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सुधार और प्रति-सुधार

 यूरोप में आधुनिक युग के प्रारंभ के साथ-साथ जो परिवर्तन प्रारंभ हुए उनमे पुनर्जागरण और धर्मसुधार आंदोलनो का विशेष महत्व है। धर्म सुधार आन्दोलन सोलहवीं सदी मे प्रारंभ हुए। मार्टिन लूथर को धर्मसुधार आंदोलन का प्रणेता माना जाता है। पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोप के धार्मिक क्षेत्रों मे महत्वपूर्ण परिवर्तनो की माँग होने लगी। धार्मिक क्षेत्रों मे परिवर्तनो की माँग को ही धर्म सुधार आन्दोलन कहा जाता है।

हेज के अनुसार ” वस्तुतः 16 वीं सदी के आरंभ में बौद्धक जागृति के फलस्वरूप बहुसंख्यक ईसाई कैथोलिक चर्च के कटु आलोचक थे और चर्च की संस्था मे मूलभूत परिवर्तन चाहते थे। इसी सुधारवादी प्रयास के फलस्वरूप जो धार्मिक आन्दोलन हुआ और ईसाई धर्म के जो नवीन धार्मिक सम्प्रदाय अस्तित्व मे आये, वह सामूहिक रूप से धर्म सुधार आंदोलन कहलाते है।” धर्म सुधार आन्दोलन की व्याख्या करते हुए रॉबर्ट इरगैंग ने लिखा है, “धर्म सुधार आन्दोलन एक जटिल और सुदूरगामी आन्दोलन था। 

यह आन्दोलन मध्य युग की सभ्यता के विरुद्ध एक साधारण प्रतिक्रिया मात्र था, परन्तु इसने विभिन्न राष्ट्रों के जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया। इसका प्रमुख कारण यह था कि “सभी मनुष्य कला व साहित्य की अपेक्षा धर्म में अधिक रुचि रखते थे। इस आन्दोलन ने मध्ययुगीन कैथोलिक धर्म का परित्याग करने तथा आदिम ईसाई धर्म अर्थात् ईसा मसीह, सेण्ट पॉल और ऑगस्टाइन के उपदेशों की महत्ता को स्वीकार करने पर बल दिया और इस प्रकार आधुनिक विकास के लिए मार्ग प्रशस्त किया। यह आन्दोलन प्रारम्भ में एक धार्मिक आन्दोलन मात्र था, किन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं बौद्धिक पहलू भी सम्मिलित हो गए, जिनका धर्म से अत्यन्त दूर का सम्बन्ध था।”

प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए गए थे…

• इटली के ट्रॅट नामक जगह पर एक कैथोलिक धर्म सभा का आयोजन किया गया। उसमें कैथोलिक धर्म से संबंध रखने वाले अनेक विद्वानों को बुलाया गया और आपस में गहन चिंतन किया गया।

इस सभा में सिद्धांत और सुधार संबंधी दो तरह के फैसले लिए गए। सुधारात्मक उपायों के अंतर्गत चर्च के पदों की बिक्री समाप्त खत्म कर दी गई और पादरियों को सख्त निर्देश दिया गया कि वह अपनी मर्यादा में रहकर आदर्श जीवन बिताएं। पादरियों की शिक्षा का भी उचित प्रबंध किया गया।

• धार्मिक न्यायालय की स्थापना की गई ताकि प्रोटेस्टेंटवादियों को रोका जा सके। कैथोलिक धर्म के लचर व्यवस्था का पता लगाने तथा नास्तिक और धर्म विरोधी लोगों को कठोर सजा देने की वयवस्था की गयी हैं

• सोसाइटी ऑफ जीसस की स्थापना की गई और इस सोसाइटी से जो प्रशिक्षण प्राप्त कर लेता था उसे अनेक तरह के विशिष्ट कार्य दिए जाते थे। यह कार्य पादरी, डॉक्टर, शिक्षक आदि के होते थे। इस संस्था के सारे सदस्यों को अनुशासन में रहकर कैथोलिक धर्म की निस्वार्थ सेवा करने के लिए प्रेरित किया जाने लगा तथा उन्हें पवित्रता और आदर्श जीवन जीने के लिये विशेष जोर दिया जाने लगा।

उन्हें पोप के प्रति अपनी आस्था प्रकट करनी होती थी और पोप के नाम की शपथ लेनी होती थी। इस सोसायटी के अनेक सदस्यों को कैथोलिक धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए विश्व के अनेक देशों में भेजा गया।

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