॉय आदि विश्व-विख्यात साहित्यकारों की कृतियाँ विश्व की अनेकानेक भाषाओं में अनूदित हुई। इसी प्रकार, बंकिम चंद्र चटर्जी, रवींद्रनाथ ठाकुर, कालिदास, वाल्मीकि, गोस्वामी तुलसीदास, कबीरदास, प्रेमचंद आदि की रचनाएँ केवल भारतीय भाषाओं में ही न अपितु अनेकानेक विदेशी भाषाओं में भी अनूदित हुईं।

इसी का परिणाम रहा था कि महाकवि कालिदास कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ का पढ़कर जहाँ जर्मन कवि गेटे चमत्कृत थे वहीं शेलिंग, शॉपेनहावर तथा टी एस. एलियट भारतीय उपनिषदों से साक्षात् कर पाए। ‘मेघदूत’ के एच.एच. विल्सन द्वारा किए गए ‘मेघदूत’ के पद्यानुवाद से पाश्चात्य रोमांटिक कवियों को प्रेरणा मिली।

• भाषा और साहित्य का संस्कृति की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। साहित्य वह माध्यम है, जिसके द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं और विश्वासों की अभिव्यक्ति होती है, जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा होती है। इसलिए अनुवाद, संस्कृति के विकास का एक बड़ा माध्यम है। एक भाषा का साहित्य मौखिक अथवा लिखित – किसी भी रूप में दूसरी भाषा में, दूसरी से तीसरी, चौथी आदि भाषा में स्थान पाता चलता है।

साहित्यिक यात्रा का निरंतर चलता यह चक्र, संस्कृति और सभ्यता के विकास एवं प्रसार को गति प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, भारतीय ग्रंथों के अनुवाद से पूर्वी एशिया के चीन, जापान, इंडोनेशिया, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार), थाईलैंड, कंपूचिया, लाओस आदि अनेक देशों में बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ।

अरबों ने गणितशास्त्र, खगोल विज्ञान और आयुर्वेद से संबंधित भारतीय ग्रंथों के अनुवाद किए। भारत-अरब के इस साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान के परिणामस्वरूप समूचे यूरोप में भारतीय गणित का प्रचार हुआ। इतिहास साक्षी है कि अनूदित साहित्य यूरोप में पुनर्जागरण के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ है। जैसे, ‘एलिजाबेथन युग में इतालवी और फ्रांसीसी क्लासिकों के अनुवादों ने यूरोपीय पुनर्जागरण से उन्मुक्त मानवीय चेतना की हलचलों ने ब्रिटिश संवेदना को झकझोर कर रख दिया।

वहीं, 18वीं-19वीं शताब्दी के यूरोपीय चेतना के दूसरे पुनर्जागरण में संस्कृत और फारसी से किए गए अनूदित साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ‘मेघदूत’ के एच एच. विल्सन कृत पद्यानुवाद ने अन्य रोमांटिक कवियों को तथा चार्ल्स विल्किन्स द्वारा किए गए गीता के पद्यानुवाद ने विलियम ब्लेक को प्रेरणा प्रदान की और यूरोपीय समाज-संस्कृति को समृद्ध किया।

• साहित्यानुवाद का भाषा के विकास की दृष्टि से भी महत्त्व है। अनुवाद के प्रसार से विभिन्न देशों की भाषाएँ अन्य भाषाओं से शब्दावली प्राप्त करती हैं ताकि सार्थक अनुवाद का प्रयोजन सिद्ध हो सकें। अनुवाद के प्रयोजन से अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने के मूल में जहाँ अंगीकरण की प्रवृत्ति झलकती है वहीं अनुकूलन की प्रवृत्ति भी नजर आती है। जैसे, हिंदी में प्रयुक्त होने वाले ‘मुआवजा’. ‘कुर्की’, ‘जुर्माना’ आदि उर्दू शब्द; तथा कप्यूटर’, ‘स्कूल’, ‘कॉलेज’, ‘रेलवे’, ‘मिनट’, ‘गैस’, ‘बोनस’, ‘चैक’ आदि अंग्रेजी के शब्द अंगीकरण के प्रमाण हैं।

अंग्रेजी भाषा ने ‘maya’, ‘decoit’, ‘yoga’, ‘jungle’, ‘chutney’, ‘curry’ आदि भारतीय शब्दों को अपनाया है। इसी प्रकार, ‘फतासी’, ‘रपट’, ‘अपीलीय’, ‘गोदाम’, ‘तकनीक’, ‘कामदी’ और ‘रिपोर्ताज’ आदि शब्दों का प्रयोग क्रमशः ‘fantasy’, ‘report’, ‘appellate’, ‘godown’, ‘technique’, ‘comedy’ और ‘reportage’ शब्दों की ध्वनियों में थोड़े-बहुत परिवर्तन करके शब्दों का रहा है। इसके अलावा, ‘काला धन’, ‘स्वर्ण जयंती’, ‘पाँच तारा’, ‘श्वेत-पत्र’ आदि ऐसे ही कुछेक शब्द हैं जो अंग्रेजी के क्रमशः ‘black money’, ‘golden jubilee’, ‘five star’, ‘white paper’ शब्दानुवाद के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

• साहित्यकार की मनोभूमि से जुड़ने तथा उसके आत्म-विस्तार को स्वर देने का आधार अनुवाद ही है। साहित्य मानव-जीवन की, उसके भाव एवं विचार की तार्किक अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। रचनाकार अपनी कल्पना शक्ति और सर्जनात्मकता से अपने भावों को भाषा के जरिए व्यक्त करता है, जिन्हें समझने के लिए अनुवादक को अपनी मनोभूमि के तार, साहित्यकार की मनोभूमि से जोड़ने पड़ते हैं, लेखक के वैचारिक धरातल में गहन रूप से प्रवेश करना पड़ता है। वह इस कार्य को ‘परकाया प्रवेश’ के आधार पर संपन्न करता है।

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