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जहाँ देखता हूँ, वहाँ तुम हो, सब में तुम्हारा विस्तार है। विश्व के बाहु तुम हो, विश्व के नयन तुम हो, विश्व के मुख तुम हो, विश्व के पैर तुम हो, है कूडल संगम देव।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियां आचार्य धर्मकीर्ति की महत्त्वपूर्ण रचना ‘प्रमाण वार्तिक’ से ली गई हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से रचनाकार ने परमार्थ सत् (परम तत्त्व) की व्याख्या करने का प्रयास किया है, वही परमतत्व सभी चेतनजगत में व्याप्त होकर विस्तार प्राप्त करता है और प्रत्यक्ष के प्रमाण के आधार पर धर्मकीर्ति ने यहां उसका संकेत किया है |

व्याख्या :- मैं प्रत्येक स्थान पर परमतत्त्व की उपस्थिति की उसके विस्तार के साथ देखता हूँ। यही । परमतत्त्व विश्व की भुजा या बांहें है, यही विश्व का नयन, मुख तथा पैर भी है। इस परमतत्व को साकार स्वरूप प्रदान करते हुए धर्मकीर्ति ‘कूडल संगम देव’ नाम से पुकारते हैं, अर्थात निराकार परमतत्त्व की सत्ता प्रत्येक कण में व्याप्त मानते हुए साकार रूप में उसे विश्व को भुजा, नेत्र, मुख, और पैर मानकर कूडल संगम देव का आकार तथा नाम प्रदान करते हैं।

(1) भाषा सरल आम बोलचाल की भावानुकूल तथा प्रवाहमयी है।

(2) ‘अनुपलब्धि हेतु’ का प्रयोग करके निराकार ईश्वर को संबोधित किया गया है।

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