दलित साहित्यकारों ने हिन्दी में दलित साहित्य की विशेष स्थिति और आवश्यकता को रेखांकित करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि दलितों के द्वारा दलितों के जीवन पर लिखा गया साहित्य दलित साहित्य है। किसी गैर-दलित या सवर्ण द्वारा लिखे गए दलित संबंधी साहित्य को वे दलित साहित्य मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी दृष्टि में ऐसा साहित्य सहानुभूति या दया का साहित्य है, वह चाहे प्रेमचंद या निराला का ही दलित चेतना से जुड़ा हुआ साहित्य क्यों न हो।
मोहनदास नैमिशराय का मानना है कि दलित साहित्य दलितों का ही हो सकता है क्योंकि उन्होंने जो नारकीय उपेक्षापूर्ण जीवन भोगा है, वह कल्पना की चीज नहीं है। वह उनका भोगा हुआ यथार्थ और जख्मी लोगों का दस्तावेज है। वह उनकी मुक्ति का संदेश है, वह चेतना का उगता हुआ सूरज है। उसमें गुस्सा और नफरत अनुभूति-प्रेरित है। उसे कला के छल की जरूरत नहीं है। श्योराज सिंह बेचैन मानते हैं कि दलित साहित्य का संबंध कबीर, रैदास जैसे दलितों के साहित्य से भी नहीं है और न व्यास और वाल्मीकि के साहित्य से।
कबीर और रैदास उन्हें ईश्वर के सहारे छोड़ देते हैं और वाल्मीकि और व्यास तो ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करते हैं। आज का दलित साहित्यकार अपने अनुभव से अपना रास्ता निकालने का हिमायती है, उसमें क्रोध, नफरत, नकार और आत्मपहचान का तत्व प्रमुख है। वह इतिहास धारा में बहने के लिए नहीं, उसकी ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्ष करने और उसे पलटने के लिए कटिबद्ध है। वह बाबा साहब अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले का अनुयायी है। दयानंद वटरोटी का कहनी संग्रह ‘सुरंग’, संजय खाती की कहानी ‘रोजगार’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘गोहत्या’, ‘अंधड़’ आदि को पढ़ने के बाद यह कहना पड़ता है कि एक तो हिन्दी में दलित कहानी अभी शैशवावस्था में है, दूसरे सवर्ण लेखकों ने दलित चेतना की जो कहानियाँ लिखी हैं, वे भले ही उनका भोगा हुआ यथार्थ न हो, लेकिन दलित लेखक की कहानियों से ज्यादा मार्मिक और प्रभावशाली है।
अत: दलित चेतना की पड़ताल अधिक सार्थक एवं समीचीन है। हिन्दी में दलित चेतना से जुड़ी हुई मार्मिक कहानियों की एक सुदीर्घ परंपरा है। इस परंपरा के अग्रणी लेखक हैं-प्रेमचंद। उनकी ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुँआ’, ‘दूध का दाम’, ‘बाबा जी का भोग’, ‘सवा सेर गेहूँ’, और ‘कफन’ जैसी कहानियाँ आज भी सामाजिक विषमता, उत्पीड़न, शोषण और अमानवीय आचरण का जो रूप प्रस्तुत करती हैं, वह भोगे हुए यथार्थ के दलित लेखकों की कहानियों पर भारी पड़ता है। उन्होंने वर्ण-विभक्त समाज में दीन-हीन दलितों का पक्ष लेकर अपनी जनचेतना और जनपक्षधरता का जो सहज स्वाभाविक परिचय दिया है, वह हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य निधि और उनकी बेमिसाल साहित्य साधना का ठोस उदाहरण है।
प्रेमचंदोत्तर कहानीकारों ने भी दलित जीवन से संबंधित स्मरणीय कहानियाँ लिखी हैं, जैसे-‘हलयोग’ (मार्कण्डेय), ‘अकालदंड’ (शिवमूर्ति), ‘बराबरी का खेल’ (रमेश उपाध्याय), ‘बच्चे बड़े हो रहे हैं’ (मदन मोहन), ‘प्रतिहिंसा’ (मुद्राराक्षस), ‘बगल में बहता सच’ (महेश कटारे), “धनीराम’ (पुन्नीसिंह) आदि। इन कहानियों में न केवल दलित जीवन की त्रासदी और संघर्ष-कथा चित्रित है बल्कि अन्याय, शोषण उत्पीड़न और संहार के प्रति सक्रिय विरोध और विद्रोह भी अंकित है।
उल्लेखनीय यह है कि यह सहानुभूति या दया का साहित्य नहीं है बल्कि यथार्थ का स्वीकार है और मानवता की दिशा में उठाया गया सही कदम है। इसे गैर-दलित का लेखन कहकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता। दलित साहित्यकारों के इस तर्क में दम है कि भोगे हुए यथार्थ की ही अभिव्यक्ति प्रामाणिक एवं विश्वसनीय होती है, किंतु इसके साथ यह भी सच है कि कोई वाल्मीकि की क्रौंच की मर्मान्तक पीड़ा को अपने हृदय में महसूस करके उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति कर सकता है।
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